शनिवार, 12 मार्च 2011

आवाज़ न दो

कभी भुला न पाऊं जो,
तुम आज वो अंदाज़ न दो |
इस रात की तन्हाई में ,
तुम आज मुझे आवाज़ न दो |

ज़ेहन में बजते रहें देर तक ,
तुम आज वो साज़ न दो |
भूले बिसरे मेरे गीतों को ,
तुम आज अपनी आवाज़ न दो |

कितनी हैं हमे बेकरारी ।
तुम आज इसका हिसाब न दो |
दिल में हैं जो आरज़ू,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो|

मेरे फ़िज़ूल की ख़्वाबों में ,
तुम आज अपना एहसास न दो |
सोने ही दो उन ख़्वाबों को ,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपके लाजवाब जुमलों की तारीफ़ में कुछ कहने की ध्रष्टता कर रहा हूँ
    कैसे न सराहें इन लफ़्ज़ों को,
    कैसे इन्हें हम दाद न दें |
    शायर के नायब नगीनों को,
    किस तरह अपनी आवाज़ ने दें||

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  2. एक शायर दूसरे से और क्या कहता ?
    लिखते रहिये, तो जहाँ याद रखता |
    आपने पढ़ा , शुक्रिया ,
    वरना लिख कर यहीं पड़ा रहता |

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