सुबह का जागा , दिन भर भागा |
शाम को लौटे ,
आधा सोया , आधा जागा |
दुनिया कि सतन , दिन भर कि थकन |
इन आँखों में , इन बाहों में |
कुछ ख्वाहिशें , कुछ सपने |
कुछ आँहों में ,कुछ राहों में |
आसां नहीं , आसां नहीं ,
सुनता हूँ दबी आवाज़ों में |
पर अनसुना कर चल देता हूँ ,
अपने ही अंदाज़ों में |
आखिर किसी को मंजिल मिली ,
कभी अपने ही दरवाजों में ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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