बुधवार, 29 अप्रैल 2009

तू पहाडी छ

पहाड़ बीटी चल्युं थौ ब्याली ,
आज आग्येन बिजां अगाडी छ |
खूब करा बाबू उन्नति ,
पर यू न भूला , तू पहाडी छ |

हल्का हल्का सब दीदा ,
गौं खाली होणा छन |
छोड़ी छोड़ी के सब अपणु पुंगडा ,
परदेसी होणा छन |

बुढ - बुढिया रह जांदा वखी ,
कुढ़ता रहंदा बरखा , जाडों मा|
अपना छोरों की आस लगै के ,
सुदी तकता रहंदा डाँडो मा |

याद ज्यू आ जांदी कदी ,
तुवेसनि बड़ा रुलाणु छ |
बहुत कमाई रुपया - पीसा ,
चला अब घोर , त्यार कुटुंब बुलाणु छ |

कदी लगदु , यख रहना छन ,
त्यार मत मारी छ |
यू त्यार देश नि दीदा ,
तू तो पहाडी छ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

वो दिन

वो दिन , वो दिन भी क्या दिन थे !
पल - पल मस्ती भरे , चिंता के बिन थे |

समय कितना आराम से कटता था |
मन खुशी भरे गीत रटता था |

बहते रहते थे , जैसे कोई अल्हड़ नदी है |
अब लगता इन सबको हुए , बीत गई एक सदी है |

तब लगता था , बस सबसे ऊपर हम हैं |
अपने आगे सब गिनती में कम हैं |

तब हम ख्वाब लिखना , मिटाना जानते थे |
दोस्ती करना , निभाना जानते थे |

छोटी - छोटी बातों की खुशी मनाते थे |
थोड़े से पैसों से पूरा महीना चलाते थे |

याद आते हैं बहुत , पर अब हमसे छिन गए |
न आयेंगे , जितना बुलाओ , अब बीत वो दिन गए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 28 अप्रैल 2009

एक कोएला

एक कोएला , पड़ा रहता , था खदान में |
क्या करेगा , क्या बनेगा ?
कुछ न था ध्यान में |

वर्षों से पड़ा रहा , काम कोई न उसने किया |
आस पास की कालिख को , अपने ऊपर जमने दिया |

एक दिन अचानक , उस खदान में , एक हीरा पाया गया |
इस कोएले को परे हटा , उस हीरे को उठाया गया |

इतने कुछ से कोएले को , लगी गहरी चोट है |
खोटा है वह , जाना उसने , और जाना कहाँ खोट है |

आज बना है जो हीरा , कल तक इसके जैसा ही था |
मन में था कुछ बनने का , बाहर बिल्कुल ऐसा ही था |

अब जुटा है , पूरे दम से , बनाने को पहचान में |
ताकि दुनिया कहे , बन ही गया हीरा आख़िर |
कभी कोएला था इस खदान में |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

चक्रव्यूह नही रचा है |

जलता रह लौ बनकर तू ,
अभी तुझमें मोम बचा है |
मुश्किलें हैं यह छोटी - मोटी ,
कोई चक्रव्यूह नही रचा है |

ऊपर उठ इच्छाओं से ,
इनमें क्या कुछ कभी धरा है ?
विजय निश्चित है तेरी अब ,
जब तुझमें अदम्य साहस भरा है |

कितने - कितने तूफ़ान आए ,
तू अकेले सब सह गया |
अब क्यूँ घबराता है जब ,
लक्ष्य थोड़ा दूर रह गया |

खत्म ही होने को है युद्घ ,
तू अकेला ही बचा है |
जीत कर सब भेंट दे उनको ,
जिन्होंने तेरा रस्ता तका है |

विजयी हो , फिर नाम का तेरे ,
देख डंका बजा है |
मुश्किलें हैं यह छोटी - मोटी ,
कोई चक्रव्यूह नही रचा है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 27 अप्रैल 2009

सपने बेकार नही

सपने बेकार नही , बहुत काम की चीज़ हैं |
बनने जा रहे जीवन वृक्ष के , ये मूल बीज हैं |

ये केवल लक्ष्य न देते , देते हैं राह भी |
जीवन को मकसद मिलता , और हाँ उत्साह भी |

