मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

वह मानव

सूरज उगता है , चलता है, अस्त हो जाता है |
मानव जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |

जो बचपन से ही परिश्रम में व्यस्त हो जाता है |
अडचनों, व्यवधानों का अभ्यस्त हो जाता है |

संसार के वैभवों से अनासक्त हो जाता है |
मार्ग उसका स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है |

प्रशंसक उसका समाज समस्त हो जाता है |
वह मानव जो जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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