बहुत कोशिश कर , दो चार शब्द जोड़ पाया |
ख़ुद को समेट कर , उससे वह बोल पाया |
कितनी बार कहा उससे , उसने कब सुनना चाहा ?
बहुत होंगे चाहने वाले , जिन्हें उसने अपनाना चाहा |
मेरे फिजूल ख्वाब तो देखो |
नही लिखी जो भाग्य में , उसी चीज़ को पाना चाहा |
सच ही पाया मैंने , क्यों मिले वो आख़िर मुझको ?
मुझमें ऐसा भी क्या है ?
मिलकर भी वह मिलती नही |
यह इनकार नही , तो फ़िर और क्या है ?
अब जान गया हूँ , कि मैं उसके लायक नही |
पर समझ न पाया , जो मुझमें नही , औरों में ऐसा भी क्या है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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