कुछ अजीब चीज़ मुझे खींचती है ,
और मैं लिखने लगता हूँ |
धुंआ छंटता है सोच का ,
और मैं देखने लगता हूँ |
कुछ शब्द सुनाई देते हैं ,
एक दूसरे से सटे हुए |
खुले आसमां में तारे ,
चाँद से लगे , हटे हुए |
एक भीनी खुशबू का झोंका ,
परदे हिला के चला जाता है |
जुगनू आता है चोरी से ,
रात का दिया जला जाता है |
सन्नाटा आता रहता है बीच में ,
उससे पुरानी दोस्ती है |
बाहर सुनता हूँ मैं कैसे ,
ओस रात को कोसती है |
सपने कुछ कहना चाहते हैं ,
सही समय को रुके हैं |
दिनभर के थके नैन ,
अब बोझल हो झुके हैं |
अपनी कलम ले बैठता हूँ ,
और आधी रात बीत जाती है |
आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
और जीत जाती है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वाह!! खूब भाव उकेरे हैं.
जवाब देंहटाएंजुगनू आता है चोरी से ,
जवाब देंहटाएंरात का दिया जला जाता है |
आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
और जीत जाती है |
SUNDAR SHABD SANYOJAN..BHAVO KO GAHRAI DE JAATE HAI.
अपनी कलम ले बैठता हूँ ,
जवाब देंहटाएंऔर आधी रात बीत जाती है |
आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
और जीत जाती है |
wah .... bahut khoob ....
bahut dhanyavaad aap manya jano ka
जवाब देंहटाएंwaah!
जवाब देंहटाएंsundar abhivyakti!!!
खूबसूरत अहसासों को पिरोती हुई एक सुंदर भावप्रवण रचना. आभार.
जवाब देंहटाएंसादर
डोरोथी.