शनिवार, 17 दिसंबर 2011

खानाबदोश

मेरे खानाबदोश होने में कोई दोष नहीं ,
 मुझे ज़िन्दगी का नशा है ,
ज़माने का कोई होश नहीं |
यही है मेरे जीने का अंदाज़ ,
और इसका मुझे कोई अफ़सोस नहीं |

कब बैठा हूँ मैं थककर ,
कब चला हूँ मैं रूककर |
रुकना मेरी फितरत नहीं ,
झुकना मेरी फितरत नहीं |
जो है , जैसा है , वही सही ,
नहीं है, वो मेरी किस्मत नहीं |

कितना खुद को कोसोगे ,
कितनी देगो रब को गाली ?
जब खुद लिख सकते हो नसीब को ,
क्यों भरोसे रखते हो खाली ?
दम भर कर क्यों नहीं कहते ,
ज़िन्दगी जियेंगे शेरों वाली |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 4 अक्टूबर 2011

सड़कों पे भागती ये बेबसियाँ ,
खम्बों से लिपटी सिसकियाँ |
है हर कोई मजबूर लेकिन ,
भगातीं हैं ये मजबूरियां |

यूँ तो कोई किसी का दास नहीं ,
सबकुछ किसी के पास नहीं |
लाख कर कोशिश ख़ास बनो ,
पर तुम आम ही हो , ख़ास नहीं |

दौड़ा लो हसरत के घोड़े ,
पर सह लेना नसीब के कोड़े |
जब तुलेंगे ये दोनों कहीं ,
भारी होंगे कोड़े , और हलके घोड़े |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 6 अगस्त 2011

कैसे जान पहचान करूँ ?

एक अजनबी सा है दिन, कैसे जान पहचान करूँ ?
एक अजनबी सी है पहर, कैसे जान पहचान करूँ ?
एक अजनबी सा है साया, कैसे जान पहचान करूँ ?

एक अजनबी सी है हवा, कैसे जान पहचान करूँ ?
एक अजनबी सी है फिज़ा, कैसे जान पहचान करूँ ?
एक अजनबी सा है समां, कैसे जान पहचान करूँ ?

एक अजनबी सी है शाम, कैसे जान पहचान करूँ ?
एक अजनबी सा है जाम, कैसे जान पहचान करूँ ?
एक अजनबी सा है नाम, कैसे जान पहचान करूँ ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

जवाब दे गयी

इन्हीं आँखों ने तेरा रस्ता तका था ,
आज इनकी हिम्मत जवाब दे गयी |
इन्हीं आँखों ने तेरा ख्वाब देखा था ,
आज इनकी शिददत जवाब दे गयी |

इन्हीं हाथों की लकीरों ने तुझे माँगा था ,
आज इनकी किस्मत जवाब दे गयी |
इन्हीं हाथों से अर्जी लगाई थी तेरे वास्ते ,
आज इनकी रिश्वत जवाब दे गयी |

इन्हीं पलकों पे रखना चाहा था तुझे ,
आज इनकी रहमत जवाब दे गयी |
इन्हीं पलकों को बिछाना चाहते थे ,
आज इनकी शराफत जवाब दे गयी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 23 जुलाई 2011

I always

I always chased success,
success never chased me.
This makes it far greater,
and me, smaller as i can be.

I always chased contentment,
contentment never chased me.
Had i been content with things in hand,
I would have been left far behind.

I always chased dedication,
dedication never chased me.
All of it i have, is just traces,
much is required,to win life's races.

-Akshat Dabral

गुरुवार, 21 जुलाई 2011

Excellence they say,
comes at a price.
Not just once,
you need to try twice,thrice.

You never know,
what all it takes.
But you should always know,
what is at stake.

Try been different,
each time you fail.
For stormy might be the sea,
but the boat must sail.
but the boat must sail ...

