शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

ऐ ख़्वाबों के ...

ऐ ख़्वाबों की किताबों ,
क्या तुम्हारे किरदार रुखसत हो गए हैं ?
कुछ नयी कहानियां , किस्से सुना दो ,
या वो भी फुर्सत से सो गए हैं ?

ऐ ख़्वाबों के दरख्तों ,
तुम कब से सदमे में खड़े हो ?
कभी हवा के साथ झूमे ,
क्या कभी आंधी से लड़े हो ?

ऐ ख़्वाबों के परिंदों ,
तुम्हारे पर नहीं हैं क्या ?
कभी उड़ते नज़र नहीं आते ,
तुम्हारा कोई अम्बर नहीं है क्या ?

ऐ ख़्वाबों की परियों ,
तुम अब सुन्दर नहीं हो ?
तुम्हें देखने में मन नहीं रमता ,
कबसे तुम ऐसी हुई हो ?

ऐ ख़्वाबों के सफ़र ,
तुम अब बेजान लगते हो ?
सूखे ठूंठ ही नज़र आते हैं ,
कोई उजड़ा बगान लगते हो |

ऐ खाव्बों , पर तुम ऐसे तो न थे ?
जों दूजी डगर चल गए हो ?
थोड़ी उम्र क्या बड़ी मेरी ,
तुम अब बदल गए हो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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