शनिवार, 13 नवंबर 2010

कहाँ से लाऊं ?

कुछ कसक सी है सीने में,
इसकी दवा कहाँ से लाऊं ?

मुझे लिखने का मर्ज़ है ,
लिखता हूँ जब तक दर्द रहे |

ये ज़िन्दगी ही वजह है इनकी ,
कोई और वजह कहाँ से लाऊं ?

वक़्त चलता रहता है ,
जैसे पानी बहता रहता है |

जों भी है बस अभी है ,
दूजा वक़्त कहाँ से लाऊं ?

ख्यालों के भी कुछ तिनके ,
डूबते उतरते रहते हैं जेहन में |

दरिया एक है , ख्याल बहुत ,
एक और जेहन कहाँ से लाऊं ?

मंज़िल एक है , राह कई ,
लेकिन केवल एक सही |

सही है पर बहुत मुश्किल ,
आसान कहाँ से लाऊं ?

उड़ने की चाह है मुझे ,
पंख तो उगा लिए हैं मैंने |

उड़ान भरने को लेकिन खुला ,
आसमान कहाँ से लाऊं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 2 नवंबर 2010

तुम कौन हो ?

ठण्ड की गर्म धूप हो तुम ,
या नदी की मस्त लहर ?
मुंडेर की पगडण्डी हो या ,
मनमौजी टेढ़ी नहर |

चांदनी हो सकती हो तुम ,
पर इतनी उसकी लौ नहीं |
सपनों में मुझे बुलाता है जों ,
क्या तुम ही हो , कोई और नहीं ?

खुशबू का झोंका हो तुम ,
या बारिश का छींटा हो ?
अनकहा अरमान हो कोई ,
जों उम्मीद पे ही जीता हो ?

डर से छुपायी बात हो तुम ,
या गुनगुनाया गीत कोई ?
अनजाने से दिखते हो ,
या लगते अपने मीत कोई ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 1 नवंबर 2010

बात चली

आगे रात चली , पीछे बात चली |
रात रात भर , बात बात में ,
साथ साथ में , कोई बात चली |

राज रानी की , आग पानी की |
कही अनकही , नयी पुरानी की |
ले अपने रंग सात चली ,
रात रात भर , बात बात में ,
साथ साथ में , बात चली |

कुछ अपनों की , कुछ सपनों की |
कुछ किस्सों की , कोई कहानी की |
ले यादों की बारात चली ,
रात रात भर , बात बात में ,
साथ साथ में , बात चली |

ओस की बूँदें , आँखें खुली - मूंद के |
उनमें कुछ खोकर , कुछ ढूंढ के |
दे कोई सौगात चली ,
रात रात भर , बात बात में ,
साथ साथ में , बात चली |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 27 अक्टूबर 2010

रात...

कुछ अजीब चीज़ मुझे खींचती है ,
और मैं लिखने लगता हूँ |
धुंआ छंटता है सोच का ,
और मैं देखने लगता हूँ |

कुछ शब्द सुनाई देते हैं ,
एक दूसरे से सटे हुए |
खुले आसमां में तारे ,
चाँद से लगे , हटे हुए |

एक भीनी खुशबू का झोंका ,
परदे हिला के चला जाता है |
जुगनू आता है चोरी से ,
रात का दिया जला जाता है |

सन्नाटा आता रहता है बीच में ,
उससे पुरानी दोस्ती है |
बाहर सुनता हूँ मैं कैसे ,
ओस रात को कोसती है |

सपने कुछ कहना चाहते हैं ,
सही समय को रुके हैं |
दिनभर के थके नैन ,
अब बोझल हो झुके हैं |

अपनी कलम ले बैठता हूँ ,
और आधी रात बीत जाती है |
आखिर नींद अपने हक़ को लडती है ,
और जीत जाती है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2010

कोई...

कोई दिखता है , रोज़ सपनो में |
पर भोर तक चाँद के साथ ,
वो चला जाता है |

कभी चेहरा नहीं देखा उसका |
पर अपनी आवाज़ ज़रूर ,
वो सुना जाता है |

उसके ज़ेवर भी हैं कुछ ,
जों जुगनुयों से जलते - बजते हैं |
उन्हें इतराकर हिला जाता है |

उसके आने की आहट नहीं होती |
जाने पर किवाड़ न लड़ता |
कैसे उन्हें मिला जाता है ?

उसने नाम नहीं बताया कभी |
पर मुझसे करीबी का एहसास ,
हमेशा मुझे दिला जाता है |

अधसोई आँखों से ढूंढता हूँ रातों में |
वो जाने क्या मिलाकर नींद में ,
रोज़ मुझे पिला जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 25 अक्टूबर 2010

बैठ जाता हूँ ...

रोज़ शाम हो तेरी खुशबू ,
पहचानने बैठ जाता हूँ |
रेत रेत कर तेरे ख्वाब,
मैं छानने बैठ जाता हूँ |

पहलूँ में ले तुझे तेरे,
हाथ थामने बैठ जाता हूँ |
जला जलाकर तुझे ऐ शमा ,
मैं बुझाने बैठ जाता हूँ |

कुछ सवाल कर तुझसे ,
जवाब जानने बैठ जाता हूँ |
तुझे बना के एक आइना ,
मैं सामने बैठ जाता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 23 अक्टूबर 2010

ऐ ख़्वाबों के ...

ऐ ख़्वाबों की किताबों ,
क्या तुम्हारे किरदार रुखसत हो गए हैं ?
कुछ नयी कहानियां , किस्से सुना दो ,
या वो भी फुर्सत से सो गए हैं ?

ऐ ख़्वाबों के दरख्तों ,
तुम कब से सदमे में खड़े हो ?
कभी हवा के साथ झूमे ,
क्या कभी आंधी से लड़े हो ?

ऐ ख़्वाबों के परिंदों ,
तुम्हारे पर नहीं हैं क्या ?
कभी उड़ते नज़र नहीं आते ,
तुम्हारा कोई अम्बर नहीं है क्या ?

ऐ ख़्वाबों की परियों ,
तुम अब सुन्दर नहीं हो ?
तुम्हें देखने में मन नहीं रमता ,
कबसे तुम ऐसी हुई हो ?

ऐ ख़्वाबों के सफ़र ,
तुम अब बेजान लगते हो ?
सूखे ठूंठ ही नज़र आते हैं ,
कोई उजड़ा बगान लगते हो |

ऐ खाव्बों , पर तुम ऐसे तो न थे ?
जों दूजी डगर चल गए हो ?
थोड़ी उम्र क्या बड़ी मेरी ,
तुम अब बदल गए हो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2010

vengeance !

Its vengeance, Its vengeance,
Its vengeance, all the way.

Been running from myself,
I see nothing helps.
am fearing the shadows,
am dreading the hallows.
Swimming against flows,
Waters deep and shallow.

For I am the beast,
and I am the prey.
Know you wont like it,
Still I have to say.

Its vengeance, Its vengeance,
Its vengeance, all the way.

Faces i see, places i be,
they totally hate me.
Stares me in the eye,
everyone passing by.
They are all same.
but have different names.

Killing me so slow,
this venom you know.
I feel the pain every second,
every minute, every day.