लड़ने को , आगे बढ़ने को , इनसे प्राप्त एक युद्ध होता |
उस युद्ध का नायक , स्वप्न देखने वाला ख़ुद होता |

आदि काल से ये मानव का , मनोबल बढ़ते आ रहे |
गाँव से नगर , नगर से सभ्यता बनाते आ रहे |

जो सपने न देखे कोई , यह मनुष्य व्यवहार नही |
पूरे चाहे हो या न हों , सपने बेकार नही |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मानव एक मच्छर है |

बचपन में यह दूध पीता ,
लहू पीता बड़े होकर है |
काट काट कर छलनी करता ,
यह मानव एक मच्छर है |

चतुर बहुत है , वार हमेशा ,
घात लगा कर करता है |
खुश हो , गाना गाता मंद मंद ,
आघात लगा कर हँसता है |

गन्दगी में ही रह रह कर ,
ये फल फूल रहा है |
लोक लाज , समाज को ,
सदा के लिए भूल रहा है |

इसका काटा तुंरत न दिखता ,
दिखता आगे चलकर है |
कभी अकेला , कभी झुंड में ,
यह मानव एक मच्छर है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

साए से मुलाकात

आज बहुत दिन बाद , अपने साए से मुलाकात हुई |
साथ बैठ , कुछ इधर - उधर की बात हुई |

फुर्सत नही है तुम्हे आजकल , वो बात बात में पूछ बैठा |
मैं कुछ और शब्द उठा कर , यह मुद्दा बदल बैठा |

थोडी देर में , वो अपने रास्ते चला गया |
मुझे एक सवाल , बूझने के वास्ते दे गया |

सच में , कितना ख़ुद में सिमटता जा रहा हूँ |
स्लेट पे लिखी लकीर सा मिटता जा रहा हूँ |

पहचान बनाने के लिए , कितना घिस - पिघल रहा हूँ |
अपने ही साये से , मुद्दतों में मिल रहा हूँ |

यह कोशिश मेरी , गर कामयाब हो जाए |
हासिल वह मुकाम हो जाए |
कि दुनिया कहे ,बन्दे से नही , न सही ,
उसके साए से ही मुलाक़ात हो जाए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

तुझमें कुछ बात है |

दिन - दिन आकर चले गए ,
चलीं गई कई रात हैं |
जैसा था तू , वैसा ही है ,
तुझमें कुछ बात है |

चलने से तेरे , समय रेत पर ,
बन गए पद छाप हैं |
हवाएं चलीं बहुत लेकिन ,
आज भी वह साफ़ हैं |

तू चलता ही रह ,
राह चाहे जैसी रहे |
कुछ कर गुजरने की लौ ,
बस तुझमें जलती रहे |

अब जो तेरे साथ ,
आज भाग्य नही |
कोई बात नही ,
ये वक्त वक्त की बात है |

ऐसा पहले भी ,
हुआ बहुत बार है |
तू कर सकता है , तू कर लेगा ,
तुझमें कुछ बात है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

ऐसा भी क्या है

बहुत कोशिश कर , दो चार शब्द जोड़ पाया |
ख़ुद को समेट कर , उससे वह बोल पाया |

कितनी बार कहा उससे , उसने कब सुनना चाहा ?
बहुत होंगे चाहने वाले , जिन्हें उसने अपनाना चाहा |

मेरे फिजूल ख्वाब तो देखो |
नही लिखी जो भाग्य में , उसी चीज़ को पाना चाहा |

सच ही पाया मैंने , क्यों मिले वो आख़िर मुझको ?
मुझमें ऐसा भी क्या है ?

मिलकर भी वह मिलती नही |
यह इनकार नही , तो फ़िर और क्या है ?

अब जान गया हूँ , कि मैं उसके लायक नही |
पर समझ न पाया , जो मुझमें नही , औरों में ऐसा भी क्या है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

क्यों न साँस लूँ ?

