ख़्वाबों का बोझ था ,
आँखें कब तक सहतीं |
जाने किस का दोष था ,
पलकें कब तक कहतीं |
उसके आने कि आस में ,
राहें कब तक रहतीं |
इन साँसों में घुली ,
आँहें कब तक रहतीं |
थोड़ा ही था पानी उनमें ,
धारा कब तक बहतीं |
चुप ही हैं सब हवाएं ,
अपनी कब तक कहतीं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 29 जून 2011
शुक्रवार, 24 जून 2011
पुष्प बनो !
लाख दुःख सहने होंगे ,
सदा कांटे ही लगे होंगे ,
पर इन समान न तुच्छ बनो ,
फूलो , खिलो , पुष्प बनो !
एक से ही दिखते हैं सब ,
विष उगलते अजब अजब ,
इनसे तो भिन्न कुछ बनो ,
महको , चहको , पुष्प बनो !
इनके मर्म में नमी नहीं ,
द्वेष अग्नि कि कमी नहीं ,
तुम न हृद्य शुष्क बनो ,
दुर्लभ , सुरभित , पुष्प बनो !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सदा कांटे ही लगे होंगे ,
पर इन समान न तुच्छ बनो ,
फूलो , खिलो , पुष्प बनो !
एक से ही दिखते हैं सब ,
विष उगलते अजब अजब ,
इनसे तो भिन्न कुछ बनो ,
महको , चहको , पुष्प बनो !
इनके मर्म में नमी नहीं ,
द्वेष अग्नि कि कमी नहीं ,
तुम न हृद्य शुष्क बनो ,
दुर्लभ , सुरभित , पुष्प बनो !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 22 जून 2011
Every day is a hike too steep,
so in your arms O lord,
let me weep,sleep.
Sleep as i know nothing,
sleep as i owe nothing,
sleep as i own nothing.
You are always there for me,
I am never there for you,
I always lie, you always speak true.
All i want is that,
whatever be the situation,
you always see me through।
अक्षत डबराल"निःशब्द"
मंगलवार, 21 जून 2011
क्या करूँ ?
नैनो को तो सुला देता हूँ ,
इन सपनों का क्या करूँ ?
रात में देखता है हर कोई ,
दिन में दिखने का क्या करूँ ?
कभी भुलाना चाहता हूँ इनको ,
पर इन यादों का क्या करूँ ?
दूर छोड़ आता हूँ रोज़ इन्हें ,
मेरा पीछा करने का क्या करूँ ?
अब ये मेरे साए से जुड़ गए हैं ,
इस परछाई का क्या करूँ ?
हाँ है तो ये सच्चाई ,
पर इस सच्चाई का क्या करूँ ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
इन सपनों का क्या करूँ ?
रात में देखता है हर कोई ,
दिन में दिखने का क्या करूँ ?
कभी भुलाना चाहता हूँ इनको ,
पर इन यादों का क्या करूँ ?
दूर छोड़ आता हूँ रोज़ इन्हें ,
मेरा पीछा करने का क्या करूँ ?
अब ये मेरे साए से जुड़ गए हैं ,
इस परछाई का क्या करूँ ?
हाँ है तो ये सच्चाई ,
पर इस सच्चाई का क्या करूँ ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 19 जून 2011
क्यों ?
क्यों नैनों की कोई किताब नहीं ?
क्यों सपनों का कोई हिसाब नहीं?
क्यों ज़िन्दगी है एक सवाल हमेशा ?
क्यों इस सवाल का कोई जवाब नहीं ?
क्यों अरमानों का घड़ा न भरता ?
क्यों गुज़रते वक़्त से मन डरता ?
क्यों लगती कुछ कमी हमेशा ?
क्यों बातों से खालीपन झड़ता ?
क्यों टकराते हैं कुछ अहं ?
क्यों कुछ चेहरे न होते सहन ?
क्यों पहने हैं नकाब हमेशा ?
क्यों बजते हैं यूँ जेहन ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
क्यों सपनों का कोई हिसाब नहीं?
क्यों ज़िन्दगी है एक सवाल हमेशा ?
क्यों इस सवाल का कोई जवाब नहीं ?
क्यों अरमानों का घड़ा न भरता ?
क्यों गुज़रते वक़्त से मन डरता ?
क्यों लगती कुछ कमी हमेशा ?
क्यों बातों से खालीपन झड़ता ?
क्यों टकराते हैं कुछ अहं ?
क्यों कुछ चेहरे न होते सहन ?