Cos Its vengeance , its vengeance ,
Its vengeance all the way.

-Akshat Dabral

बुधवार, 20 अक्टूबर 2010

कब ? किससे ? कैसे ?

किसकी सुनूँ , दिल की या दिमाग की ?
किससे कहूँ , किसने मतलब की बात की ?
कैसे कहूँ , की सपने कोरे कागज़ थे ?
कैसे कहूँ , की जीवन मुश्किल किताब थी ?

कब जियूं , जीने की कहाँ मोहलत थी ?
कैसे जियूं , रब ने कब रहमत दी ?
कैसे कहूँ , दुनिया कब सहमत थी ?
कैसे सहूँ , चमकी कब किस्मत थी ?

किसको ढुंढूँ , कौन मेरा अपना था ?
कैसे ढूंढूं , जब टूटा मेरा सपना था ?
किसको पूछूँ , अपने घर का रस्ता ?
कैसे पूछूँ , मैं महंगा या सस्ता ?

कैसे सुनूँ , वो चुभते सवाल ?
कैसे चुनूँ , दम तोड़ते ख्याल ?
कैसे कहूँ , की बस यही कहना है ?
कैसे सहूँ , अभी जिंदा रहना है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 14 अक्टूबर 2010

पुरानी अल्बम...

कल परसों में अपनी पुरानी रैक टटोल रहा था तो मुझे वहां एक पुरानी एल्बम दिखी |
वो बहुत पुरानी एल्बम थी , जिससे खुद ही नहीं , बल्कि चित्रों में अंकित चेहरों से भी एक परत उतर चुकी थी |
उसको देख कुछ लिखने का मन किया , मन किया की उन भावनाओं को शब्दों में ले आऊँ, किन्तु मात्र प्रयास ही कर पाया , शेष निम्न है |

मैं, मैं तुम्हारा अतीत हूँ ,
सुनकर भुलाया संगीत हूँ |
सुख - दुःख की संगम हूँ ,
एक पुरानी अल्बम हूँ |

कैसे तुमने कैद किये थे ,
मुझमें वो अपने पल विपल |
तुम बहुत आगे आ गए,
और मैं हूँ एक बीता कल |

मुझमें कुछ चेहरे , कुछ रिश्ते ,
सहमे से खड़े हैं |
तुम्हारी आस में उनके नैन ,
मूर्त में पत्थर से जड़े हैं |

मेरी तरह रिश्ते भी ,
सील गए हैं शायद |
या फासलों में बढ़ कई ,
मील गए हैं शायद |

कहीं ख़ुशी के पल भी हैं ,
जहाँ तुम हंस रहे हो |
बहुत दिनों बाद देखा तुम्हें हँसता ,
लगा, कभी तो तुम खुश रहे हो |

कुछ होली के रंगीन चेहरे ,
जिनका रंग अब उड़ चुका है |
कुछ पुरानी पहचाने ,
जिनसे रास्ता मुड चुका है |

कभी दिवाली की रौनक ,
अब कहाँ ऐसी होती है |
तब ख़ुशी होती थी असीम ,
अब किराए पर होती है |

कहीं कुछ पुरानी चीज़ें ,
जिनपर तुम्हे नाज़ था |
सब कैद हैं यहाँ एक युग में ,
कभी, उनका क्या अंदाज़ था !

मुझे खोला , तो मैं बोल पड़ी ,
वरना मैं चुप हरदम हूँ |
ये तुम्हारा अतीत बोलता है ,
मैं तो बस एक अल्बम हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 11 अक्टूबर 2010

I.Youth

I need no love,

I need no care.

Come what may,

In the eyes I’ll stare.


Stronger than wind,

Louder than thunder.

I am a born soldier,

I’ll die fighting,

Rather than surrender.


I think big, not common,

Have vision, beyond horizon.

Small worries don’t bother me,

Nor do the petty achievements.


To some of you,

I might be rogue.

And to some others,

Totally out of vogue.


So, so be it,

If so it is.

I’ve been like this,

Since old ages.


I won’t change O world,

So it suits you.

I’ve been a stubborn boy,

All the way through.


It is the right way,

If it is my way.

I wish to change day to night,

And night to sunny day.


All I need is a chance,

To prove my mettle.

Be it the silent wars,

Or the fierce battles.


It’s not me, but the youth,

Who writes.

For it’s not me, but the youth,

Who fights.


Akshat Dabral

"निःशब्द"

रविवार, 10 अक्टूबर 2010

रात ...

नींद की धुंध छा रही है ,
पल पल गहराती जा रही है |
ख़्वाबों की बूँदें भी कुछ ,
आँखों में फिसलती जा रही हैं |

तारों का शामियाना सजा है ,
चाँद राजा बना लगता है |
चांदनी नाच रही है बेबाक ,
शाही दरबार बना लगता है |

कुछ सुरीली सी आवाज़ें ,
छू छू कर जा रही हैं |
ये गजल है या नज़्म कोई ,
ये रात क्या गा रही है ?

मदहोशी होने को बेताब है,
इसका मर्ज़ लाइलाज है |
पाक नशे का बाकी रहा ,
पिछला बहुत हिसाब है |

बहुत देर से हूँ हैरत में ,
हूँ ख्वाब में , या होश में |
कितनी तो बातें कह गयी ,
रात , होकर खामोशी में |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 9 अक्टूबर 2010

हम तुम ...

आजा रात की बाहों में झूलें ,
आजा चाँद से किस्से पूछें |
बात बात में पहेलियाँ बनाकर ,
आजा उन पहेलियों को बूझें |

कुछ तुम कह दो मुझसे ,
कुछ मैं कह दूँ तुमसे|
चलते चलते , कहते सुनते ,
एक ग़ज़ल बन जाए हमसे |

आजा सपनो की पतंग उड़ायें ,
आँखों आँखों में पेंच लड़ाएं |
झूमती रहे पतंग हमारी ,
कभी डोर न टूटने पाए |

आजा हाथों में हाथ लेकर ,
तेरा खुबसूरत साथ लेकर |
हम मीलों चलते जाएँ ,
वफ़ा के ज़ज्बात लेकर |

आज हम ये दुआ करें ,
हमेशा यूँही पास हुआ करें |
एक दूजे के नाम की ,
हमारी साँसें हुआ करें |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 6 अक्टूबर 2010

i want to live those days again.

For when i knew no loss no gain,
i want to live those days again.

For when i never cursed the rain,
i want to live those days again.

For when i never felt what is pain,
i want to live those days again.

For when there was nothing to refrain,
i want to live those days again.

For when i never cared of clothes' stain,
i want to live those days again.

For when i was so easy to entertain,
i want to live those days again.

For when i did'nt knew what to attain,
i want to live those days again.

For when life was simple and plain,
i want to live those days again.

For when i did'nt send God complaints,
i want to live those days again.

मंगलवार, 21 सितंबर 2010

समझौते !

