सोमवार, 30 मई 2011

फिर मुझे एक सुबह देखनी है |

मैं सुबहों को बहुत चाहता हूँ ,
नया जीवन होता है उनमें |
सूरज को चढ़ने कि ज़ल्दी ,
चिड़ियों को उड़ने कि ज़ल्दी |
बाहर पड़ी ओस को घुलने कि ,
फूलों को खुलने कि ज़ल्दी |

पेड़ कुछ अलसाए से रहते हैं ,
ताने सुस्त से , पत्ते हकबकाए से रहते हैं |
और घास जैसे पुरानी सहेली हो ,
ऐसे खुश होती जैसे मैं उत्तर , और वो पहेली हो |

कुछ बेलें छूट जाती हैं कैद से ,
रंगीन हो जाती सफ़ेद से |
कभी हाथ बड़ा रोकना चाहतीं ,
कभी सिकुड़ जाती दूर से ही देख के |

घरों कि छतें कैसे चिढती हैं,
धूप से दिनभर पीठ सेकनी हैं |
अब सोता हूँ , कल उठना है ,
फिर मुझे एक सुबह देखनी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

1 टिप्पणी:

  1. मैं सुबहों को बहुत चाहता हूँ ,
    नया जीवन होता है उनमें |
    सूरज को चढ़ने कि ज़ल्दी ,
    चिड़ियों को उड़ने कि ज़ल्दी |
    बाहर पड़ी ओस को घुलने कि ,
    फूलों को खुलने कि ज़ल्दी |
    prakriti saundary ka anupam chitran

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