मेरा बिस्तर ढूंढ रहा है अपना हमसफ़र ,
बहुत दिखता है ये बेसबर |
सलवटें पड़ गयीं इसपर ,
जब ये मुस्कुराया मुझे देखकर |
सुबह होते ही इससे मेरा ,
साथ छूट जाता है |
दिनभर पाबस्त खड़ा अकेला ये ,
तन्हाई से झूझ जाता है |
पर शायद अकेले ये ,
सपने लिखता रहता है |
और अपने दोस्त तकिये के ,
कानों में कहता रहता है |
बिछी हुई चादर से इसका ,
अब पुराना याराना है |
दो जिस्म एक जान हुए हैं ,
जब तक साथ है , निभाना है |
मेरा तो सपनो का जरिया है ,
आराम भरा एक दरिया है |
सिर्फ इसने ही नहीं किया इंतज़ार मेरा ,
मैंने भी दिनभर इसका किया है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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