सुबह से ही , प्रतीक्षा होती , एक सिन्दूरी शाम की |
फीकी सी ही बीत जाए , वह शाम किस काम की |
नशा होता जिसमें गहरा , वाह - वाह होती उस जाम की|
जो चढा सुरूर उतारे , वह सुरा किस काम की |
जहाँ देवता न बसते , कौन सुध लेता उस धाम की |
जिससे दर्द कम न होता , वो दवा किस काम की |
जिसे कोई न पहचाने , क्या बात हो उस नाम की |
जिससे कुछ खरीद न पाये , वो मुद्रा किस काम की |
रंग न हो जिसमें भरा , वो स्मृति किस काम की |
मन पुलकित न हो जिसे पढ़कर , ऐसी कृति किस काम की |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
Awesome dude
जवाब देंहटाएं"फीकी सी ही बीत जाए , वह शाम किस काम की |"
जवाब देंहटाएंबहुत बढिया !
भाई साहब, इसीलिये मैं पहले से स्टॉक जमा करके रखता हूँ !