बचपन से आज तक ,
सुबह से रात तक ,
हम डरते आये हैं |
बस समझौते करते आये हैं |

कमियों से , खुशियों से |
सदियों से, परिस्थितियों से |
अपनी हार करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

कभी धूप में नंगे पाँव चले हैं ,
कभी बरसात में बेछांव चले हैं |
अपने घाव छुपाया करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

कुछ पाने को दुआ करते हैं |
खुद से जों हुआ , करते हैं |
कुछ दुआएं भुलाया करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

यूँ ख्वाब देखने की कीमत नहीं होती ,
पर अब इन्हें देखने की हिम्मत नहीं होती |
इनका किराया अदा करते आये हैं ,
बस समझौते करते आये हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 20 सितंबर 2010

सड़कें |

सरपट भागती , एक दुसरे को काटती ,
बेजान कितनी सड़कें, एक ज़माने से दौड़ रहीं हैं |
इनकी कोई मंजिल नहीं , या शायद कभी रही हो |

इससे पहले ये रास्ते हुआ करती थीं |
तब इनको अपने मुसाफिर का इलम था ,
पर अब ये सड़कें हैं , बाखुदा एक नाम के साथ |

इनके रंग जैसा ही दिल हो गया है इनका |
काला और कठोर , आप चल तो लोगे ,
पर जल्द ही आपके पैर दुखेंगे |

शहर की बदलती सूरत की गवाह हैं ये |
इतने सितम देख सहम गयी होंगी ,
तभी इन्हें कुछ महसूस नहीं होता , बस भाग रही हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 18 सितंबर 2010

वो लड़की |

"ज़रा बैठने देंगे ?", एक मृदुल, सौम्य सी आवाज़ शायद मुझसे ही कुछ कह रही थी | मैं उदासीन बन, हमेशा से ही दार्शनिक बनने की कोशिश व ढोंग करता आया हूँ , पर कभी दूरदर्शन के अलावा कोई दर्शन नहीं किया | वही आज भी कर रहा था , किन्तु विनती के ढंग ने मुझे अपना भ्रम तोड़, इस व्यवहारिक दुनिया में वापिस लाने पर मजबूर कर दिया था| ये दिल्ली मेट्रो का लबालब भरा डिब्बा था , जिसकी सीट पर सौभाग्यवश मुझे अपना आधा वजूद समेटने की जगह मिल गयी थी| विनतिकार एक युवती थी, जों शायद पहली बार मेट्रो में सफ़र कर रही थी| माथे पे पसीना , चेहरे पे थोड़ी घबराहट व कौतूहल विराजमान थे |

मैंने थोड़ी अनमनसक्यता दिखाते हुए, धीरे से उसके लिए सीट छोड़ दी| उसने "थैंक यूँ " या "शुक्रिया" सा कुछ कहा और मेरी छोड़ी आधी सीट पर आधिपत्य जमा लिया | मुझे भी थोड़ा अच्छा लगा, कि यूँ तो किसी के लिए कुछ नहीं करते, सीट छोड़ कर ही थोड़ा कर्म पुण्य कमा लें | मैंने भी झूठी संतुष्टि की ठंडी सांस छोड़ बाहर नज़र घुमा ली| कुछ देर बाद नज़र घूम फिर के अन्दर आ गयी | वो ठीक मेरे सामने बैठी थी, मैंने देखा , साधारण कद काठी , हलके रंग के प्रिंटेड सलवार कमीज़ में, खुद में सिमटी हुई सी थी | उसको देख कर लगता था , किसी छोटे शहर की रहने वाली है | इतने साल घर से बाहर रहना , और दार्शनिक बनने की सनक ने मुझे व्यक्ति की पहचान करना तो सिखा ही दिया था | अब उसका सजीव प्रयोग करना मेरे लिए मनोरंजन का साधन था |

एक के बाद एक स्टेशन आते जा रहे थे | एक हुजूम उतरता था , और एक भीड़ चढ़ जाती थी | ये कभी न ख़तम होने वाला चक्र सा था | वही नीरस सी आवाज़ "दरवाज़े बायीं तरफ खुलेंगे" एक प्राईमरी स्कूल में रटे "दो इकम दो" "दो दूनी चार" सी प्रतीत हो रही थी | वो अपना काला सा बैग अपने सीने से चिपकाए बार बार स्टेशन दिखाने वाली पट्टी को घूर रही थी | पहली बारी सफ़र करते हैं तो स्टेशन निकल जाने का डर रहता है , वही डर उसको सता रहा था | अपने बगल में बैठी अधेड़ उम्र की एक हृष्ट पुष्ट महिला से कोई कागज़ दिखा दिखा कर पता मालूम कर रही थी | मैंने सोचा , ज़रूर कोई पेपर देने आई होगी, खैर हमे क्या , अपने रोज़ कम पेपर होते हैं , घर पर , ऑफिस में , उफ़ ! ऑफिस का ख्याल आते ही मैंने इस ख्याल को दफ़न कर बदल दिया |

"अगला स्टेशन नॉएडा सिटी सेंटर है " वही कृत्रिम आवाज़ गूंजी, और मेरा भी ध्यान चक्र टूटा | उतर कर पहले सब्जी लेनी है, खाना बनाना है, कपड़े प्रेस को देने हैं , हा हंत, एक मनुष्य , सौ काम | रेंगती हुई ट्रेन स्टेशन पर जा रुकी | फिर भीड़ का एक जत्था उतरा , एक दुसरे को धकेलता हुआ , जैसे एक सेकंड जल्दी पहुँच कर उन्हें मिल्खा सिंह की संज्ञा मिल जायेगी | खैर , मैं भी उतरा , मेरे पीछे वो लड़की भी उतरी | स्टेशन के बाहर आते ही मुझसे बोली ,"ये सेक्टर बासट कहाँ पड़ेगा , मैं यहाँ नयी हूँ "| मैंने दो तीन पल सोच के कहा , "आपने बासट में कहाँ जाना है , बासट तो बहुत बड़ा है "|

ये सुन उसने एक एडमिट कार्ड मुझे दिखाया| मैंने देखा , वो उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग की मेन परीक्षा का एडमिट कार्ड था | मैंने उससे कहा ,"चलो मैं आपको छोड़ देता हूँ , मैंने वहीँ जाना है "| ये सुन उसे थोड़ा अजीब लगा , पर मेरे बर्ताव से उसने असुरक्षित नहीं महसूस किया सो वो तैयार हो गयी | हम लोग एक ऑटो में चले, मैंने उससे उसकी तैयारी के बारे में पूछा , कुछ एक ज्वलंत मुद्दों पर भी उसकी राय देखनी चाही | उसके दिखने और बोलने में बहुत अंतर था | उसके वाक्य सटीक , ज्ञान उत्तम व वाक् पटुता प्रशंसनीय थी |
थोड़ी ही देर में उसने मुझे बेहद प्रभावित कर दिया था | मुझे उसकी हर बात पे यही लगता था कि हमे ऐसी ही नारियां चाहियें, जों समाज को आगे ले जाएँ |

