बस बहुत हुआ , अब और कितने दंश सहूँ ?
मांग चुका सौ बार फलक को |
अब और कितनी बार कहूँ ?
चला था छूने आसमान को ,
चलना शुरू नही कर पाया हूँ |
चाहता था सोना बनना , पर सांचे में ,
ढलना शुरू नही कर पाया हूँ |
अपने इस स्वप्न पर ,
और कितने निबंध लिखूँ ?
माना स्वर्णिम है वहां तक जाना , पर उस जगह पर ,
और कितने छंद लिखूँ ?
कमी मेरी कोशिश में ही है ,
दोष कब तक भाग्य पर मदुं ?
नतीजा वैसा ही होगा ,
जैसे इस लडाई को लडूं |
कुछ करना ही होगा मुझे ,
कब तक यूँ कमज़ोर रहूँ ?
खुद से वादा करना होगा ,
तुमसे कितनी बार कहूँ ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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