यह मेरे आज २४ - ०५ -२००९ के माता सुरकंडा की यात्रा के अनुभवों पर आधारित है |
आज सुबह ही से , जाने कितने संयोग हुए ?
हैरान हूँ मैं , इस दिन में ,
जाने क्या क्या पाया ?
एक ही दिन में , कितनो से मिल आया !
एक एक करके आपने ,
कितने आश्चर्य आज दिए ?
विस्मित होकर मैंने वह ,
बढ़ा कर अपने हाथ लिए |
वो हमेशा आप थीं माँ ,
जो इतना सब हो सका |
मैंने बस उतना किया ,
जितना मुझसे हो सका |
अब समझ गया हूँ सब कुछ ,
और बस यही प्रार्थना करता हूँ |
मुझ पर दृष्टि बनाए रखना ,
मैं फ़िर आने का प्रयत्न करता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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