दूसरो की आवाजों में , आज इतना ज़ोर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?
अन्दर का सन्नाटा , और भी गहरा रहा |
बढ़ता यह शोर , मुझे कर बहरा रहा |
छाँव ढूंढता घूम रहा , सूर्य आग बरसा रहा |
साया बचा है एक साथी , कुछ पूछा जा रहा |
पर क्या उत्तर दूँ , थोडी ही बची जान है |
अब क्या करूँ समेट उसे , जब पास न जुबान है |
राह चुनी जो मैंने , उसमें इतने मोड़ क्यों हैं ?
दौड़ चुनी जो मैंने , उसमें इतनी होड़ क्यों है ?
उदासी छाई है मुझमें , आया यह दौर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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