क्यों पहने हैं नकाब हमेशा ?
क्यों बजते हैं यूँ जेहन ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 18 जून 2011
दो ...
दो रास्तों को मिलने के लिए ,
कुछ कदम आने जाने होंगे |
दो ख़्वाबों को मिलने के लिए ,
कुछ अरमान आने जाने होंगे |
दो आँखों को मिलने के लिए ,
कुछ फरमान आने जाने होंगे |
दो वजूदों को मिलने के लिए ,
कुछ एहसान आने जाने होंगे |
दो कहानियों को मिलने के लिए ,
कुछ किस्से आने जाने होंगे |
दो तस्वीरों को मिलने के लिए ,
कुछ हिस्से आने जाने होंगे |
दो हाथों को मिलने के लिए ,
कुछ रिश्ते आने जाने होंगे |
दो इंसानों को मिलने के लिए ,
कुछ फ़रिश्ते आने जाने होंगे |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कुछ कदम आने जाने होंगे |
दो ख़्वाबों को मिलने के लिए ,
कुछ अरमान आने जाने होंगे |
दो आँखों को मिलने के लिए ,
कुछ फरमान आने जाने होंगे |
दो वजूदों को मिलने के लिए ,
कुछ एहसान आने जाने होंगे |
दो कहानियों को मिलने के लिए ,
कुछ किस्से आने जाने होंगे |
दो तस्वीरों को मिलने के लिए ,
कुछ हिस्से आने जाने होंगे |
दो हाथों को मिलने के लिए ,
कुछ रिश्ते आने जाने होंगे |
दो इंसानों को मिलने के लिए ,
कुछ फ़रिश्ते आने जाने होंगे |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 17 जून 2011
काला बादल
और निकल आया हवा से लड़ता ,
बेलगाम वो काला बादल |
अपने भाई सफ़ेद बादल को ,
डरा धमका के किया बेदखल |
शोर मचाया , रौब दिखाया ,
बिजली फेंकी , अंधड़ चलाया |
बारिश को भी खूब चिढ़ाया ,
सुन सुन उसे भी रोना आया |
क्यों है ये यूँ गर्म तेल सा,
घराने कि काली भेड़ सा |
आसमान पे यूँ करता कब्ज़ा ,
मानो हो बरगद के पेड़ सा |
आना जाने कि इसकी मनमानी है ,
खुराक बस हवा पानी है |
कब बरसे कहर बने ,कब करे बस मज़ाक ,
ये कब किसने जानी है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बेलगाम वो काला बादल |
अपने भाई सफ़ेद बादल को ,
डरा धमका के किया बेदखल |
शोर मचाया , रौब दिखाया ,
बिजली फेंकी , अंधड़ चलाया |
बारिश को भी खूब चिढ़ाया ,
सुन सुन उसे भी रोना आया |
क्यों है ये यूँ गर्म तेल सा,
घराने कि काली भेड़ सा |
आसमान पे यूँ करता कब्ज़ा ,
मानो हो बरगद के पेड़ सा |
आना जाने कि इसकी मनमानी है ,
खुराक बस हवा पानी है |
कब बरसे कहर बने ,कब करे बस मज़ाक ,
ये कब किसने जानी है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 4 जून 2011
कभी मन
कभी मन रहता है ऊन जैसा ,
जिसके रेशे उलझे रहते हैं |
कभी मन रहता है मकड़ी के जाले सा ,
ख़याल जैसे फंसते रहते हैं |
कभी मन रहता है सूखते तालाब सा ,
जिसमें थोड़े ही प्राण रहते हैं |
कभी मन रहता है गर्मी की फसल सा ,
जिसमें थोड़े ही धान रहते हैं |
कभी मन रहता है अँधेरी चौखट सा ,
एक दिए की आस रहती है |
कभी मन रहता है थके मुसाफिर सा ,
अपने सफ़र की प्यास रहती है |
अक्षत डबराल
जिसके रेशे उलझे रहते हैं |
कभी मन रहता है मकड़ी के जाले सा ,
ख़याल जैसे फंसते रहते हैं |
कभी मन रहता है सूखते तालाब सा ,
जिसमें थोड़े ही प्राण रहते हैं |
कभी मन रहता है गर्मी की फसल सा ,
जिसमें थोड़े ही धान रहते हैं |
कभी मन रहता है अँधेरी चौखट सा ,
एक दिए की आस रहती है |
कभी मन रहता है थके मुसाफिर सा ,
अपने सफ़र की प्यास रहती है |
अक्षत डबराल
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