आज मन व्याकुल बड़ा हो रहा |
भविष्य सोच कर परेशान बड़ा हो रहा |
सोचता है , अभी तक सिर्फ़ इतना ही ज़ोर लगा पाया हूँ |
की अपनी नाव नदी के छोर लगा पाया हूँ |
दूर मंजिल हो तो , राह नही आसान कभी |
लहरें होंगी बड़ी बड़ी , बिजली और तूफ़ान भी |
कल तक इन बातों से , भय नही लग रहा था |
आज लगता जो असम्भव , कल सम्भव लग रहा था |
पार करने की सोचता हूँ सागर को ,
अभी छोटे भंवर ही सह पाया हूँ |
कितना कमज़ोर महसूस कर रहा हूँ ,
कहाँ किसीसे कह पाया हूँ |
धीरे धीरे मेरा मनोबल रहा तोड़ है |
और दिनों जैसा नही , आज दिन कुछ और है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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