दरवाज़े से बाहर देखा , दिन खुद को समेट रहा था |
अपनी बिछाई चादर को , मायूस सा लपेट रहा था |
शाम खड़ी थी पेड़ के पीछे ,दिन को चुपचाप देख रही थी |
धीरे धीरे बढ़ाती हाथ पाँव ,बिना आवाज़ टेक रही थी |
कुछ देर में दिन उठा , अपना सामान ले चला गया |
शाम पसर गयी बेख़ौफ़ , जैसे उसका सिक्का जम गया |
शाम ने बहुत मौज करी ,लायी शमा , परवाने ,जुगनूओं कि फौज भरी |
पर हमेशा दुनिया में ,कहो कब किसीकी चली |
बस थोड़ी ही देर में , रात हुई आ खड़ी |
शाम के रुखसत होने कि , अब आ गयी थी घडी |
रात तो फिर रात है , उसकी जुदा ही बात है |
इत्र इसका रात रानी , आइना खुद चांद है |
रात ने भी रात भर , जी भर नूर बरसाया |
पर चाहकर भी वह उसे , अमर नहीं कर पाया |
रात कि तब , फिर ख़तम हुई बात |
दिन उग आया शर्माते हुए , और सो गयी रात |
ऐसे ही चक्र में , ये जहां चलता है |
रात - शाम सोती जगती हैं , दिन चढ़ता ढलता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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