मन उलझा है ,
कोने में लगे जालों सा |
समय न कटता है ,
दिन भी लगे सालों सा |
सब नीरस सा है ,
सूखे पेड़ कि छालों सा |
उत्साह साथ छोड़ गया ,
गिरते पकते हुए बालों सा |
आत्म विश्वास बिखरा हुआ है ,
लड़ाई में टूटी ढालों सा |
आज भले ही लगता हूँ ,
मैं बुरे हालों सा |
पर कल फिर उठूँगा ,
एक चुनौती , कई सवालों सा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 31 मार्च 2011
मंगलवार, 29 मार्च 2011
ऐसा हो ...
ओ , अपना मिलना हो तो ऐसा हो ,
दो बादलों के जैसा हो |
पिघल के हो जाएँ एक ,
सब कुछ एक जैसा हो |
... मिलना हो तो ऐसा हो |
ओ , अपना साथ हो तो ऐसा हो ,
चाँद चांदनी जैसा हो |
एक गर न हो यहाँ ,
दूजा फिर कैसा हो ?
... मिलना हो तो ऐसा हो |
ओ , अपना जीना हो तो ऐसा हो ,
एक मिसाल देने जैसा हो |
जी जाएँ कई कई ज़िन्दगी ,
एक एक पल कहानी जैसा हो |
... मिलना हो तो ऐसा हो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
दो बादलों के जैसा हो |
पिघल के हो जाएँ एक ,
सब कुछ एक जैसा हो |
... मिलना हो तो ऐसा हो |
ओ , अपना साथ हो तो ऐसा हो ,
चाँद चांदनी जैसा हो |
एक गर न हो यहाँ ,
दूजा फिर कैसा हो ?
... मिलना हो तो ऐसा हो |
ओ , अपना जीना हो तो ऐसा हो ,
एक मिसाल देने जैसा हो |
जी जाएँ कई कई ज़िन्दगी ,
एक एक पल कहानी जैसा हो |
... मिलना हो तो ऐसा हो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 26 मार्च 2011
घर ...
अक्सर याद आ जाता है घर ,
वो अपना पुराना बिस्तर |
वो सटीक तकिये की ऊँचाई ,
वो चौक का बनिया , वो हलवाई |
वो दूर से, रिश्तेदारों का आना ,
पानी की टंकी के पास, अपना पता बताना |
वो अपने कमरे के दरवाज़े की आवाज़ ,
वो जानपहचान कुछ आम , कुछ ख़ास |
वो अपनी घर की गली ,
थोड़ी कच्ची ,थोड़ी पथरीली |
वो अपने बगीचे की घास ,
आम की बौरों से आती भीनी मिठास |
और भी हैं बहुत एहसास ,
जो रह रह कर याद आते हैं |
पर जब भी माँ की याद आती है ,
तो नैन भीग जाते हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वो अपना पुराना बिस्तर |
वो सटीक तकिये की ऊँचाई ,
वो चौक का बनिया , वो हलवाई |
वो दूर से, रिश्तेदारों का आना ,
पानी की टंकी के पास, अपना पता बताना |
वो अपने कमरे के दरवाज़े की आवाज़ ,
वो जानपहचान कुछ आम , कुछ ख़ास |
वो अपनी घर की गली ,
थोड़ी कच्ची ,थोड़ी पथरीली |
वो अपने बगीचे की घास ,
आम की बौरों से आती भीनी मिठास |
और भी हैं बहुत एहसास ,
जो रह रह कर याद आते हैं |
पर जब भी माँ की याद आती है ,
तो नैन भीग जाते हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 25 मार्च 2011
मुस्कान , बिकती नहीं |
बहुत कमाया पैसा ,
बहुत चाहा ऐसा ,
पर इसकी दुकान दिखती नहीं |
मुस्कान , बिकती नहीं |
कुदरती होती है बचपन में ,
ज्यादा दिन टिकती नहीं |
इंसान लाख चाहता है खरीदना ,
मुस्कान , बिकती नहीं |
जिसकी चेहरे पर हो नफीस खिली ,
छिपाए ये छिपती नहीं |
फ़ौरन दिखती गर हो नकली ,
मुस्कान , बिकती नहीं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बहुत चाहा ऐसा ,
पर इसकी दुकान दिखती नहीं |
मुस्कान , बिकती नहीं |
कुदरती होती है बचपन में ,
ज्यादा दिन टिकती नहीं |
इंसान लाख चाहता है खरीदना ,
मुस्कान , बिकती नहीं |
जिसकी चेहरे पर हो नफीस खिली ,
छिपाए ये छिपती नहीं |
फ़ौरन दिखती गर हो नकली ,
मुस्कान , बिकती नहीं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 22 मार्च 2011
इन नैनो की बात करो ...
