पहाड़ बीटी चल्युं थौ ब्याली ,
आज आग्येन बिजां अगाडी छ |
खूब करा बाबू उन्नति ,
पर यू न भूला , तू पहाडी छ |
हल्का हल्का सब दीदा ,
गौं खाली होणा छन |
छोड़ी छोड़ी के सब अपणु पुंगडा ,
परदेसी होणा छन |
बुढ - बुढिया रह जांदा वखी ,
कुढ़ता रहंदा बरखा , जाडों मा|
अपना छोरों की आस लगै के ,
सुदी तकता रहंदा डाँडो मा |
याद ज्यू आ जांदी कदी ,
तुवेसनि बड़ा रुलाणु छ |
बहुत कमाई रुपया - पीसा ,
चला अब घोर , त्यार कुटुंब बुलाणु छ |
कदी लगदु , यख रहना छन ,
त्यार मत मारी छ |
यू त्यार देश नि दीदा ,
तू तो पहाडी छ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
Very touching...it speaks volumes of the reality....at the same time...connects you to yer roots.....urges you yo keep connected to where you belong to....
जवाब देंहटाएंडबराल जी
जवाब देंहटाएंTouchy,
बहुत साल पहले जब मैं गाँव के स्कूल में पड़ता था दो जो कुछ उस मासूम बचपन ने देखा कविता में बयान किया था ! चार लाईने याद आ रही है, इसे किसी गलत अर्थ में मत लेना;
दिनभर हुक्का फुकुण,
काम कि दां कोणा लुकूण,
उलटू भांडू सुलटु नि के सकदु,
आर बात करदू खाड़ी की !
धत्त तेरे पाड़ी की !!
हां एक बात और,
जवाब देंहटाएंखाडी का जिक्र इस लिए कविता में किया था कि तब खाडी युद्घ (इरान और इराक़ के बीच ) सुरु हुआ था और लोग उसी की चर्चा करते रहते थे !