रविवार, 10 अक्टूबर 2010

रात ...

नींद की धुंध छा रही है ,
पल पल गहराती जा रही है |
ख़्वाबों की बूँदें भी कुछ ,
आँखों में फिसलती जा रही हैं |

तारों का शामियाना सजा है ,
चाँद राजा बना लगता है |
चांदनी नाच रही है बेबाक ,
शाही दरबार बना लगता है |

कुछ सुरीली सी आवाज़ें ,
छू छू कर जा रही हैं |
ये गजल है या नज़्म कोई ,
ये रात क्या गा रही है ?

मदहोशी होने को बेताब है,
इसका मर्ज़ लाइलाज है |
पाक नशे का बाकी रहा ,
पिछला बहुत हिसाब है |

बहुत देर से हूँ हैरत में ,
हूँ ख्वाब में , या होश में |
कितनी तो बातें कह गयी ,
रात , होकर खामोशी में |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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