आज थोडी देर , बैठ क्यों न साँस लूँ |
स्वयं से ही सही , बाँध थोडी आस लूँ |

राह ये जो , क्रूर है , मुझे थकाती जा रही |
यहाँ वहाँ तन पर मेरे , घाव लगाती जा रही |

जब चला था , न पता था , जाना इतना दूर है |
रस्ता बचा है बहुत अभी , मन थककर चूर है |

बार - बार उठ रहे दर्द को , हर बार दबाया है |
तिल - तिल टूट रहे मन को , कई बार ढाढस बंधाया है |

पल - पल लगता , धीरे - धीरे , दूरी बढती जा रही |
छोटी सी ये नाव मेरी , तूफ़ान से लड़ती जा रही |

अकेले ही अब , आगे कितने कोस चलूँ ?
थक गया हूँ , थोडी देर , बैठ क्यों न साँस लूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 21 अप्रैल 2009

जीवन कितना कम है |

जी ले - जी ले जी भर के , अभी साँसों में दम है |
थोड़ा पड़ता है हमेशा , जीवन कितना कम है !

पानी का यह बुलबुला , कुछ समय में फूट जाता है |
आँख झपकती है और , संसार से नाता टूट जाता है |

बस एक स्वप्न प्रतीत होता है |
जो अभी है , पल भर में अतीत होता है |

ज़रा से सफर में , कभी खुशी , कभी गम है |
हर पड़ाव की अपनी अलग सरगम है |

अंत होता यह , जब साथ लेने आया यम् है |
सत्य है, जितना भी मिला , जीवन कितना कम है !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 20 अप्रैल 2009

हर कोई भाग रहा है

चैन नही एक भी पल , सोये में भी जाग रहा है |
आज वक्त से होड़ लगाए , हर कोई भाग रहा है |

आगे बढ़ाने को ख़ुद को , दूसरे का रास्ता काट रहा है |
अपने में ही सिमटा जा रहा , दूसरों से न वास्ता रहा है |

महत्वाकांक्षाएं इसकी जो भी हैं , वो हद से बढ़ी हैं |
सारी भावनाएं इसकी , इसी की भेंट चढ़ी हैं |

परिवार तो दूर ठहरा , ख़ुद के लिए भी अवकाश नही |
इस आपा - धापी में क्या खो रहा , इसका इसको एहसास नही |

प्राप्ति पर भी साँस न लेता , हाथ बढ़ा और मांग रहा है |
हलके भी चल सकता है , पर हर कोई भाग रहा है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 19 अप्रैल 2009

वो वहीँ खड़ा है

सालों से इस धरती पर , पर्वत बन कर जड़ा है |
युग - युग आ कर चले गए |
यह हिमालय जहाँ था , बस वो वहीँ खड़ा है |

नदियाँ , खनिज , बूटी सब देता , ह्रदय इसका विशाल बड़ा है |
सर्द हवाएं जो चुनौती देतीं , उनसे अकेला ही लड़ा है |

वर्षा हो हमारे घर में , इसलिए निर्भीक हो अड़ा है |
स्नेह , त्याग , बलिदान का , एक उदाहरण बड़ा है |

अभी तक बस लेते आए , कभी वापस कुछ करा है ?
नग्न होता जा रहा , संकट इस पर आ पड़ा है |

शांत दिखता जो बाहर , क्या पता अन्दर धधक रहा है ?
व्यथा कहता किस से अपनी , किसको इसका ध्यान पड़ा है ?

प्रलय आ सकती है धरा पर , गर यह बिफर पड़ा है |
हम बदल गए , यह न बदला |
यह हिमालय जहाँ था , बस वो वहीँ खड़ा है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 18 अप्रैल 2009

बस थोड़ा और |

बार बार कोशिश करता , लगता आखिरी बार है |
असफल होता पर लगता , लक्ष्य दूर बस ,थोड़ा और है |

आलोचक हुए हैं इतने ,कभी न किया गौर है |
हिम्मत न देते वो , कहते दूर बहुत वो ठौर है |

ख़ुद पर है यकीन , बाजुओं में ज़ोर है |
राह भले ही मुश्किल ,बादल छाये घनघोर हैं |

पर इन सबका कुछ मोल नही |
मुझे पता है , जाना किस ओर है |

कभी कदम डगमगा जाते हैं |
साहस देता ,शुभकामनाओं का शोर है |

ख़ुद को साबित करने की , भावना अब पुरजोर है |
पहुँच जाऊँगा आख़िर , लक्ष्य दूर बस , थोड़ा और है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009

इतना शोर क्यों है

दूसरो की आवाजों में , आज इतना ज़ोर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?