अपनी व्यर्थ कि दार्शनिकता से जों मैंने इस नारी का कमज़ोर चित्रण किया था , वही मुझ पर अब हंस रहा था | मैं अपने घर न जाकर उल्टा इसके सेण्टर पे आया , ये समझ के कि ये तो कमज़ोर नारी है , कहीं इसे जगह मिले न मिले , पर मैं गलत था , एक दम गलत | ये एक सशक्त नारी थी , जिसे पता था कि वो कहाँ जा रही है , किस रास्ते जा रही है, और कहाँ जाके उसका सफ़र खतम होगा | इसी जद्दोजहद के बीच उसका सेंटर आ गया , मैंने उतर कर उसको बेस्ट ऑफ़ लक कहा , उससे पैसे देने को मना किया , पर वो दे कर ही मानी | खैर चलो, मुझे देर तो हो ही गयी थी , उसी ऑटो को ले मैं घर आ गया |

समय अपनी गति से चलता है , चलता रहा | मेरे जीवन का चक्र चाल , ऑफिस घर , घर ऑफिस भी चलता रहा | एक दिन अखबार में फोटो पर ध्यान गया | बहुत याद किया परन्तु याद न आया | दो तीन दिन तक वो कील सी दिमाग में गडी रही | यकायक एक दिन चाय पीते हुए वो चेहरा और वाकया याद आ गया| घर आकर वो अखबार खोजा , देखा , उत्तर प्रदेश लोक सेवा आयोग में प्रथम स्थान पाने वाली वही लड़की थी , जिसको मैंने सेंटर पर छोड़ा था ! बस मुझे उस दिन इतनी ख़ुशी हुई, कि लगा मानो मैंने ही टॉप किया हो | मैंने उसका नाम नहीं पूछा था उस दिन , मेरे लिए वो एक नारी के स्वावलंबन का जीता जागता नमूना थी , और मैंने उसे वही रहने दिया, कोई नाम न देकर |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 16 सितंबर 2010

क्या ... पाउँगा ?

इस गुमनामी की कैद से ,
क्या कभी छूट पाऊंगा ?
अपने काम की बढ़ाई ,
क्या कभी लूट पाऊंगा ?
बहुत घना अँधेरा है ,
क्या किरन बन फूट पाऊंगा ?

कितनी मुश्किलें हैं आस पास ,
इनपे कहर बन टूट पाऊंगा ?
बहुत डिगाएंगे दीन को मेरे ,
क्या ईमान अटूट पाऊंगा ?
एक अकेला हूँ , काम बहुत है ,
क्या हिम्मत जुटा पाऊंगा ?

चलते चलते बैठ गया जों ,
फिर से खड़ा हो पाऊंगा ?
छोटी बातें , छोटी सोच ,
क्या इनसे बड़ा हो पाऊंगा ?
अभी तो लोहे की ज़ंजीर हूँ ,
क्या सोने का कड़ा हो पाऊंगा ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 11 सितंबर 2010

मदिरा ...

मदिरा नहीं है,
होश में लाता , पाक पानी है |
सुरूर नहीं है ,
खुद से मिलने की , अनकही कहानी है |
नशे का क्या है ,
कल उतर जाएगा , बस बेहोशी रह जानी है |

शराब बुरी है ,
यह बात सुनी , बहुतों की जुबानी है |
पर मेरी ज़रा दोस्ती है इससे ,
जब ये पूरी निभाती है तो, मुझे भी निभानी है |
यूँ हो जाता हूँ जब तन्हा,
दुआ सलाम की बातें , इसको ही सुनानी हैं |

आज की शाम को ,
दीवाना करदे जों , आयी वो जवानी है |
खनका दो जाम दो चार ,
वरना ये जवानी , अधूरी रह जानी है |
पर नशे का दोष मदिरा को न देना,
इसमें नशा नहीं, ये तो पाक पानी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 6 सितंबर 2010

तब अब ...

एकांत में बैठे बैठे ,
कभी मन उठके चल पड़ता है |
उन गलियों, मैदानों, खंडहरों में ,
जहाँ कभी अपनी पैर की आहट पड़ती थी |
अब वहां सन्नाटा चीखता है |

कट गए , काट दिए ,
उजड़ गए, उजाड़ दिए ,
वो बूढ़े बुज़ुर्ग से लम्बे पेड़ |
जों वक़्त के आंधी तूफ़ान ने ,
तोड़े, मरोड़े , उखाड़ दिए |

कुछ पत्थर के तुकड़ें है ,
अनमने से , बेपरवाह पड़े है |
कभी घर बना होगा इनसे भी कोई ,
उम्र तो कब की बीत चुकी इनकी ,
मौत न आई, तो बेसहारा पड़े हैं |

वहां बचीं है बस कंटीली झाड़,
करती वीराने से प्यार लाड़,
आज उसकी भी जगह खाना चाहती है |
आप जों जाए वहां तो ,
सौतेली मां सी डांट - भगाना चाहती है |

हिम्मत कर में यहाँ आ तो गया ,
पर इतनी जल्दी क्या जा पाऊंगा |
ये जगह मेरी थी कभी ,
दुखड़ा ही सुन लूँगा इसका ,
कर तो कुछ न पाऊंगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 28 अगस्त 2010

योग्य वर !

मेरे एक मित्र ने अभी अभी नौकरी बदली , उसका वेतन ३ से ५ लाख प्रति वर्ष हो गया|उसे लगा, ये विवाह के लिए समुचित होगा, किन्तु नहीं , उस बिचारे की व्यथा पर एक साहित्यिक प्रयास |

आवयश्कता है , एक योग्य वर की ,
जों सात लाख, या अधिक कमाता हो |
हो धनवान घर परिवार से ,पर मांस मच्छी न खाता हो !

लड़की को हमारी ,रानी बना के रखे|
ऊंचे उसके विचार हों ,सादा जीवन जीता हो|
हो शाही खानदान ,पर दारु शराब न पीता हो !

शादी के बाद , सारे नाज़ नखरे सहे |
लड़की का मन रखे , उससे बेहद प्यार करे|
जों लड़की के शौक हों ,लुटाने को सबकुछ तैयार करे |

लड़के के फ़ालतू दोस्त न हों |
जों दोनों को , आ आ कर तंग करें |
अब सुखी जीवन यापन , बस ये दोनों संग करें |

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ये शर्तें सुनकर , मेरे मित्र का अहम जाग उठा ,
बोला आपकी शर्तें सुनी , कुछ कहना चाहूँगा ,
अपनी तरफ से उनके , उत्तर देना चाहूँगा |

"जों सात लाख या अधिक कमाता है "
वो ही कर सकता है , जों दो नौकरी बदल चुका है ,
और तीसरी में जाता है|

"लड़की को हमारी , रानी बना के रखे"
मैं कोई रजवाड़ा नहीं , जों रानी बना ही दूंगा ,
जितना होगा जेब में , उतना ही दूंगा |

"हो शाही खानदान , पर दारु शराब न पीता हो"
ऐसा सोच रहें हैं आप , जैसे मैं पुरषोत्तम श्रीराम,
और आपकी बेटी , पतित पावन सीता हो |

आपको लड़का नहीं , देवदूत चाहिए |
मुझसे ये न होगा ,
मुझे क्षमा चाहिए , मुझे क्षमा चाहिए |

- आपके लिए अरिंदम "बॉस"

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 27 अगस्त 2010

अभी न ...

