बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

रात...

कुछ अजीब चीज़ मुझे खींचती है ,
और मैं लिखने लगता हूँ |
धुंआ छंटता है सोच का ,
और मैं देखने लगता हूँ |

कुछ शब्द सुनाई देते हैं ,
एक दूसरे से सटे हुए |
खुले आसमां में तारे ,
चाँद से लगे , हटे हुए |

एक भीनी खुशबू का झोंका ,
परदे हिला के चला जाता है |
जुगनू आता है चोरी से ,
रात का दिया जला जाता है |

सन्नाटा आता रहता है बीच में ,
उससे पुरानी दोस्ती है |
बाहर सुनता हूँ मैं कैसे ,
ओस रात को कोसती है |

सपने कुछ कहना चाहते हैं ,
सही समय को रुके हैं |
दिनभर के थके नैन ,
अब बोझल हो झुके हैं |

अपनी कलम ले बैठता हूँ ,
और आधी रात बीत जाती है |
आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
और जीत जाती है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

कोई...

कोई दिखता है , रोज़ सपनो में |
पर भोर तक चाँद के साथ ,
वो चला जाता है |

कभी चेहरा नहीं देखा उसका |
पर अपनी आवाज़ ज़रूर ,
वो सुना जाता है |

उसके ज़ेवर भी हैं कुछ ,
जों जुगनुयों से जलते - बजते हैं |
उन्हें इतराकर हिला जाता है |

उसके आने की आहट नहीं होती |
जाने पर किवाड़ न लड़ता |
कैसे उन्हें मिला जाता है ?

उसने नाम नहीं बताया कभी |
पर मुझसे करीबी का एहसास ,
हमेशा मुझे दिला जाता है |

अधसोई आँखों से ढूंढता हूँ रातों में |
वो जाने क्या मिलाकर नींद में ,
रोज़ मुझे पिला जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

बैठ जाता हूँ ...

रोज़ शाम हो तेरी खुशबू ,
पहचानने बैठ जाता हूँ |
रेत रेत कर तेरे ख्वाब,
मैं छानने बैठ जाता हूँ |

पहलूँ में ले तुझे तेरे,
हाथ थामने बैठ जाता हूँ |
जला जलाकर तुझे ऐ शमा ,
मैं बुझाने बैठ जाता हूँ |

कुछ सवाल कर तुझसे ,
जवाब जानने बैठ जाता हूँ |
तुझे बना के एक आइना ,
मैं सामने बैठ जाता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

ऐ ख़्वाबों के ...

ऐ ख़्वाबों की किताबों ,
क्या तुम्हारे किरदार रुखसत हो गए हैं ?
कुछ नयी कहानियां , किस्से सुना दो ,
या वो भी फुर्सत से सो गए हैं ?

ऐ ख़्वाबों के दरख्तों ,
तुम कब से सदमे में खड़े हो ?
कभी हवा के साथ झूमे ,
क्या कभी आंधी से लड़े हो ?

ऐ ख़्वाबों के परिंदों ,
तुम्हारे पर नहीं हैं क्या ?
कभी उड़ते नज़र नहीं आते ,
तुम्हारा कोई अम्बर नहीं है क्या ?

ऐ ख़्वाबों की परियों ,
तुम अब सुन्दर नहीं हो ?
तुम्हें देखने में मन नहीं रमता ,
कबसे तुम ऐसी हुई हो ?

ऐ ख़्वाबों के सफ़र ,
तुम अब बेजान लगते हो ?
सूखे ठूंठ ही नज़र आते हैं ,
कोई उजड़ा बगान लगते हो |

ऐ खाव्बों , पर तुम ऐसे तो न थे ?
जों दूजी डगर चल गए हो ?
थोड़ी उम्र क्या बड़ी मेरी ,
तुम अब बदल गए हो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

vengeance !

Its vengeance, Its vengeance,
Its vengeance, all the way.

Been running from myself,
I see nothing helps.
am fearing the shadows,
am dreading the hallows.
Swimming against flows,
Waters deep and shallow.

For I am the beast,
and I am the prey.
Know you wont like it,
Still I have to say.

Its vengeance, Its vengeance,
Its vengeance, all the way.

Faces i see, places i be,
they totally hate me.
Stares me in the eye,
everyone passing by.
They are all same.
but have different names.

Killing me so slow,
this venom you know.
I feel the pain every second,
every minute, every day.

Cos Its vengeance , its vengeance ,
Its vengeance all the way.

-Akshat Dabral

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

कब ? किससे ? कैसे ?

किसकी सुनूँ , दिल की या दिमाग की ?
किससे कहूँ , किसने मतलब की बात की ?
कैसे कहूँ , की सपने कोरे कागज़ थे ?
कैसे कहूँ , की जीवन मुश्किल किताब थी ?

कब जियूं , जीने की कहाँ मोहलत थी ?
कैसे जियूं , रब ने कब रहमत दी ?
कैसे कहूँ , दुनिया कब सहमत थी ?
कैसे सहूँ , चमकी कब किस्मत थी ?

किसको ढुंढूँ , कौन मेरा अपना था ?
कैसे ढूंढूं , जब टूटा मेरा सपना था ?
किसको पूछूँ , अपने घर का रस्ता ?
कैसे पूछूँ , मैं महंगा या सस्ता ?

कैसे सुनूँ , वो चुभते सवाल ?
कैसे चुनूँ , दम तोड़ते ख्याल ?
कैसे कहूँ , की बस यही कहना है ?
कैसे सहूँ , अभी जिंदा रहना है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

पुरानी अल्बम...