-Akshat Dabral

सोमवार, 18 जुलाई 2011

बस चंद सरफ़रोश चाहिए |

दया नहीं , अनुदान नहीं ,
बस शक्ति और जोश चाहिए |
इस देश को कुछ नहीं ,
बस चंद सरफ़रोश चाहिए |

मेहनत और इमानदारी का जों इत्र लगाते ,
सुबह कफ़न पहन कर जों निकल जाते |
ऐसे रणबाकुरों का एक कोष चाहिए ,
इस देश को कुछ नहीं ,
बस चंद सरफ़रोश चाहिए |

विपरीत स्तिथि में न डिगे जों ,
ऐसे कदम ठोस चाहिए |
हर एक ललकार को अब ,
सिंहनाद का उद्घोष चाहिए |
इस देश को कुछ नहीं ,
बस चंद सरफ़रोश चाहिए |

विरोध में उठती हुई ,
हर आवाज़ खामोश चाहिए |
इस देश को कुछ नहीं ,
बस चंद सरफ़रोश चाहिए |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

अक्षत डबराल

शनिवार, 16 जुलाई 2011

पाने की ख़ुशी

जीवन पाने की ख़ुशी,पूछिए एक पेड़ बाँझ से |
सुहागन होने की ख़ुशी,पूछिए एक सुन्दर सांझ से |

सफलता पाने की ख़ुशी,पूछिए एक चींटी से |
घर लौट आने की ख़ुशी,पूछिए एक पंछी से |

सहारा पाने की ख़ुशी,पूछिए एक नाज़ुक बेल से |
अंत हो जाने की ख़ुशी,पूछिए बच्चों के खेल से |

सूर्य पाने की ख़ुशी,पूछिए एक सूरजमुखी से |
और ख़ुशी पाने की ख़ुशी,पूछिए एक इंसान दुखी से |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 15 जुलाई 2011

कुछ मदिरा का दोष था ,
हमें भी कम होश था |
आस पास देखा तो ज़रूर ,
पर न दिखा कोई जों दोस्त था |

एक साथ की आस थी ,
पर परछाई तक न पास थी |
किससे कहते अपने सपने , दर्द ,
मेरे साथ बस मेरी धड़कन , मेरी सांस थी |

पर किस्मत , नीयत , होनी ,
किस किस को कोसते रहें |
जों होना था , वो हो गया ,
हम आप बस बैठे सोचते रहें |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 9 जुलाई 2011

मैंने खुद को आईने में देखा , तो ये ख्याल आये

अरे आईने में रहने वाले भाई साहब ,
आपका जुड़वां भाई दिखा था आज ,
क्या कुछ रहा है चल ,
बहुत खुश रहता है आजकल |

मुझे देख के आईने में ,
नज़रें चुरा लेता है सफाई से |
क्या है ये माज़रा ,
कभी पूछिए अपने भाई से |

मुझसे कुछ कहता नहीं ,
आपसे तो कहता ही है |
मेरा तो बस वो हमशक्ल है ,
आपसे तो उसका रिश्ता भी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 8 जुलाई 2011

ये चंद

ये चंद सिक्के ही तो हैं, जिन्होंने मुझे ऐसा बना दिया |
मैं इतना बेदर्द तो कभी न था |

ये चंद स्वार्थ ही तो हैं , जिन्होंने मुझे ऐसा बना दिया |
मैं इतना खुदगर्ज़ तो कभी न था |

ये चंद लोग ही तो हैं , जिन्होंने मुझे ऐसा बना दिया |
मैं इतना पत्थर तो कभी न था |

ये चंद बातें ही तो हैं , जिन्होंने मुझे ऐसा बना दिया |
मैं इतना बदतर तो कभी न था |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 6 जुलाई 2011

आखिर ये "मैं" कौन है ?

रोज़ रोज़ मुझसे लड़ता है , आखिर ये "मैं" कौन है ?
बात बात में बिगड़ता है , आखिर ये "मैं" कौन है ?

हर चीज़ में अपनी राय देता , आखिर ये "मैं" कौन है ?
हरदम अहम् कि दुहाई देता , आखिर ये "मैं " कौन है ?

मेरे साथ ही क्यूँ है सटा, आखिर ये "मैं" कौन है ?
कैसे मिला मेरा पता , आखिर ये "मैं" कौन है ?

