आज बहुत दिन बाद , अपने साए से मुलाकात हुई |
साथ बैठ , कुछ इधर - उधर की बात हुई |
फुर्सत नही है तुम्हे आजकल , वो बात बात में पूछ बैठा |
मैं कुछ और शब्द उठा कर , यह मुद्दा बदल बैठा |
थोडी देर में , वो अपने रास्ते चला गया |
मुझे एक सवाल , बूझने के वास्ते दे गया |
सच में , कितना ख़ुद में सिमटता जा रहा हूँ |
स्लेट पे लिखी लकीर सा मिटता जा रहा हूँ |
पहचान बनाने के लिए , कितना घिस - पिघल रहा हूँ |
अपने ही साये से , मुद्दतों में मिल रहा हूँ |
यह कोशिश मेरी , गर कामयाब हो जाए |
हासिल वह मुकाम हो जाए |
कि दुनिया कहे ,बन्दे से नही , न सही ,
उसके साए से ही मुलाक़ात हो जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
अच्छा लिखा है आपने और सत्य भी , शानदार लेखन के लिए धन्यवाद ।
जवाब देंहटाएंमयूर दुबे
अपनी अपनी डगर