मेरे हृदय में मित्रों ,
आ बसी एक मृगनयनी |
झलक दिखा एक, लुप्त हो जाती ,
अति चंचल वह मोहिनी |
अकस्मात् स्वप्न में उसे पा ,
विस्मित मैं हो जाता |
रातभर उसे ढूंढते हुए ,
जाने कहाँ कहाँ हो आता |
हाथ बदाऊ तो ,
उड़ जाती तितली बनकर|
ख़त लिखता हूँ उसे ,
पर भेजूं किस पते पर |
उसके नयनो ने मुझ पर ,
कुछ ऐसी माया डाली |
उसके ख्याल से ही ,
महक उठता मेरा ह्रदय खाली |
मन बहुत है, बनाऊ उसे अपनी संगिनी,
किंतु पहले चाहता हूँ ,
मुझे मृग बनाकर अपने पीछे ,
दौडाए वह मृगनयनी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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