क्यूँ मैं इसकी बात सुनूँ , आखिर ये "मैं" कौन है ?
क्यूँ न मैं कोई और बनूँ , आखिर ये "मैं" कौन है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 5 जुलाई 2011

What else can i dream ?

A long road to a small hut atop a hill,
anyone can knock and come at will.
A place where the rain sings and the winds scream,
What else can i ask for, what else can i dream ?

All around are the slopes mystique,
some giant, some slow, some steep.
The hills look like a fort supreme,
What else can i ask for, what else can i dream ?

Mountain breeze is the fastest friend,
knows no boundaries, knows no end.
I know that its all my team,
What else can i ask for, what else can i dream ?

Lonely walks down the tree lane,
some grow orderly, some totally insane.
And brushes by their side a youthful stream,
What else can i ask for, what else can i dream ?

The lush green pastures way too scenic,
for my forever joy, forever picnic.
And when the dew drops in the sunshine gleam,
What else can i ask for, what else can i dream ?

I am sure that there is a place like this,
made sacred by the God's kiss.
I will see this all and thank Him,
What else can i ask for, what else can i dream ?

Akshat Dabral
"निःशब्द"

रविवार, 3 जुलाई 2011

क्या किसी कि काबिलियत ,
तुल सकती है उसके इत्र कि सुगंध से ?
क्या किसी का बड़प्पन ,
दिख सकता है उसके कपड़ों के ढंग से ?

क्या किसी के वंश का अनुमान ,
लग सकता है उसके रंग से ?
क्या किसी की सोच का संकेत ,
मिल सकता है उसके संग से ?

क्या किसी की ख़ुशी की गहराई ,
दिख सकती है उसकी उमंग से ?
और किसी की दर्द की सीमा ,
दिख सकती है माथे की शिकन से ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 29 जून 2011

कब तक

ख़्वाबों का बोझ था ,
आँखें कब तक सहतीं |
जाने किस का दोष था ,
पलकें कब तक कहतीं |

उसके आने कि आस में ,
राहें कब तक रहतीं |
इन साँसों में घुली ,
आँहें कब तक रहतीं |

थोड़ा ही था पानी उनमें ,
धारा कब तक बहतीं |
चुप ही हैं सब हवाएं ,
अपनी कब तक कहतीं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 24 जून 2011

पुष्प बनो !

लाख दुःख सहने होंगे ,
सदा कांटे ही लगे होंगे ,
पर इन समान न तुच्छ बनो ,
फूलो , खिलो , पुष्प बनो !

एक से ही दिखते हैं सब ,
विष उगलते अजब अजब ,
इनसे तो भिन्न कुछ बनो ,
महको , चहको , पुष्प बनो !

इनके मर्म में नमी नहीं ,
द्वेष अग्नि कि कमी नहीं ,
तुम न हृद्य शुष्क बनो ,
दुर्लभ , सुरभित , पुष्प बनो !

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 22 जून 2011

Every day is a hike too steep,
so in your arms O lord,
let me weep,sleep.

Sleep as i know nothing,
sleep as i owe nothing,
sleep as i own nothing.

You are always there for me,
I am never there for you,
I always lie, you always speak true.

All i want is that,
whatever be the situation,
you always see me through।
अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 21 जून 2011

क्या करूँ ?

नैनो को तो सुला देता हूँ ,
इन सपनों का क्या करूँ ?
रात में देखता है हर कोई ,
दिन में दिखने का क्या करूँ ?

कभी भुलाना चाहता हूँ इनको ,
पर इन यादों का क्या करूँ ?
दूर छोड़ आता हूँ रोज़ इन्हें ,
मेरा पीछा करने का क्या करूँ ?

अब ये मेरे साए से जुड़ गए हैं ,
इस परछाई का क्या करूँ ?
हाँ है तो ये सच्चाई ,
पर इस सच्चाई का क्या करूँ ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 19 जून 2011

क्यों ?

क्यों नैनों की कोई किताब नहीं ?
क्यों सपनों का कोई हिसाब नहीं?
क्यों ज़िन्दगी है एक सवाल हमेशा ?
क्यों इस सवाल का कोई जवाब नहीं ?