अन्दर का सन्नाटा , और भी गहरा रहा |
बढ़ता यह शोर , मुझे कर बहरा रहा |

छाँव ढूंढता घूम रहा , सूर्य आग बरसा रहा |
साया बचा है एक साथी , कुछ पूछा जा रहा |

पर क्या उत्तर दूँ , थोडी ही बची जान है |
अब क्या करूँ समेट उसे , जब पास न जुबान है |

राह चुनी जो मैंने , उसमें इतने मोड़ क्यों हैं ?
दौड़ चुनी जो मैंने , उसमें इतनी होड़ क्यों है ?

उदासी छाई है मुझमें , आया यह दौर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 16 अप्रैल 2009

पहाड़ मुझे बुलाते हैं |

अक्सर मेरे बगल में आकर ,
धीरे से फुसफुसाते हैं |
नैन बिछाए बैठे रहते ,
वे पहाड़ मुझे बुलाते हैं |

जाता हूँ जो कभी तो ,
स्वागत में झुक - झुक जाते हैं |
वृक्ष झूमते खुशी - खुशी ,
झरने रुक - रुक जाते हैं |

ठंडे झोंके पवन के ,
अपनी - अपनी कहते हैं |
सुंदर दृश्य यहाँ - वहाँ ,
खुलकर बिखरे रहते हैं |

सुबह होती ज्यों ही ,
पक्षी जगा जाते हैं |
सूर्य देवता इनके शीश ,
स्वर्णिम मुकुट सजा जाते हैं |

मन वहाँ जाकर ,
होता कितना प्रसन्न है |
हर पत्ते पर ओस नही ,
मानो अपनापन है |

सदा मेरे सपनो में आकर ,
हौले से रुलाते हैं |
मन करता है , छोड़ सब भाग जाऊ वहाँ ,
जहाँ ये पहाड़ मुझे बुलाते हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 15 अप्रैल 2009

विश्व एक मंच है

एक महान लेखक ने लिखा ,
यह विश्व एक मंच है |
नाट्य यहाँ हर जीवन ,
आदि से अंत है |

हरेक मनुष्य अपना ,
निभा रहा किरदार है |
इस बड़े नाटक का ,
छोटा सा हिस्सेदार है |

लिखे विधाता ने जो शब्द ,
बस उन्ही को पढ़ रहा |
अपने अस्तित्व के लिए ,
इस मंच पर लड़ रहा |

कभी बैठा रोता रहता ,
कभी खुश हो हंस दे|
कई आते , कई जाते ,
यह विश्व एक मंच है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

तू उड़ सकता है

बहुत आगे नही आया तू , अभी वापस मुड सकता है |
क्यों चलता है पैदल , जब तू उड़ सकता है |

पीछे क्यूँ है खड़ा तू , जब तू लड़ सकता है |
कदम छोटे - छोटे क्यूँ रखता , जब तू दौड़ सकता है |

साहस कर , तूफानों को , तू मोड़ सकता है |
सर्वश्रेष्ठ है जो उनसे , लगा होड़ सकता है |

बल है तुझमे , रुकावटों को तोड़ सकता है |
अपनी टूटी तकदीर , फ़िर जोड़ सकता है |

पहचान ख़ुद को , तू हर पहाड़ चढ़ सकता है |
क्यों चलता है पैदल , जब तू उड़ सकता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 14 अप्रैल 2009

ये जीवन है

जन्म से जो शुरू हुई ये , सबसे बड़ी पहेली है |
सुलझाने को इसको हर ज़ंग खेली है |

कभी अर्श पर रख दे , कभी फर्श पर पटक दे |
कभी वसंत , और कभी शरद है |

कभी यूँ फिसल जाता , जैसे रेत है |
कभी ऐसे चुभता ,जैसे बेंत है |

हर हिस्सा चल - चित्र जान पड़ता |
कभी दुश्मन , कभी मित्र जान पड़ता |

कितने रंग है , किसने गिने है ?
जीने पड़ते हैं , जो भी मिले हैं |

कभी शहर की भीड़ , कभी सूना वन है |
इश्वर की सप्रेम भेंट ये , ये जीवन है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 12 अप्रैल 2009

क्या ये वही भारत है ?

