बुधवार, 29 अप्रैल 2009

तू पहाडी छ

पहाड़ बीटी चल्युं थौ ब्याली ,
आज आग्येन बिजां अगाडी छ |
खूब करा बाबू उन्नति ,
पर यू न भूला , तू पहाडी छ |

हल्का हल्का सब दीदा ,
गौं खाली होणा छन |
छोड़ी छोड़ी के सब अपणु पुंगडा ,
परदेसी होणा छन |

बुढ - बुढिया रह जांदा वखी ,
कुढ़ता रहंदा बरखा , जाडों मा|
अपना छोरों की आस लगै के ,
सुदी तकता रहंदा डाँडो मा |

याद ज्यू आ जांदी कदी ,
तुवेसनि बड़ा रुलाणु छ |
बहुत कमाई रुपया - पीसा ,
चला अब घोर , त्यार कुटुंब बुलाणु छ |

कदी लगदु , यख रहना छन ,
त्यार मत मारी छ |
यू त्यार देश नि दीदा ,
तू तो पहाडी छ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

3 टिप्‍पणियां:

  1. Very touching...it speaks volumes of the reality....at the same time...connects you to yer roots.....urges you yo keep connected to where you belong to....

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  2. डबराल जी
    Touchy,

    बहुत साल पहले जब मैं गाँव के स्कूल में पड़ता था दो जो कुछ उस मासूम बचपन ने देखा कविता में बयान किया था ! चार लाईने याद आ रही है, इसे किसी गलत अर्थ में मत लेना;

    दिनभर हुक्का फुकुण,
    काम कि दां कोणा लुकूण,
    उलटू भांडू सुलटु नि के सकदु,
    आर बात करदू खाड़ी की !
    धत्त तेरे पाड़ी की !!

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  3. हां एक बात और,
    खाडी का जिक्र इस लिए कविता में किया था कि तब खाडी युद्घ (इरान और इराक़ के बीच ) सुरु हुआ था और लोग उसी की चर्चा करते रहते थे !

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