क्यों अरमानों का घड़ा न भरता ?
क्यों गुज़रते वक़्त से मन डरता ?
क्यों लगती कुछ कमी हमेशा ?
क्यों बातों से खालीपन झड़ता ?

क्यों टकराते हैं कुछ अहं ?
क्यों कुछ चेहरे न होते सहन ?
क्यों पहने हैं नकाब हमेशा ?
क्यों बजते हैं यूँ जेहन ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 18 जून 2011

दो ...

दो रास्तों को मिलने के लिए ,
कुछ कदम आने जाने होंगे |
दो ख़्वाबों को मिलने के लिए ,
कुछ अरमान आने जाने होंगे |

दो आँखों को मिलने के लिए ,
कुछ फरमान आने जाने होंगे |
दो वजूदों को मिलने के लिए ,
कुछ एहसान आने जाने होंगे |

दो कहानियों को मिलने के लिए ,
कुछ किस्से आने जाने होंगे |
दो तस्वीरों को मिलने के लिए ,
कुछ हिस्से आने जाने होंगे |

दो हाथों को मिलने के लिए ,
कुछ रिश्ते आने जाने होंगे |
दो इंसानों को मिलने के लिए ,
कुछ फ़रिश्ते आने जाने होंगे |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 17 जून 2011

काला बादल

और निकल आया हवा से लड़ता ,
बेलगाम वो काला बादल |
अपने भाई सफ़ेद बादल को ,
डरा धमका के किया बेदखल |

शोर मचाया , रौब दिखाया ,
बिजली फेंकी , अंधड़ चलाया |
बारिश को भी खूब चिढ़ाया ,
सुन सुन उसे भी रोना आया |

क्यों है ये यूँ गर्म तेल सा,
घराने कि काली भेड़ सा |
आसमान पे यूँ करता कब्ज़ा ,
मानो हो बरगद के पेड़ सा |

आना जाने कि इसकी मनमानी है ,
खुराक बस हवा पानी है |
कब बरसे कहर बने ,कब करे बस मज़ाक ,
ये कब किसने जानी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 4 जून 2011

कभी मन

कभी मन रहता है ऊन जैसा ,
जिसके रेशे उलझे रहते हैं |
कभी मन रहता है मकड़ी के जाले सा ,
ख़याल जैसे फंसते रहते हैं |

कभी मन रहता है सूखते तालाब सा ,
जिसमें थोड़े ही प्राण रहते हैं |
कभी मन रहता है गर्मी की फसल सा ,
जिसमें थोड़े ही धान रहते हैं |

कभी मन रहता है अँधेरी चौखट सा ,
एक दिए की आस रहती है |
कभी मन रहता है थके मुसाफिर सा ,
अपने सफ़र की प्यास रहती है |

अक्षत डबराल

सोमवार, 30 मई 2011

फिर मुझे एक सुबह देखनी है |

मैं सुबहों को बहुत चाहता हूँ ,
नया जीवन होता है उनमें |
सूरज को चढ़ने कि ज़ल्दी ,
चिड़ियों को उड़ने कि ज़ल्दी |
बाहर पड़ी ओस को घुलने कि ,
फूलों को खुलने कि ज़ल्दी |

पेड़ कुछ अलसाए से रहते हैं ,
ताने सुस्त से , पत्ते हकबकाए से रहते हैं |
और घास जैसे पुरानी सहेली हो ,
ऐसे खुश होती जैसे मैं उत्तर , और वो पहेली हो |

कुछ बेलें छूट जाती हैं कैद से ,
रंगीन हो जाती सफ़ेद से |
कभी हाथ बड़ा रोकना चाहतीं ,
कभी सिकुड़ जाती दूर से ही देख के |

घरों कि छतें कैसे चिढती हैं,
धूप से दिनभर पीठ सेकनी हैं |
अब सोता हूँ , कल उठना है ,
फिर मुझे एक सुबह देखनी है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 23 मई 2011

सवाल ...