दो नैना हैं खुली किताब से ,
इन नैनो से बात करो ,
इन नैनो की बात करो |
झुकते , उठते ,कहते सुनते ,
यादों की सौगात भरो ,
इन नैनो की बात करो |
कितने भोले , कितने पाक हैं ये ,
नैनो से ही एहसास करो ,
इन नैनो की बात करो |
हर एक अदा एक नज़म है इनकी ,
इनपर भी शायरी गुलज़ार करो ,
इन नैनो की बात करो |
थके हुए हैं पलके उठाये ,
इनपर भी थोड़ा गौर करो ,
इन नैनो की बात करो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
इन नैनो से बात करो ,
इन नैनो की बात करो |
झुकते , उठते ,कहते सुनते ,
यादों की सौगात भरो ,
इन नैनो की बात करो |
कितने भोले , कितने पाक हैं ये ,
नैनो से ही एहसास करो ,
इन नैनो की बात करो |
हर एक अदा एक नज़म है इनकी ,
इनपर भी शायरी गुलज़ार करो ,
इन नैनो की बात करो |
थके हुए हैं पलके उठाये ,
इनपर भी थोड़ा गौर करो ,
इन नैनो की बात करो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मैं ... मेरे प्रयास
मैं चला हूँ लक्ष्य पाने को ,
सूर्य आप मुझपर दृष्टि रखना |
जों मुझे न मिले पथ आगे,
विवेक आप मार्ग सृष्टि करना |
अति हो जाए जों विपदा की आग ,
ध्येय आप वृष्टि करना |
असमंजस हो यदि मुझे ,
धर्म आप कोई युक्ति करना |
परीक्षा हो पराक्रम की ,
मनोबल आप शक्ति भरना |
अँधेरा हो अज्ञान का ,
ज्ञान आप तम हरना |
प्रयास हो जाए मेरे सार्थक ,
इश्वर आप कृपा करना |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सूर्य आप मुझपर दृष्टि रखना |
जों मुझे न मिले पथ आगे,
विवेक आप मार्ग सृष्टि करना |
अति हो जाए जों विपदा की आग ,
ध्येय आप वृष्टि करना |
असमंजस हो यदि मुझे ,
धर्म आप कोई युक्ति करना |
परीक्षा हो पराक्रम की ,
मनोबल आप शक्ति भरना |
अँधेरा हो अज्ञान का ,
ज्ञान आप तम हरना |
प्रयास हो जाए मेरे सार्थक ,
इश्वर आप कृपा करना |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 15 मार्च 2011
रोज़...
इन सूरज को ढकती इमारतों को देखता हूँ ,
रोज़ इनका कद बढ़ जाता है |
इन बदहवास सी भागती सड़कों को देखता हूँ ,
रोज़ इन पर कुछ लड़ जाता है |
इन घरों को जगते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कुछ न कुछ कम पड़ जाता है |
इन मंदिर मस्जिदों को थकते हुए देखता हूँ ,
रोज़ जहां फरियादें सर मढ़ जाता है |
इन दीवारों को घूरते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कहीं ध्यान गढ़ जाता है |
इन बुत से चेहरों को देखता हूँ ,
रोज़ कोई इनपे मुस्कान जड़ जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रोज़ इनका कद बढ़ जाता है |
इन बदहवास सी भागती सड़कों को देखता हूँ ,
रोज़ इन पर कुछ लड़ जाता है |
इन घरों को जगते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कुछ न कुछ कम पड़ जाता है |
इन मंदिर मस्जिदों को थकते हुए देखता हूँ ,
रोज़ जहां फरियादें सर मढ़ जाता है |
इन दीवारों को घूरते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कहीं ध्यान गढ़ जाता है |
इन बुत से चेहरों को देखता हूँ ,
रोज़ कोई इनपे मुस्कान जड़ जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 14 मार्च 2011
देखो, फिर आया बसंत है |
ठण्ड की हुई छुट्टी ,
सुबह शाम दिखती बची कुची |
ये मौसम सब को पसंद है ,
देखो , फिर आया बसंत है |
स्वेटर , मौजे बंद ट्रंक में ,
अगले साल निकलेंगे ठण्ड में |
अब कुछ दिन तो आनंद है ,
