कभी अचानक मैंने , देखी थी वह रौशनी |
कौन दिन था , कौन समय , यह मुझको ध्यान नही |
खुशी से भरी रहती थी, जीवन से हरी रहती थी|
कभी कभी मेरे , आस पास खड़ी रहती थी |
आज भले ही वह रौशनी मुझसे दूर है |
फ़िर भी उसका अहसास मुझे भरपूर है |
उसे पहचान न सका , मेरी भूल है |
पर अब पछताना फिजूल है |
कंही मिल जाए फिर से , तो देख लूँ जी भर के |
थोडी सी चुरा लूँगा , आँखों में बंद कर के |
मन खुशी से खिल जाए , एक बार जो दिख जाए |
अब जाने न दूँगा उसे , वह रौशनी जो मुझे मिल जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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