कभी हवा में उड़ते ,
कभी हवा से लड़ते , सवाल |
कभी माथे से फिसलते ,
पसीने से पिघलते , सवाल |

कभी दीवार से सटे ,
कभी जमीन में पटे , सवाल |
कभी माथे में चुभते ,
जिगर में दुखते , सवाल |

कभी बौहों को उठाते ,
पलकों को उलझाते , सवाल |
कभी झंझोड़ते ,
मन को झुंझलाते सवाल |

कभी हलकी सी सिसकी ,
कभी तूफ़ान , सवाल |
कभी रज़ा का अमन चैन ,
कभी जिहाद का बवाल , सवाल |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 14 मई 2011

क्या पाया , क्या खोया ?

ज़िन्दगी टिक टिक घड़ी सी चलती ,
क्या जागा , क्या सोया ?
एक एक कर दिन ख़त्म हो रहे ,
क्या पाया , क्या खोया ?

याद करने को है बहुत कुछ ,
क्या हंसा , क्या रोया ?
तोला कभी ये क्या तूने
क्या पाया , क्या खोया ?

अपने ही है कल तेरा ,
क्या काटा , क्या बोया ?
कहाँ हैं तेरे बही खाते ,
क्या पाया , क्या खोया ?

कुछ होंगे क़र्ज़ तर्ज़ पर ,
क्या चुका , क्या ढोया ?
आ करले हिसाब ज़िन्दगी से ,
क्या पाया , क्या खोया ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

बुधवार, 11 मई 2011

फकीरों कि लटों से उलझे हैं ख्याल ,
कभी मन की उँगलियों से सुलझा लेता हूँ |
निगाहें फिर उलझा देती है इन्हें ,
थोड़ा रूककर इनपर झुंझला लेता हूँ |

मेरे चुप रहने की ये भी एक वजह है ,
बाकी तो दुनिया से छुपा लेता हूँ |
कुछ रह ही जाते हैं लम्हे उधार ,
कुछ किसी तरह मैं चुका लेता हूँ |

अक्सर मन भागा करता है बेलगाम ,
बहुत मुश्किल से इसे रुका लेता हूँ |
करता है अपनी मनमानी बेहद ,
पर किसी तरह इसे झुका लेता हूँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 10 मई 2011

तुम आओगे

क्या होगा दिन , तुम आओगे
क्या होगी रात , तुम आओगे
क्या होगी बात , तुम आओगे
क्या होंगे ज़ज्बात , तुम आओगे

क्या पजेब , क्या पाँव , तुम आओगे
क्या ज़ुल्फ़, क्या छाँव , तुम आओगे
क्या चांद का साथ , तुम आओगे
क्या बरसात कि रात , तुम आओगे

क्या सिंदूर कि लकीर , तुम आओगे
क्या नैनो के तीर , तुम आओगे
क्या लफ़्ज़ों कि खीर , तुम आओगे
क्या धड़कन कि ज़ंजीर , तुम आओगे

यूँही कहता रहूँगा , तुम आओगे
यूँही चाहता रहूँगा , तुम आओगे
कब तक देखूं , तुम आओगे
मैं तो यहीं हूँ क्या , तुम आओगे ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 9 मई 2011

कुछ ख्वाब देखे थे मैंने

कुछ ख्वाब देखे थे मैंने ,
उसमें हम तुम संग थे |
पर वो तो बस ख्वाब ही थे ,
इन्द्रधनुष थे , पर बेरंग थे |

अन्दर से जाने कैसे हों ,
बाहर खाए जंक थे |
कुछ दीखते ठीक ठाक ,
कुछ बेहद बेढंग थे |

पर ये ख्वाब ही तो दौलत हैं ,
इनके बिना सब रंक थे |
कुछ ख्वाब देखे थे मैंने ,
उसमें हम तुम संग थे |

अक्षत डबराल
"निःशब्द "

रविवार, 8 मई 2011

मैं खुद से ही भाग रहा था ...

