अब न लिखूंगा यह बात मैं ,
हर रोज़ सोचता हूँ |
पर मन नही मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |
हर कृति के साथ ,
अन्दर का कवि सो जाता है |
जग जाता है पर ख़ुद ही ,
ऐसा कुछ हो जाता है |
जो कुछ होता जीवन में ,
वे दृश्य बन जुड़ जाते हैं |
फ़िर कविता बन मुझसे ,
उमड़ उमड़ आते हैं |
कलम उठाने से खुदको ,
मैं बहुत रोकता हूँ |
पर मन नहीं मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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