गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

पहाड़ मुझे बुलाते हैं |

अक्सर मेरे बगल में आकर ,
धीरे से फुसफुसाते हैं |
नैन बिछाए बैठे रहते ,
वे पहाड़ मुझे बुलाते हैं |

जाता हूँ जो कभी तो ,
स्वागत में झुक - झुक जाते हैं |
वृक्ष झूमते खुशी - खुशी ,
झरने रुक - रुक जाते हैं |

ठंडे झोंके पवन के ,
अपनी - अपनी कहते हैं |
सुंदर दृश्य यहाँ - वहाँ ,
खुलकर बिखरे रहते हैं |

सुबह होती ज्यों ही ,
पक्षी जगा जाते हैं |
सूर्य देवता इनके शीश ,
स्वर्णिम मुकुट सजा जाते हैं |

मन वहाँ जाकर ,
होता कितना प्रसन्न है |
हर पत्ते पर ओस नही ,
मानो अपनापन है |

सदा मेरे सपनो में आकर ,
हौले से रुलाते हैं |
मन करता है , छोड़ सब भाग जाऊ वहाँ ,
जहाँ ये पहाड़ मुझे बुलाते हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

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