हाथ पर हाथ धरे क्यूँ बैठा ,
ऐसा भी क्या हुआ है ?
जंग है यह एक ज़िन्दगी ,
न कि कोई जुआ है |
इंसान ने जो भी चाहा ,
क्या हमेशा वही हुआ है ?
भाग्य नही , कार्य प्रबल माना जिसने ,
उसीने आसमान छुआ है |
आँखे खोल , आगे तुझसे ,
सारा ज़माना हुआ है |
कर सकता है तू वह ,
जो तूने ठाना हुआ है |
अभी से क्यूँ थक गया तू ?
अभी खेल शुरू हुआ है |
तू ऊर्जा का ज्वालामुखी ,
जिसमे लावा भरा हुआ है |
टूट पड़ पूरे दम से उसपर ,
जिससे सामना हुआ है |
उतार ला तारे ज़मीन पर ,
अभी तू युवा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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