अभी न आई वो शाम कि साथी,
तुमको साकी कह के पुकारूँ |
अभी वफ़ा के जाम उठाये जाने हैं ,
पी लूं , तो होश रहे ,
आगे किसके हाथों पिलाये जाने हैं |

अभी न आया वो तूफ़ान कि साथी ,
तुम्हारा नाम ले के पुकारूँ |
हम बस चार दिन तुम्हें जाने हैं ,
उल्फत के हज़ारों अभी ,
परवान चढाने जाने हैं |

अभी न आई वो घड़ी कि साथी ,
तुम्हें इस मोड़ पे पुकारूँ |
आगे बहुत मोड़ आने हैं ,
अभी बुनियाद डली है दोस्ती कि ,
महल बनाने जाने हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 26 अगस्त 2010

मोर्निंग वॉक

मान्य जनों,
यूँ तो मुझमें बहुत व्यसन हैं , किन्तु , आजकल "मोर्निंग वाक" की एक अच्छी आदत डालने का प्रयत्न कर रहा हूँ |
नॉएडा के स्टेडियम में प्रतिदिन सैर पर जाता हूँ , वहाँ का दृश्य देख साहित्यिक मस्तिष्क पर शुद्ध वायु के साथ कुछ कवि रस का प्रभाव, मैंने अनुभूत किया|उसको शब्दों में ढालने का एक प्रयास |

स्टेडियम के गेट से ज्यों ही ,
मैं भीतर जाता हूँ |
पीछे रह जाती एक दुनिया ,
अलग लोक में आता हूँ |

कोई दातुन तोड़ने को उछल रहा |
सुंदरी जा रही है आगे ,
भंवरा मन ही मन मचल रहा |
टीप टीप कर स्कूल से अपने ,
क्रिकेट - फुटबाल चल रहा |

कुछ तो सच में चलने आते हैं |
कुछ बस बातें तलने आते है |
कुछ बिना बात हंसने आते हैं |
कुछ कुछ तो ऐसे भी हैं ,
टन भर इत्र मलके आते हैं |

कुछ को देख , हंसी आती है |
जो आपको भागना पड़े ,
इतना फास्ट फ़ूड क्यूँ खाती हैं ?
पर कहाँ फर्क पड़ेगा वहाँ ,
टायर हट भी जाए , तो ट्यूब रह जाती है |

राजनीति यहाँ भी चलायी जाती है ,
सरकारें बनायी , गिराई जाती हैं |
कभी सुनिए ये चर्चाएँ ,
लगता है केंद्र की योजनायें ,
यहीं बनायी जाती हैं |

छोटे छोटे बच्चे भी हैं ,
चलना जो सीख रहे |
कभी ज़मीं पे गिरते जाते ,
कभी पिता की ऊँगली खींच रहे |
मात पिता के नैन, स्नेह से भींच रहे |

कभी कभी एक प्रेमी जोड़ा भी ,
आता है इधर साथ में |
एक टूटी बेंच पे बैठा रहता ,
हाथों को ले हाथ में |
रब राखा, मैं कहता ,
अब जो भी हो बाद में |

कुछ वृद्ध दिखेंगे आपको ,
एक कोने में बैठे हुए |
सरका दिए गए परे ,
आपस में ही अपने ,
सुख दुःख सुनाते हुए |

भीतर, इस अलग दुनिया में ,
क्या क्या हो रहा है |
छोड़ एक ठंडी सांस ,
मैं बाहर आ जाता हूँ ,
ऑफिस का समय हो रहा है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 24 अगस्त 2010

कौन जाने ...

ले अपने जलते नयन ,
आधे सोये से चले आये |
ले अपने थकते पैर ,
गिरते संभलते चले आये |
जाना कहीं और था , यहाँ आना पड़ा ,
सो , अनमने से चले आये |

रोज़ रोज़ यूँ आधे मन से ,
सौतेले से अपनेपन से |
चल पड़ता हूँ उसी डगर पर ,
जों खड़ी खड़ी बुढती रहती है |
दिन चंद बचे हैं अबला के ,
कौन जाने , कब गुजर जाए |

बहुत ढीठ है ज़िन्दगी ,
जों चाहो, न कर पाओगे ,
अपनी मर्ज़ी करवाएगी |
ये यारी करने लायक नहीं ,
ज़बान इसकी न लीजियेगा ,
कौन जाने , कब मुकर जाए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 23 अगस्त 2010

ख्वाब ...

पलकों के छज्जों पर,
कुछ ख्वाब टंगा दिए हैं|
तूफां आये तो हिलते हैं |
टूट जाने का डर तो है ,
फिर भी सज़ा कर रखता हूँ ,
मुश्किल से मिलते हैं |

जब भी कोई मेरी आँखें देखता ,
कहता, हमेशा सुर्ख क्यों हैं ?
मेरा एक ही जवाब होता ,
एक उम्र की थकान है इनमें |
ख्वाब लिए है बड़े बड़े,
मुश्किल से ढुलते हैं |

पर इन सब का कोई गम नहीं ,
ख्वाब देखे हैं, और देखूंगा |
खुद को किस्मत वाला कहता हूँ ,
कहता रहा , कहता रहूँगा |
की मेरे ख्वाब वाले नैन खुले हैं ,
मुश्किल से खुलते हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

आपको क्या मालूम ?

बाहर हँसता रहता हूँ ,
हर समय मस्त सा रहता हूँ |
सीने में क्या दर्द है ,
आपको क्या मालूम ?

यूँ तो ठीक दिखता हूँ ,
राजी ख़ुशी सब लिखता हूँ |
पर मुझे क्या मर्ज़ है ,
आपको क्या मालूम ?

कभी उफ़ का सांस न छोड़ा,
हर चीज़ को शुरू से जोड़ा |
मुझ पर क्या क़र्ज़ है ,
आपको क्या मालूम ?

उस की तरह बनना चाहता हूँ ,
भट्टी में तपना चाहता हूँ |
मेरा क्या आदर्श है ,
आपको क्या मालूम ?

एक लड़ाई छिड़ी है खुद से ,
लड़ता हूँ पूरे वजूद से |
मेरा क्या संघर्ष है ,
आपको क्या मालूम ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 17 अगस्त 2010

क्यूँ हमेशा ?

घास दबती है ,रस्ते बनते हैं |
उन रस्तों पर ,सब चलते हैं |
कभी खुद भी दबा कर देखो घास को ,
बनी हुई पगडंडियों पर ही ,
क्यूँ हमेशा चलते हो ?

नसीब उसका भी है , तुम्हारा भी |
सिर्फ अँधेरा नहीं , है उजाला भी |
अपने आप को खुश रखो ,
दूसरों की ख़ुशी देख कर ,
क्यूँ हमेशा जलते हो ?

एक ईमान रखो, एक ही ध्येय |
एक व्यवहार रखो , एक ही उद्देश्य |
जब कभी मौका मिलता है ,
तुरंत अपना दीन इमान ,
क्यूँ हमेशा बदलते हो ?

खुद को खूब काबिल करो |
गिनती में शामिल करो |
अभी जब ढूंढ होती है ,
अपना छोटा सा वजूद लिए ,
क्यूँ हमेशा निकलते हो ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 8 अगस्त 2010

तो क्या बात है !