बड़े बुजुर्गों ने जो बनाना चाहा,जिसके लिए मरते रहे |
देख रहे हम आज जिसे ,क्या ये वही भारत है ?

समस्या ही समस्या है ,सुविधायें नदारद हैं |
नेताओं को भ्रष्टता में ,हासिल महारत हैं |

गरीबी बढती जा रही ,नौकरी पाना एक महाभारत हैं |
गाँव और खेती का दृश्य , बहुत हृदय विदारक हैं |

हमारे घर आके , कोई हमे मार जाता हैं |
और पीछे से , सबूत माँगा जाता हैं |

आधी जनता का हम पेट नही भर पा रहे |
पर ऑस्कर में खुशी से , जय हो गा रहे |

हमारा भविष्य जाने किसके बूते हैं |
मंत्रियों पर उछल रहे जूते हैं |

जो राष्ट्र हम बनाने के लिए प्रयासरत रहे |
सोच कर देखो , क्या ये वही भारत हैं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 11 अप्रैल 2009

वह रौशनी

कभी अचानक मैंने , देखी थी वह रौशनी |
कौन दिन था , कौन समय , यह मुझको ध्यान नही |

खुशी से भरी रहती थी, जीवन से हरी रहती थी|
कभी कभी मेरे , आस पास खड़ी रहती थी |

आज भले ही वह रौशनी मुझसे दूर है |
फ़िर भी उसका अहसास मुझे भरपूर है |

उसे पहचान न सका , मेरी भूल है |
पर अब पछताना फिजूल है |

कंही मिल जाए फिर से , तो देख लूँ जी भर के |
थोडी सी चुरा लूँगा , आँखों में बंद कर के |

मन खुशी से खिल जाए , एक बार जो दिख जाए |
अब जाने न दूँगा उसे , वह रौशनी जो मुझे मिल जाए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

तू क्या चाहता है ?

कभी ख़ुद से सवाल पूछा ,कि तू क्या चाहता है ?
पास जो तेरे वो कुछ नही , दूर जो , उसके पीछे भागता है |

कभी ये , कभी वो ,जाने क्या करना चाहता है ?
चोट लगती है कभी , तो बैठ कराहता है |

मन तो है ही चंचल ,वह उड़ना ही चाहता है |
लेकिन उसके पंख कतरने ,क्या तू नही जानता है ?

एक बार ढंग से सोच तो ले ,कि तू क्या चाहता है ?
फिर आने दे आगे तेरे ,जो भी आना चाहता है |

तीर चलाते सभी यहाँ , पर निशाना वही लगाता है |
जो मछली नही ,केवल उसकी आँख देखना चाहता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009

तू युवा है |

हाथ पर हाथ धरे क्यूँ बैठा ,
ऐसा भी क्या हुआ है ?
जंग है यह एक ज़िन्दगी ,
न कि कोई जुआ है |

इंसान ने जो भी चाहा ,
क्या हमेशा वही हुआ है ?
भाग्य नही , कार्य प्रबल माना जिसने ,
उसीने आसमान छुआ है |

आँखे खोल , आगे तुझसे ,
सारा ज़माना हुआ है |
कर सकता है तू वह ,
जो तूने ठाना हुआ है |

अभी से क्यूँ थक गया तू ?
अभी खेल शुरू हुआ है |
तू ऊर्जा का ज्वालामुखी ,
जिसमे लावा भरा हुआ है |

टूट पड़ पूरे दम से उसपर ,
जिससे सामना हुआ है |
उतार ला तारे ज़मीन पर ,
अभी तू युवा है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

मुस्कुराया करो

जब भी मिलो , मुस्कुराया करो |
जैसे भी रहो , खिलखिलाया करो |

जो भी हो दर्द , सह जाया करो |
ज्यादा हो , तो किसी से कह जाया करो |

जीवन एक नदी है , इसमे बहते जाया करो |
ऊँच नीच होगी राह में , इनसे उबर जाया करो |

अपनापन जहाँ महसूस हो , स्वर्ग वहीं पाया करो |
बहुत सुंदर है यह संसार , खुश रहकर , और सुंदर बनाया करो |

इसलिए , जब भी मिलो , मुस्कुराया करो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 7 अप्रैल 2009

मानव कितना लोभी है !

