गुरुवार, 14 मई 2009

बह चला |

इन हसीन नज़ारों से ,
करीब दोस्तों और यारों से ,
अलविदा कह चला |
आ गई है वह लहर ,
अब लो मैं बह चला |


मित्रों , तुम्हारा साथ सुंदर था |
वक्त कैसे कट गया ?
पता ही नही चला |
अपनी भूल चूक माफ़ कर चला ,
अब लो मैं बह चला |


जिसके लिए , मैं कबसे तैयार था |
हरदम , हरपल करता इंतज़ार था ,
गया वह ज्वार भाटा |
उसमें हाथ पाँव थोड़े चला ,
अब लो मैं बह चला |

मेरी याद जो कभी आये ,
बिछडी यादों के दीप बनाके ,
सीने में लेना जला |
मिल न सकूँगा ,याद करूँगा ,
अब तो मैं बह चला |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

2 टिप्‍पणियां:

  1. भाई साहब ,
    इतना भी मत बहो, अभी यहाँ आपकी बहुत जरुरत है, और हां आगे टेहरी डैम भी पड़ता है रस्ते में !

    वैसे लिखा आपने भावुक है !

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