देखो, फिर आया बसंत है |
होली की भी धूम होगी ,
होना हल्ला गुल्ला , हुड़दंग है |
हर तरफ छाने रंग हैं ,
देखो, फिर आया बसंत है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुबह शाम दिखती बची कुची |
ये मौसम सब को पसंद है ,
देखो , फिर आया बसंत है |
स्वेटर , मौजे बंद ट्रंक में ,
अगले साल निकलेंगे ठण्ड में |
अब कुछ दिन तो आनंद है ,
देखो, फिर आया बसंत है |
होली की भी धूम होगी ,
होना हल्ला गुल्ला , हुड़दंग है |
हर तरफ छाने रंग हैं ,
देखो, फिर आया बसंत है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 13 मार्च 2011
कोई इधर आता नहीं |
मेरी आँखें , अब कमज़ोर हो चली हैं |
साफ़ नज़र आता नहीं |
मेरी जुबां , अब लड़खड़ाती है |
साफ़ बोला जाता नहीं |
मेरे आंसू , गालों पर छपे हैं |
कोई पोंछ जाता नहीं |
मेरी गली , अब सूनी हो चली है |
कोई इधर आता नहीं |
इस दर पर भी कभी रौनक थी |
कोई अब चेहचहाता नहीं |
कभी मनती थी यहाँ ईद - दिवाली |
कोई अब सजाता नहीं |
मुझे याद है वो पुरानी धुन |
कोई अब बजाता नहीं |
ये सूनापन, ये एकाकी |
कोई अब मिटाता नहीं |
मेरी गली , अब सूनी हो चली है |
कोई इधर आता नहीं |
कोई इधर आता नहीं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
साफ़ नज़र आता नहीं |
मेरी जुबां , अब लड़खड़ाती है |
साफ़ बोला जाता नहीं |
मेरे आंसू , गालों पर छपे हैं |
कोई पोंछ जाता नहीं |
मेरी गली , अब सूनी हो चली है |
कोई इधर आता नहीं |
इस दर पर भी कभी रौनक थी |
कोई अब चेहचहाता नहीं |
कभी मनती थी यहाँ ईद - दिवाली |
कोई अब सजाता नहीं |
मुझे याद है वो पुरानी धुन |
कोई अब बजाता नहीं |
ये सूनापन, ये एकाकी |
कोई अब मिटाता नहीं |
मेरी गली , अब सूनी हो चली है |
कोई इधर आता नहीं |
कोई इधर आता नहीं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 12 मार्च 2011
मन के ब्याहे हैं ..
मन के ब्याहे हैं ,
दूर चले आये हैं |
मंत्र फेरों के बिना ,
एक दूजे के साए हैं |
मन के ब्याहे हैं ...
न मेहँदी कि रस्म ,
न अगूंठी , न कसम |
न बाराती आये हैं ,
मन के ब्याहे हैं |
चुपचाप आये हैं ,
प्यार ही मिला दहेज़ ,
अपने साथ लाये हैं ,
मन के ब्याहे हैं ...
सात ज़न्मों का न पता ,
इनकी भी न है खता |
अभी ज़िन्दगी कहाँ जी पाए हैं ,
मन के ब्याहे हैं |
आँखों में ख्वाब लिए ,
वफ़ा का सुरूर पिए ,
बेखुद हो छाये हैं |
मन के ब्याहे हैं ...
चाँद तारों से परे ,
मीठी उम्मीद से भरी ,
अपनी हर बात लाये हैं |
मन के ब्याहे हैं |
चलना ही है आगे ,
नापनी ही है इनको |
इनकी जों भी राहें हैं ,
मन के ब्याहे हैं ...
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
दूर चले आये हैं |
मंत्र फेरों के बिना ,
एक दूजे के साए हैं |
मन के ब्याहे हैं ...
न मेहँदी कि रस्म ,
न अगूंठी , न कसम |
न बाराती आये हैं ,
मन के ब्याहे हैं |
चुपचाप आये हैं ,
प्यार ही मिला दहेज़ ,
अपने साथ लाये हैं ,
मन के ब्याहे हैं ...
सात ज़न्मों का न पता ,
इनकी भी न है खता |
अभी ज़िन्दगी कहाँ जी पाए हैं ,
मन के ब्याहे हैं |
आँखों में ख्वाब लिए ,
वफ़ा का सुरूर पिए ,
बेखुद हो छाये हैं |
मन के ब्याहे हैं ...
चाँद तारों से परे ,
मीठी उम्मीद से भरी ,
अपनी हर बात लाये हैं |
मन के ब्याहे हैं |
चलना ही है आगे ,
नापनी ही है इनको |
इनकी जों भी राहें हैं ,
मन के ब्याहे हैं ...