हर दिन हर पल इसे , आस यही बस होती है ,
और मिले - और मिले , मानव कितना लोभी है !

धन दौलत के लिए इसने , पूरी ताकत झोंकी है |
ईर्ष्या और जलन का , यह बन रहा रोगी है |

हमेशा इसको थोड़ा लगता , इसकी झोली में जो भी है |
संतोष नहीं रहा जीवन में , बस लालसा होती है |

अंत समय तक लगता इसको , हाय किस्मत सोती है |
सब पाकर भी संतुष्ट नहीं , मानव कितना लोभी है !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मैं कोई कवि नही

मैं कोई कवि नही , बस यूँही कुछ लिख लेता हूँ |
अपने सूनेपन को , शब्दों से भर लेता हूँ |

प्यास मुझे कुछ करने की सो ,
ऐसे गला तर कर लेता हूँ |

बंजर से पड़े अपने मन को ,
फिर से हरा कर लेता हूँ |

खुशबू उठती धरती से ,
जब दो शब्द लिख लेता हूँ |

परमानन्द पा लेता हूँ जब ,
कहीं अपनी पंक्तियाँ सुन लेता हूँ |

मैं
कोई कवि नही , बस यूँही कुछ लिख लेता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

वह मानव

सूरज उगता है , चलता है, अस्त हो जाता है |
मानव जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |

जो बचपन से ही परिश्रम में व्यस्त हो जाता है |
अडचनों, व्यवधानों का अभ्यस्त हो जाता है |

संसार के वैभवों से अनासक्त हो जाता है |
मार्ग उसका स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है |

प्रशंसक उसका समाज समस्त हो जाता है |
वह मानव जो जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 5 अप्रैल 2009

A place called DehraDun

Often people ask me ,
where are you from ?
I smile and answer ,
A place called DehraDun.

God does'nt bless many with this boon.
To be a part of the heavenly Dun.

Splendid near view of lush hills.
The cool breeze gives you tantalizing chills.

Weather so pleasant and changes so soon.
Morning it's summer, evening monsoon.

People here are polite and enlightened.
The education level is scholarly and heightened.

The place has given many great souls.
Who have achieved ' to be proud of ' goals.

The youth is the heart of the city.
With vivid colors and striking diversity.

The Beatles cherished it , dedicated a song for it.
You cannot help , but just long for it.

I wish i was there,
When the spring flowers bloom.
The place i belong ,
A place called DehraDun.

- Akshat Dabral
Nishabd.

एक कविता बना लेता हूँ |

कुछ समय मिले तो,
कागज़ , कलम उठा लेता हूँ |
मन में कुछ लिखने का ,
सहास जुटा लेता हूँ |

अक्षर अक्षर जोड़ ,
शब्द बना लेता हूँ |
इन शब्दों को मोड़ - तोड़ के ,
अर्थ बना लेता हूँ |

अर्थ सही लगने से,
भाव बन जाता है |
और समेट लेता हूँ ,
जो मेरे मन आता है |

इन सब को लेकर ,
एक लय में सजा लेता हूँ |
बस नाम इस कृति को देकर ,
एक कविता बना लेता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009

क्या तू बना वही है ?

तस्वीर बनाई जो तूने अपनी ,
वह तुझमे सजी रही है |
जो बनना चाहता था तू जग मैं ,
आज क्या तू बना वही है ?

राह चल रहा जो इस पल में ,
क्या वह राह सही है ?
इच्छा जिसकी , जो मन में कई बार कही है ,
क्या तू बना वही है ?

संसार के चक्करों में पड़ ,
जो तो भूल गया |
बिना आदर , मेहनत , लगन के ,
मुरझा वह फूल गया |

अब तस्वीर पर तेरी ,
समय की परतें चढी है |
आकांक्षा तेरी , धूल में दबी कहीं है ,
जो हमेशा चाहा तूने ,
क्या तू बना वही है ?

गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

लक्ष्य कितना दूर है ?

प्रातः उठते स्वयं से ,
प्रश्न मैं यही करता |
क्या तैयारी पूर्ण है ?
लक्ष्य कितना दूर है ?

