आज नींद न आई
मुझे अपने वक़्त से |
ख्वाब भी न मिले मुझे ,
आज अपने तखत से |
कुछ देर बात करी ,
बाहर खड़े दरख़्त से |
लेकिन वो भी मेरी ,
आँखों कि तरह सख्त थे |
थोड़े लम्हे भी थे पड़े ,
जों यादों में ज़ब्त थे |
कुछ बोझिल हुए उम्र से ,
कुछ जोशीले मदमस्त थे |
सब यादों को खरोंच कर ,
आँखों से सुन , सोच कर |
ले चलता हूँ इनको सुलाने ,
पस्त हुए हैं अब ये थककर |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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