हर दिन हर पल इसे , आस यही बस होती है ,
और मिले - और मिले , मानव कितना लोभी है !
धन दौलत के लिए इसने , पूरी ताकत झोंकी है |
ईर्ष्या और जलन का , यह बन रहा रोगी है |
हमेशा इसको थोड़ा लगता , इसकी झोली में जो भी है |
संतोष नहीं रहा जीवन में , बस लालसा होती है |
अंत समय तक लगता इसको , हाय किस्मत सोती है |
सब पाकर भी संतुष्ट नहीं , मानव कितना लोभी है !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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