बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

रात...

कुछ अजीब चीज़ मुझे खींचती है ,
और मैं लिखने लगता हूँ |
धुंआ छंटता है सोच का ,
और मैं देखने लगता हूँ |

कुछ शब्द सुनाई देते हैं ,
एक दूसरे से सटे हुए |
खुले आसमां में तारे ,
चाँद से लगे , हटे हुए |

एक भीनी खुशबू का झोंका ,
परदे हिला के चला जाता है |
जुगनू आता है चोरी से ,
रात का दिया जला जाता है |

सन्नाटा आता रहता है बीच में ,
उससे पुरानी दोस्ती है |
बाहर सुनता हूँ मैं कैसे ,
ओस रात को कोसती है |

सपने कुछ कहना चाहते हैं ,
सही समय को रुके हैं |
दिनभर के थके नैन ,
अब बोझल हो झुके हैं |

अपनी कलम ले बैठता हूँ ,
और आधी रात बीत जाती है |
आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
और जीत जाती है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

6 टिप्‍पणियां:

  1. जुगनू आता है चोरी से ,
    रात का दिया जला जाता है |

    आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
    और जीत जाती है |

    SUNDAR SHABD SANYOJAN..BHAVO KO GAHRAI DE JAATE HAI.

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  2. अपनी कलम ले बैठता हूँ ,
    और आधी रात बीत जाती है |
    आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
    और जीत जाती है |

    wah .... bahut khoob ....

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  3. खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई एक सुंदर भावप्रवण रचना. आभार.
    सादर
    डोरोथी.

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