कल परसों में अपनी पुरानी रैक टटोल रहा था तो मुझे वहां एक पुरानी एल्बम दिखी |
वो बहुत पुरानी एल्बम थी , जिससे खुद ही नहीं , बल्कि चित्रों में अंकित चेहरों से भी एक परत उतर चुकी थी |
उसको देख कुछ लिखने का मन किया , मन किया की उन भावनाओं को शब्दों में ले आऊँ, किन्तु मात्र प्रयास ही कर पाया , शेष निम्न है |

मैं, मैं तुम्हारा अतीत हूँ ,
सुनकर भुलाया संगीत हूँ |
सुख - दुःख की संगम हूँ ,
एक पुरानी अल्बम हूँ |

कैसे तुमने कैद किये थे ,
मुझमें वो अपने पल विपल |
तुम बहुत आगे आ गए,
और मैं हूँ एक बीता कल |

मुझमें कुछ चेहरे , कुछ रिश्ते ,
सहमे से खड़े हैं |
तुम्हारी आस में उनके नैन ,
मूर्त में पत्थर से जड़े हैं |

मेरी तरह रिश्ते भी ,
सील गए हैं शायद |
या फासलों में बढ़ कई ,
मील गए हैं शायद |

कहीं ख़ुशी के पल भी हैं ,
जहाँ तुम हंस रहे हो |
बहुत दिनों बाद देखा तुम्हें हँसता ,
लगा, कभी तो तुम खुश रहे हो |

कुछ होली के रंगीन चेहरे ,
जिनका रंग अब उड़ चुका है |
कुछ पुरानी पहचाने ,
जिनसे रास्ता मुड चुका है |

कभी दिवाली की रौनक ,
अब कहाँ ऐसी होती है |
तब ख़ुशी होती थी असीम ,
अब किराए पर होती है |

कहीं कुछ पुरानी चीज़ें ,
जिनपर तुम्हे नाज़ था |
सब कैद हैं यहाँ एक युग में ,
कभी, उनका क्या अंदाज़ था !

मुझे खोला , तो मैं बोल पड़ी ,
वरना मैं चुप हरदम हूँ |
ये तुम्हारा अतीत बोलता है ,
मैं तो बस एक अल्बम हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

I.Youth

I need no love,

I need no care.

Come what may,

In the eyes I’ll stare.


Stronger than wind,

Louder than thunder.

I am a born soldier,

I’ll die fighting,

Rather than surrender.


I think big, not common,

Have vision, beyond horizon.

Small worries don’t bother me,

Nor do the petty achievements.


To some of you,

I might be rogue.

And to some others,

Totally out of vogue.


So, so be it,

If so it is.

I’ve been like this,

Since old ages.


I won’t change O world,

So it suits you.

I’ve been a stubborn boy,

All the way through.


It is the right way,

If it is my way.

I wish to change day to night,

And night to sunny day.


All I need is a chance,

To prove my mettle.

Be it the silent wars,

Or the fierce battles.


It’s not me, but the youth,

Who writes.

For it’s not me, but the youth,

Who fights.


Akshat Dabral

"निःशब्द"

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

रात ...

नींद की धुंध छा रही है ,
पल पल गहराती जा रही है |
ख़्वाबों की बूँदें भी कुछ ,
आँखों में फिसलती जा रही हैं |

तारों का शामियाना सजा है ,
चाँद राजा बना लगता है |
चांदनी नाच रही है बेबाक ,
शाही दरबार बना लगता है |

कुछ सुरीली सी आवाज़ें ,
छू छू कर जा रही हैं |
ये गजल है या नज़्म कोई ,
ये रात क्या गा रही है ?

मदहोशी होने को बेताब है,
इसका मर्ज़ लाइलाज है |
पाक नशे का बाकी रहा ,
पिछला बहुत हिसाब है |

बहुत देर से हूँ हैरत में ,
हूँ ख्वाब में , या होश में |
कितनी तो बातें कह गयी ,
रात , होकर खामोशी में |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

हम तुम ...

आजा रात की बाहों में झूलें ,
आजा चाँद से किस्से पूछें |
बात बात में पहेलियाँ बनाकर ,
आजा उन पहेलियों को बूझें |

कुछ तुम कह दो मुझसे ,
कुछ मैं कह दूँ तुमसे|
चलते चलते , कहते सुनते ,
एक ग़ज़ल बन जाए हमसे |

आजा सपनो की पतंग उड़ायें ,
आँखों आँखों में पेंच लड़ाएं |
झूमती रहे पतंग हमारी ,
कभी डोर न टूटने पाए |

आजा हाथों में हाथ लेकर ,
तेरा खुबसूरत साथ लेकर |
हम मीलों चलते जाएँ ,
वफ़ा के ज़ज्बात लेकर |

आज हम ये दुआ करें ,
हमेशा यूँही पास हुआ करें |
एक दूजे के नाम की ,
हमारी साँसें हुआ करें |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

i want to live those days again.

For when i knew no loss no gain,
i want to live those days again.

For when i never cursed the rain,
i want to live those days again.

For when i never felt what is pain,
i want to live those days again.

For when there was nothing to refrain,
i want to live those days again.

For when i never cared of clothes' stain,
i want to live those days again.

For when i was so easy to entertain,
i want to live those days again.

For when i did'nt knew what to attain,
i want to live those days again.

For when life was simple and plain,
i want to live those days again.

For when i did'nt send God complaints,
i want to live those days again.