कबसे अपना कंठ दबाये ,
मैं अपना गुस्सा छुपाये ,
बैठा हूँ दुबक कर , डर कर |
सतन कि जब अति हो गयी ,
बेकाबू जब मति हो गयी ,
अब उठ चला हूँ ,
साहस कर , समभल कर |
मुझे किसी एक से बैर नहीं ,
न जग से मेरी लड़ाई है |
मेरे ही मन का है अंतर्द्वंद्व ,
जिसने ये आग लगाई है |
भीतर ही भीतर जलता हूँ ,
अनजान डगर पर चलता हूँ |
मन हुआ है विद्रोही आजकल ,
देख कर अनदेखा करता हूँ |
पर जल्दी कुछ करना होगा ,
इसपर काबू करना होगा |
सीधे हो जाए तो अच्छा है ,
वरना कोई जादू करना होगा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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