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मौन
दो पलों के बीच की दूरी भरता कौन ?
मौन |
बिन कहे भी बात करता कौन ?
मौन |
हर कोने में छुपा बैठा है कौन ?
मौन |
सब चले जाते हैं रह जाता है कौन ?
मौन |
बहुत होती है यारी दोस्ती आखिर भाता है कौन ?
मौन |
अकेले में रोते हैं तो साथ सिसकता है कौन ?
मौन |
आवाजें मिल जाती हैं आजकल कम दिखता है कौन ?
मौन |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मौन |
बिन कहे भी बात करता कौन ?
मौन |
हर कोने में छुपा बैठा है कौन ?
मौन |
सब चले जाते हैं रह जाता है कौन ?
मौन |
बहुत होती है यारी दोस्ती आखिर भाता है कौन ?
मौन |
अकेले में रोते हैं तो साथ सिसकता है कौन ?
मौन |
आवाजें मिल जाती हैं आजकल कम दिखता है कौन ?
मौन |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आवाज़ न दो
कभी भुला न पाऊं जो,
तुम आज वो अंदाज़ न दो |
इस रात की तन्हाई में ,
तुम आज मुझे आवाज़ न दो |
ज़ेहन में बजते रहें देर तक ,
तुम आज वो साज़ न दो |
भूले बिसरे मेरे गीतों को ,
तुम आज अपनी आवाज़ न दो |
कितनी हैं हमे बेकरारी ।
तुम आज इसका हिसाब न दो |
दिल में हैं जो आरज़ू,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो|
मेरे फ़िज़ूल की ख़्वाबों में ,
तुम आज अपना एहसास न दो |
सोने ही दो उन ख़्वाबों को ,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
तुम आज वो अंदाज़ न दो |
इस रात की तन्हाई में ,
तुम आज मुझे आवाज़ न दो |
ज़ेहन में बजते रहें देर तक ,
तुम आज वो साज़ न दो |
भूले बिसरे मेरे गीतों को ,
तुम आज अपनी आवाज़ न दो |
कितनी हैं हमे बेकरारी ।
तुम आज इसका हिसाब न दो |
दिल में हैं जो आरज़ू,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो|
मेरे फ़िज़ूल की ख़्वाबों में ,
तुम आज अपना एहसास न दो |
सोने ही दो उन ख़्वाबों को ,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 11 मार्च 2011
मेरी किस्मत
मेरी किस्मत में आराम नहीं |
क्यूंकि मैं यह खुद लिखता हूँ ,
मैं लकीरों का गुलाम नहीं |
मेरी किस्मत में वसीयत नहीं |
क्यूंकि जों बना हूँ , खुद बना हूँ ,
मांगने की अपनी तबियत नहीं |
मेरी किस्मत में रईसी नहीं |
क्यूंकि जैसी देखी है मैंने ,
ऐसी होने से, तो नहीं ही सही |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
क्यूंकि मैं यह खुद लिखता हूँ ,
मैं लकीरों का गुलाम नहीं |
मेरी किस्मत में वसीयत नहीं |
क्यूंकि जों बना हूँ , खुद बना हूँ ,
मांगने की अपनी तबियत नहीं |
मेरी किस्मत में रईसी नहीं |
क्यूंकि जैसी देखी है मैंने ,
ऐसी होने से, तो नहीं ही सही |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 10 मार्च 2011
दिन का हिसाब ...
रात को तनहा , जब लेटता हूँ
गुज़रे दिन के टुकड़े , आँखों में समेटता हूँ
तोलता हूँ , मैंने क्या खोया , क्या पाया ?
मैं क्या भूला , क्या साथ ले आया ?
लम्हे, कुछ देखने, कुछ फेंकने लायक
कुछ अनमने से , कुछ सहेजने लायक
इनको तोलते, हिसाब लगते जाने कब ,
मन की बहती भर जाती है
और डूबते सूरज की तरह धीरे धीरे ,
मेरी आँख लग जाती है
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुज़रे दिन के टुकड़े , आँखों में समेटता हूँ
तोलता हूँ , मैंने क्या खोया , क्या पाया ?
मैं क्या भूला , क्या साथ ले आया ?
लम्हे, कुछ देखने, कुछ फेंकने लायक
कुछ अनमने से , कुछ सहेजने लायक
इनको तोलते, हिसाब लगते जाने कब ,
मन की बहती भर जाती है
और डूबते सूरज की तरह धीरे धीरे ,
मेरी आँख लग जाती है
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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