अकेला चलता हूँ इस जग में ,
कोई साथ मिल जाए ,तो क्या बात है !

मुझ पर तो सनक सवार है ,
कोई और पागल मिल जाए ,तो क्या बात है !

हर चीज़ उबलती,ज़हरीली है ,
कोई ठंडी छाँव मिल जाए ,तो क्या बात है !

बहुत प्यास है इस जीवन में ,
कोई फुहार मिल जाए ,तो क्या बात है !

मैं तैयार हूँ साथ निभाने को ,
कोई पुकार मिल जाए ,तो क्या बात है !

मेरा जीवन बेलफ्ज़ चलचित्र ,
कोई गीतकार मिल जाए ,तो क्या बात है !

बहुत ज्यादा की उम्मीद नहीं मुझे ,
कोई सच्चा यार मिल जाए , तो क्या बात है !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 3 अगस्त 2010

चाहता हूँ ...

आसमाँ में उड़ते परिंदों से ,
कुछ सीख लेना चाहता हूँ |
खुलकर बहती , मस्त पवन से ,
ख़ुशी की भीख लेना चाहता हूँ |

बहुत मिले हैं रस्ते यहाँ ,
चुनाव सटीक लेना चाहता हूँ |
हिमालय को मान कर मिसाल ,
एक चरित्र ठीक लेना चाहता हूँ |

सपने लाखों है जहाँ में ,
कुछ आँखों में भींच लेना चाहता हूँ |
बस कलम भर शब्दों की स्याही से ,
पूरी ज़िन्दगी खींच लेना चाहता हूँ ...
पूरी ज़िन्दगी खींच लेना चाहता हूँ ...

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 30 जुलाई 2010

माफ़ करना ...

मेरी तरफ आती झूठी मुस्कानों को ,
जला देने का दिल करता है।
क्या मालूम कभी जला भी दूँ ?
होंठ जलें तो माफ़ करना।

मुझसे हर बात में साथ ,
की उम्मीद मत रखना |
क्या मालूम मैं कभी ना दूँ ?
चोट लगे तो माफ़ करना |

मैं हर वक़्त सच्चा ,
तुम्हारे लिए अच्छा नहीं हो सकता |
क्या मालूम कभी बदल जाऊं ?
धोखा लगे तो माफ़ करना |

मैं हमेशा तुम से खुश रहूँ ,
मीठा बोलूं , या चुप रहूँ |
क्या मालूम क्या उगल जाऊं ?
तेज़ लगे तो माफ़ करना |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 27 जुलाई 2010

मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी

अपने आज के टूटे हुए (इश्वर की कृपा से) केवल मोच खाए पैर पर एक गढ़वाली कविता का प्रयास ,


हे मेनेजर बोडाजी ,
हला टीम लीड भैजी |
मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी ,
बल मेरु खुट्टा छ टुटी |

आजौं हस्पताल गयी थौ ,
वखी एक्स रा करयाई |
उ मर्जाणु मा कछु नि आई ,
पर आप मेरा दगड़ा न करा कुट्टी ,
मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी |

मी जानदौं काम बीजाण छ ,
पर सबसा पहली अपना प्राण छ |
यूँ न हुई कदी मेरा गैल ,
काम का वास्ता , गुम हुई लटटी पट्टी ,
मिन सुद्दी नि मारी छुट्टी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 24 जुलाई 2010

मैंने,खुश रहना सीख लिया है |

रो-रो न थकता है जग ,
चीखते, चिल्लाते हैं सब |
ऐसी सभा में मैंने ,
चुप रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

जब सब ही यहाँ विद्वान हैं ,
छलक छलक आता ज्ञान है |
इन सब पंडों के बीच मैंने ,
मूर्ख रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

मुद्रा के पीछे भाग रहे सब ,
निन्यानवे के फेर में जाग रहे सब |
इस मृग तृष्णा से परे मैंने ,
संतुष्ट रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

आगे बढ़ने की होड़ हो ,
या पीछे होने की चिल्ल पौं |
इन सबसे ऊपर उठ मैंने ,
शांत चित्त रहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

आज लाभ है , कल हानि है ,
धूप- छाँव , आनी- जानी है |
एक समान भाव से मैंने ,
सुख - दुःख सहना सीख लिया है |
मैंने, खुश रहना सीख लिया है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 21 जुलाई 2010

जीवन सैशे में !

अधिकाधिक भारतीयों के अनुरूप अपनी दिनचर्या का भी, " सैशे " एक अभिन्न अंग है ,
उसको ही लेकर, थोड़ा सा उसकी प्रसिद्धी का, अनुचित उपयोग कर रहा हूँ ...

कठोर, निठुर ये जग है ,
विषाक्त, विषैले जन सब हैं |
कैसे मिले उन्मुक्त जीवन ऐसे में ,
ले लीजे , जी लीजे , जीवन "सैशे" में|

कर लगता है श्वांस पर ,
घोड़ा मैत्री रखता घास पर |
कितना भी व्यय करिए पैसे में ,
मिलेगा यही ,जीवन "सैशे" में |

सप्ताह , माह , जीवन पर्यंत ,
इसके श्रृंगार का युद्ध, द्वंद्व |
करते जों बन पड़ता जैसे में ,
पर फल इतना सा ? जीवन "सैशे" में|

व्यतीत करिए हंस कर या रोकर ,
होनी तो रहेगी ही हो कर |
कब आयें यमराज विचित्र वेशे में ,
निचोड़ डाले बचा खुचा, जीवन "सैशे" में |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 16 जुलाई 2010

मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

मेरा घर , मेरा परिवार , मैं ,
ये कुशल हैं , तो मैं चंगा हूँ |
मेरी यही सोच है ,
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

पहले कुटुंब होते थे ,
संबंध लम्ब , अति लम्ब होते थे |
किन्तु सब धूमिल इतिहास है ,
कूपमंडूक बन , कुँए के रंग में रंगा हूँ |
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

कभी मुझे प्रभु का भय था ,
अब प्रभु को मुझसे भय है |
पाप कर सब सिद्धियाँ पाकर ,
मैं विष्णु, मैं महेश, मैं ही ब्रह्मा हूँ |
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

किन्तु न्याय का वार अकाट्य है ,
भान है मुझे , मेरे जों ये नाट्य हैं ,
इनका प्रतिफल अवश्य मिलेगा |
भर गया है घड़ा, तब भी धुन में रमा हूँ ,
मैं हूँ आज का मानव , मैं अँधा हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 13 जुलाई 2010

ये दुनिया एक पागलखाना !

अँधा सा युग है ,
नंगा सा ज़माना ,
बेगानी शादी है ,
अब्दुल्ला दीवाना ,
ये दुनिया एक पागलखाना !

कहीं अजीब कपड़ो की सनक ,
बदनामी से नाम की ललक |
बात करने का सज नहीं ,
बने हैं सबसे बड़े सयाना |
ये दुनिया एक पागलखाना !

रोज़ यहाँ नयी नौटंकी ,
उलटी, सीधी , ढंग बेढंगी |
कोई कहीं बयान दे देता ,
कहीं दाखिल होता हलफनामा ,
ये दुनिया एक पागलखाना !

