शनिवार, 11 अप्रैल 2009

वह रौशनी

कभी अचानक मैंने , देखी थी वह रौशनी |
कौन दिन था , कौन समय , यह मुझको ध्यान नही |

खुशी से भरी रहती थी, जीवन से हरी रहती थी|
कभी कभी मेरे , आस पास खड़ी रहती थी |

आज भले ही वह रौशनी मुझसे दूर है |
फ़िर भी उसका अहसास मुझे भरपूर है |

उसे पहचान न सका , मेरी भूल है |
पर अब पछताना फिजूल है |

कंही मिल जाए फिर से , तो देख लूँ जी भर के |
थोडी सी चुरा लूँगा , आँखों में बंद कर के |

मन खुशी से खिल जाए , एक बार जो दिख जाए |
अब जाने न दूँगा उसे , वह रौशनी जो मुझे मिल जाए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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