सघन स्पर्धा है बड़ी ,
परीक्षा अतिशय कड़ी |
सफल हो , क्या तू वह शूर है ?
लक्ष्य कितना दूर है ?

अपने प्रश्नों का उत्तर ,
सहज ही मैं पा जाता |

जुटा साहस , बढ़ा कदम चल ,
राह भले ही क्रूर है |
साँस लेना उतना चलकर ,
लक्ष्य जितना दूर है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

आज मन कुछ उदास है

मित्रों आज न लिखूंगा ,
आज मन कुछ उदास है |
लगती हर तरफ़ नीरसता फैली ,
बोझिल सा एहसास है |

सब यहाँ खुश हैं ,
जाने क्या पर्व ख़ास है |
मुझमे ही यह सूनी भावना ,
जागी अनायास है |

कलम का वजन मन भर है ,
मेरा शब्द कोष तितर बितर है |
न भाव , न अर्थ , न संधि ,
न बन रहा समास है |

मित्रों आज न लिखूंगा ,
आज मन कुछ उदास है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 1 अप्रैल 2009

वह मृगनयनी

मेरे हृदय में मित्रों ,
आ बसी एक मृगनयनी |
झलक दिखा एक, लुप्त हो जाती ,
अति चंचल वह मोहिनी |

अकस्मात् स्वप्न में उसे पा ,
विस्मित मैं हो जाता |
रातभर उसे ढूंढते हुए ,
जाने कहाँ कहाँ हो आता |

हाथ बदाऊ तो ,
उड़ जाती तितली बनकर|
ख़त लिखता हूँ उसे ,
पर भेजूं किस पते पर |

उसके नयनो ने मुझ पर ,
कुछ ऐसी माया डाली |
उसके ख्याल से ही ,
महक उठता मेरा ह्रदय खाली |

मन बहुत है, बनाऊ उसे अपनी संगिनी,
किंतु पहले चाहता हूँ ,
मुझे मृग बनाकर अपने पीछे ,
दौडाए वह मृगनयनी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

प्रेम

प्रेम बिन्दु है , प्रेम सिन्धु है ,
यह ठोस है , यह तरल है |
यह कठिन है , यह सरल है ,
सवालों का प्रत्यक्ष हल है |

प्रेम हृदयों का मेल ही नही ,
चंद दिनों का खेल नही |
यह अविरत बहती सरिता है ,
स्वयं मुग्धा कोई कविता है |

प्रेम वह सुरा जिसमे मद नही ,
इसकी कोई सीमा , कोई हद नही |
हर सम्बन्ध का आधार यही ,
रूप विभिन्न , आकार कई |

आज प्रेम का हो रहा ह्रास बड़ा ,
हर रिश्ता तनाव , अविश्वास भरा |
स्वर्ग धरा पर बना पायेंगे ,
जो इसे जीवित बचा पायेंगे |

अक्षत डबराल " निःशब्द "

समय

आदि यही , यही अंत है ,
यह पल प्रतिपल सर्वत्र , तुंरत है |
सबो पर इसका प्रभाव समान है ,
यह समय है , यह महान है |

इसका वार अकाट्य है ,
इसकी शक्ति अप्राप्य है |
स्वयं इश्वर इससे बाध्य है ,
यह समय है , यह महान है |

मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूँजी है ,
यह सफलता की कुंजी है |
रूठे तो श्राप , रीझे तो वरदान है ,
यह समय है , यह महान है |

व्यर्थ करने योग्य नही ,
यह मुद्रा मूल्यवान है |
श्रिस्टी का शास्वत सत्य है ,
यह समय है , यह महान है |

तू समर्थ है

बालक था तू जब , तब तू निर्बल था ,
कुछ करने का इरादा किंतु तब भी प्रबल था |
आज तू व्यस्क है , कोई बहाना व्यर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |

कार्य नही कोई जो पूरा न कर सके तू ,
राह नही कोई जो चल न सके तू |
हरेक चुनौती का बस यही अर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |

तुझसे आस देख कितनो को है ,
सामने देख तू बस दौड़ जीतने को है |
इतनी आगे आकर वापस मुडना अनर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |