एक कोएला , पड़ा रहता , था खदान में |
क्या करेगा , क्या बनेगा ?
कुछ न था ध्यान में |
वर्षों से पड़ा रहा , काम कोई न उसने किया |
आस पास की कालिख को , अपने ऊपर जमने दिया |
एक दिन अचानक , उस खदान में , एक हीरा पाया गया |
इस कोएले को परे हटा , उस हीरे को उठाया गया |
इतने कुछ से कोएले को , लगी गहरी चोट है |
खोटा है वह , जाना उसने , और जाना कहाँ खोट है |
आज बना है जो हीरा , कल तक इसके जैसा ही था |
मन में था कुछ बनने का , बाहर बिल्कुल ऐसा ही था |
अब जुटा है , पूरे दम से , बनाने को पहचान में |
ताकि दुनिया कहे , बन ही गया हीरा आख़िर |
कभी कोएला था इस खदान में |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
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