हर कोई अपने आप को अज़ीम है ,
दवा नहीं मालूम पर सब हकीम हैं |
मर्ज़ एक है , अब क्या छुपाना ,
क्या अपना और क्या बेगाना ?
ये दुनिया एक पागलखाना !


इतने पे भी तो बात न रूकती ,
ये दुनिया हँसाने से न चुकती |
मियाँ जिंदा हैं चाक चौबंद ,
किसी ने कर दिया पंचनामा ,
ये दुनिया एक पागलखाना !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 22 जून 2010

I am ...

The world is cool,
i am cold.
I am a loser,
have been told.

People speed ahead of me,
laugh, make jest of me.
It can't get any better,
being jerk is fact of the matter.

You remember "Merchant of Venice",
there was a fool Launcelot.
I dont know how he looked,
people say i resemble him a lot.

As i dont mingle much,
neither sing a jingle such,
that would raise an ear or two.
Let me just bore you,
that's best i can do.
that's best i can do.

Akshat Dabral
Nihshabd.

रविवार, 13 जून 2010

मुस्कुराइए, आप "सिंगल" हैं |

एक बंधु ने प्रायः कोई विज्ञापन देखकर मुझसे कहा, "मुस्कुराईये, आप लखनऊ में हैं |"
उसी निश्छल भाव को लेकर स्वयं, व अपने सभी (ब्रितानी भाषा में) "सिंगल" मित्रों के लिए एक प्रयास ...

मुस्कुराइए, आप "सिंगल" हैं |
दूरभाष , समय नाश , कटु भाष ,
इन सब से परे हैं |
आह ! जीवन से भरे हैं |

आपके समक्ष इत्र फुलेल के पचड़े ,
इस्त्री किये कपड़े ,
बिना बात के लफड़े ,
ये सब विफल हैं ,
मुस्कुराइए, आप "सिंगल" हैं |

आप मन के स्वामी हैं ,
बेलगाम अश्व की तरह |
कोई सेवा नहीं करते ,
बाकी आधे विश्व की तरह |

इश्वर की कृपा है , नौकरी , वेतन है |
सौ प्रतिशत व्यय करिये मन से ,
क्यों दीजिये फूल, आभूषण , भेंटें ?
आप तो सदैव ऊपर हैं इनसे |

आपको तिथियाँ स्मरण की बाधा नहीं है ,
आप न कृष्ण हैं , कोई राधा नहीं है |
आपका जीवन कितना सरल है ,
मुस्कुराइए, आप "सिंगल" हैं |

अक्षत डबराल
"निशब्द"

शुक्रवार, 11 जून 2010

कवि हृदय |

कवि हृदय मनुष्य का नहीं ,
एक अलग नसल का है |
कभी दुःख में भी सुखी रहता है ,
कभी सुख में भी व्याकुल रहता है |

ये शब्दों का एक गोदाम है ,
भावनाओं से तपता रहता है |
उमड़ घुमड़ कर शब्द आते ,
सब आप ही छपता रहता है |

यूँ किसी को फूल , फूल ही लगता ,
ये पूरी कविता कह जाता |
खींच लाता प्रसंग, भाव, अर्थ ,
गागर में सागर कह जाता |

इसकी दीवारें सुर्ख लाल ही नहीं ,
सातों रंगों से रंगी हैं |
आज काली , उदास हैं ,
कल ख़ुशी से खिली , बसंती हैं |

इसे हर चीज़ में कविता दिखती है ,
और लय का ध्यान रहता है |
कवि हृदय बुढता नहीं ,
हमेशा जवान रहता है ,
हमेशा जवान रहता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द

सोमवार, 24 मई 2010

उस चीज़ को घर कहते हैं ...

जिस दुनिया में ,
तन नहीं मन रहते हैं |
जिस जगह आप,
आप बनके रहते हैं |
उस चीज़ को घर कहते हैं |

सामान से नहीं ,
ऐशो आराम से नहीं |
जहां बस साथ होने से ,
ख़ुशी के दरिये बहते हैं |
उस चीज़ को घर कहते हैं |

जिस छाँव को पाने को,
इंसान भागे फिरते हैं |
दूर होकर ही पता लगता है ,
किस चीज़ को घर कहते हैं ....

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 8 मई 2010

दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी ...

इंसान क्या ढूंढता है ?
बस दो बूँद ज़िन्दगी |
उम्र बीत जाती है ,
पर न मिलती ,
दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी |

कभी रंग कम लगता है ,
कभी बस गम लगता है |
ज़िन्दगी को जितना करो ,
सब कम लगता है |

थक जाता है इंसान ,
इसकी तलाश में |
एक एक बाल पक जाता है ,
इसी पशोपेश में |

आखिरी वक़्त तक भी ,
पाना चाहता है उसको |
कंधे पर सर रखकर ,
आप बीती सुनाना चाहता है उसको |

सुना , फ़कीर कहते हैं ,
इस चीज़ की बहुत है संजीदगी |
खुदा एक बार को मिल सकता है ,
पर न मिलती दिल अज़ीज़ ज़िन्दगी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 30 अप्रैल 2010

मुझे शिकायत है ...

ऐ बूंदों ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
जब पड़ती हो , बस तन तरती हो |
मन बेचारा जो प्यासा है ,
उसपर कहाँ कब झरती हो ?

ऐ हवा ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
मस्त मौला हो जब बहती हो ,
मुख को चूम चूम रहती हो ,
मन बेचारा जो जलता है ,
उससे कब कुछ कहती हो ?

ऐ खुशबू ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
मंत्र मुग्ध जब कर देती हो ,
सब कुछ सुगन्धित कर देती हो ,
मन बेचारा जो सादा है ,
उसे कब छू देती हो ?

ऐ मदिरा ,
मुझे तुमसे शिकायत है |
नशा भरपूर कर देती हो ,
गम भुला ज़रूर देती हो ,
मन बेचारा गम में जगता है ,
उसे कब सुला देती हो ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शिवी भाई की अनुकम्पा से एक लैपटॉप व ब्रॉडबैंड की व्यवस्था हुई है ,
इसी सुर में प्रस्तुत है यह राधा श्याम का एक छोटा सा गीत ...

श्याम :
राधा राधा ,
तेरा श्याम तेरे बिन आधा ,
आधा सा दिन , आधा जीवन ,
आधा सोया , आधा जागा,
तेरा श्याम तेरे बिन आधा |

राधा :
दूर हूँ तुमसे , दूर है सूरज ,
दूर हैं रातें , दूर हैं शाम |
तुमसे ही तो मेरी हस्ती , तुमसे ही मेरा नाम ,
तुमसे ही, तुमसे ही , तुमसे ही मेरे श्याम |

श्याम :
प्रीत जों इतनी गर है मुझसे ,
पास नहीं , क्यूँ दूर है मुझसे ?
तकता हूँ इन राहों को ,
कभी जों तो तू निकले इनसे ?

