सुबह चला , शाम चला ,
कितने मील अविराम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |
आग बरसाते रेगिस्तान में ,
कब कहो आराम मिला ?
पर इस सफर से ही मुझको ,
एक नया आयाम मिला |
सहज मिल जाए जो ख़ुद को ,
उस चीज़ में क्या मज़ा हुआ ?
कोशिश कर , पाया जिसको ,
वही इनाम है सजा हुआ |
इसी धुन को रटते रहना ,
अब मेरा हो काम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
जो राह चुनी तूने ,उसी राह पे साथी चलते जाना रे ....
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