जितनी भी तैयारी हो इंसां की ,
कल की चिंता बनी रहती है |
धीमी सी आंच उसके ,
सीने में जली रहती है |
आकांक्षाएं इस आग में ,
घी का काम करती हैं |
ऐसा डर है कल का ,
आशा भी आने से डरती है |
हमेशा से ही इंसा को ,
कल ने परेशान किया है |
व्याकुलता बढ़ा बढ़ा कर ,
छगन भग्न सब ध्यान किया है |
खूब कहा है किसीने ,
चिता समान है यह चिंता|
लाख भागो इससे ,
पर होनी ही है , होती ही है |
ऐसी चीज़ है कल की चिंता |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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