राधा :
ऐसा नहीं, की मुझे प्रीत नहीं ,
पर मेरी चाहत , तुम समझे नहीं |
जों कह दूँ तो क्या बात रही ,
बिन कहे जों मैंने बात कही |

श्याम :
बस बातें बनाना बहुत हुआ राधा ,
इंतज़ार मत करवाओ ज्यादा |
देखो अब तो जग भी कहता ,
राधा , तेरा श्याम तेरे बिन आधा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

बहुत दिनों से रोके रखा है ,
दिल में लफ़्ज़ों के सैलाब को |
पर अब न रोक सकता हूँ ,
कलम चलाने से जनाब को |

रोज़ लिखने की ज़िद करता है ,
बच्चों सी बेहद करता है |
हर कोई नहीं समझा सकता हुज़ूर ,
इस काम में बड़ा तज़ुर्बा लगता है |

बड़ा बेकरार है ये ,
अपनी दास्तान सुनाने को |
मजबूर कर बिठा दिया मुझे ,
अरमां अपने निकालने को |

आज लिख ले तू ,
कर ले पूरी अपनी हसरत |
कल यूँ न हो कि दिल तो रखा ,
पर कैद में रखा बेचारे को |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 18 अप्रैल 2010

हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

गर्भ में तेरे लावा भरता जा रहा ,
मनुष्य का मर्म मरता जा रहा |
पावन था तू , अब दूषित है |
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

जन्म लिया मुनियों ने यहीं ,
दैत्य भी कुछ हुए थे कहीं |
पर अब क्यों हर नर, पिशाच होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

तेरी नदियाँ कभी माता थीं,
अन्नदाता , प्राणदाता थीं |
पर अब क्यों उनका आँचल, काला होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

तेरे सागर जों की अब मृत हैं ,
इन्हीं सागरों से बना अमृत था|
अब क्यों लगता प्रलय निकट है , घोर कलियुग होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

बंधन कभी अटूट होते थे ,
इश्वर से भी इतर होते थे |
पर अब क्यों बस नाम मात्र हैं , सब औपचारिक होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?

यूँ लगता है चक्र चाल है ,
इस विश्व का ये अंत काल है |
बहुत बढ़ गया पाप यहाँ , नया युग आवश्यक होता जा रहा ?
हे विश्व , तू कहाँ जा रहा ?


अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 20 मार्च 2010

बस उस दिन को जिया करता हूँ |

मेरा एक नन्हा सपना है ,
उसको मैं छुपा कर रखता हूँ |
दुनिया की नज़रों से बचाकर ,
सीने में लुका कर रखता हूँ |

नाम से ही टूट न जाए ,
हौले से पुकारा करता हूँ |
कहीं कोई चुरा न ले मुझसे ,
मन ही मन में डरता हूँ |

अपने उस सपने को लेकर ,
क्या कुछ नहीं करता हूँ |
सच हो जाए एक दिन ,
बस उस दिन को जिया करता हूँ |
बस उस दिन को जिया करता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 11 मार्च 2010

कैसी कैसी तकदीरें ?

काम का भारी बोझ कहीं ,
आराम की सारी सोच कहीं |
कहीं राजा , कहीं फकीरें ,
कैसी कैसी तकदीरें ?

कोई हाथ पे लिखा लाया ,
कोई माथे पे छपा लाया |
बनती बिगड़ती तस्वीरें ,
कैसी कैसी तकदीरें |

कहीं ख़ुशी का सूरज न डुबता,
कहीं एक तारा भी न उगता |
कहीं यौवन, कहीं लकीरें ,
कैसी कैसी तकदीरें |

कहीं किसी की चांदी कटती ,
कहीं ता उम्र क़र्ज़ में कटती |
हिसाब ज़िन्दगी , इनाम रसीदें ,
कैसी कैसी तकदीरें |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 13 फ़रवरी 2010

जो उस कारण को जी जाओ|

लक्ष्य बनाओ , ध्यान लगाओ ,
चलते, बस चलते जाओ |
संकल्प करो , हठ लगाओ ,
चलते, बस चलते जाओ |

रस्ते रस्ते , चलते चलते ,
जों पग कभी थमने लगे |
हृदय में जो बवाल उठे ,
और ध्येय डिगने लगे |

स्मरण करो अपने लक्ष्य को ,
चिर परिचित स्वप्न अक्षय को |
दृष्टि उठाओ फिर यूँ ,
गंतव्य दिखा दे जो विश्व को |

मरुस्थली है , चले जा रहे ,
कुछ चिन्ह तो दो रेत को |
मरणोपरांत भी ध्यान करे कोई ,
कुछ तो ऐसे संस्मरण हों |

क्यों मिला यह विश्व , यह जीवन ?
इसका कारण खोज लाओ |
और सफल है यह जीवन ,
जो उस कारण को जी जाओ |
जो उस कारण को जी जाओ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

तो फिर क्या जिया ?

दीप बन कर जियो ,
जल जल कर जियो ,
थोड़ा उजाला न किया ,
तो फिर क्या जिया ?

धुंआ बन कर जियो ,
उड़ उड़ कर जियो ,
कोई कोना काला न किया ,
तो फिर क्या जिया ?

शेर बन कर जियो ,
पर 'उससे' डर कर जियो ,
कमज़ोर का शिकार किया ,
तो फिर क्या जिया ?

एक मिसाल बन कर जियो ,
एक नाम बन कर जियो ,
जीतेजी जग ने भुला दिया ,
तो फिर क्या जिया ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 30 जनवरी 2010

पर चलता हूँ ....

जाने कितना मेरा सफ़र है ,
दिन का ये कौन सा पहर है ?
जग, नींद से अंख मलता हूँ ,
थकता हूँ, पर चलता हूँ |

कभी रेत से पाँव हैं जलते ,
कभी ठण्ड से कांप न थमते ,
कभी बिजली से लड़ता हूँ ,
थकता हूँ , पर चलता हूँ |

कुछ एक हमसफ़र मिले ,
उनसे हँस मिलता हूँ |
रस्ते अलग हो ही जाते हैं ,
रोता हूँ , पर चलता हूँ |

ख्वाब देखा था कभी ,
बहुत आगे जाने का ,
उसी ख्वाब के लिए जलता हूँ ,
रुकता हूँ , पर चलता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 25 जनवरी 2010

आज साथ साल हुए पूरे ,
आओ संकल्प लें, खतम होंगे काम अधूरे |
शान्ति बसेगी भारत वर्ष में ,
अलग होगी सूरत अगले बरस में |

पर सिर्फ शब्दों से दुनिया नहीं चलती,
बिना आग के तो मोम भी नहीं गलती |
कुछ न कुछ करो ,
यूँही बातों से कोई क्रान्ति नहीं चलती |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

फलक देख !

क्यूँ देखता है जमीं को ?
नज़र उठा फलक देख !
क्या तपता , चमकता सूरज है ?
सर उठा , झलक देख !

हार मानकर बैठा है क्यूँ ?
चीटीं को जीतने की ललक देख !
औरों को मुश्किल नहीं क्या ?
उनकी उम्मीदों भरी पलक देख !

गिलास खाली नहीं , आधा भरा है क्या ?
कभी दुनिया से अलग देख !
कभी जला है जुनून की आग में ?
खुद पर जगा के अलख देख !

क्यूँ देखता है जमीं को ?
नज़र उठा फलक देख !
नज़र उठा फलक देख !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"