रात रात भर , जिस चीज़ को लेकर ,
मैं जाग रहा था |
कुछ नहीं , मेरा ही साया था ,
मैं खुदसे ही भाग रहा था |

कितनी दूर , कितनी आगे जाना था ,
क्यूँ मैं बगलें झाँक रहा था ?
मेरा ही फ़र्ज़ था , मुझे ही करना था ,
और मैं खुदसे ही भाग रहा था |

खुद से किया था जों वादा ,
कहाँ मुझे अब याद रहा था ?
अपने आप से अनजान बन ,
मैं खुदसे ही भाग रहा था |

कभी आइना देखा , याद आया ,
मेरा चेहरा ऐसा नहीं था , जैसा आज दिख रहा था |
होना ही था ऐसा तो जब ,
मैं खुद से ही भाग रहा था |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 3 मई 2011

और कुछ ...

दुनिया में , कुछ लोग बस जीने को जीते हैं ,
और कुछ, सच में जी जाते हैं |

कुछ मानते हैं ज़िन्दगी को कड़वा घूँट ,
और कुछ, खुश हो पी जाते हैं |

कुछ के लिए गिलास आधा खाली है ,
और कुछ, उसे आधा भरा पाते हैं |

कुछ के लिए ये है बस एक बोझ ,
और कुछ, इसका जश्न मनाते हैं |

कुछ मानते हैं इसे बंद संदूक ,
और कुछ, खुली किताब बनाते हैं |

कहने को तो सब जीते हैं ,
और कुछ, सही में जी जाते हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 2 मई 2011

बस ख्वाब देखता है आदमी |

आदत से मजबूर है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |
चाहे उसे जों दूर है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |

सच्चाई से आँख चुराता ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |
जों कभी हो न पाता ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |

चार दिन कि ज़िन्दगी है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |
कभी हंसती कभी रोती है ,
बस ख्वाब देखता है आदमी |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 24 अप्रैल 2011

दिन शाम रात

दरवाज़े से बाहर देखा , दिन खुद को समेट रहा था |
अपनी बिछाई चादर को , मायूस सा लपेट रहा था |

शाम खड़ी थी पेड़ के पीछे ,दिन को चुपचाप देख रही थी |
धीरे धीरे बढ़ाती हाथ पाँव ,बिना आवाज़ टेक रही थी |

कुछ देर में दिन उठा , अपना सामान ले चला गया |
शाम पसर गयी बेख़ौफ़ , जैसे उसका सिक्का जम गया |

शाम ने बहुत मौज करी ,लायी शमा , परवाने ,जुगनूओं कि फौज भरी |
पर हमेशा दुनिया में ,कहो कब किसीकी चली |

बस थोड़ी ही देर में , रात हुई आ खड़ी |
शाम के रुखसत होने कि , अब आ गयी थी घडी |

रात तो फिर रात है , उसकी जुदा ही बात है |
इत्र इसका रात रानी , आइना खुद चांद है |

रात ने भी रात भर , जी भर नूर बरसाया |
पर चाहकर भी वह उसे , अमर नहीं कर पाया |

रात कि तब , फिर ख़तम हुई बात |
दिन उग आया शर्माते हुए , और सो गयी रात |

ऐसे ही चक्र में , ये जहां चलता है |
रात - शाम सोती जगती हैं , दिन चढ़ता ढलता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 23 अप्रैल 2011

बात करते करते

कुछ ख़्वाबों, कुछ हकीकत कि बात करते करते ,
दिन से शाम, शाम से रात हुई, बात करते करते |
कुछ बोला, न कुछ सुना, पर बात हुई, बात करते करते |

अक्सर उनके चेहरे को देखा , बात करते करते |
वो आँखों का झुकना मिलना , बात करते करते |
कभी बढ़ना कभी डरना , बात करते करते |

हाथ माँगना उनका रूककर , बात करते करते |
दूर निकल आना साथ साथ , बात करते करते |
ख़्वाबों के घरोंदे ,उम्मीद के पुल बनाना , बात करते करते |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

और लिखने को क्या चाहिए ?

और लिखने को क्या चाहिए ?
एक हाथ , कलम , स्याही , दवात |
और लिखने को क्या चाहिए ?
बस चाह, उत्साह , उमंग , ज़ज्बात |

और लिखने को क्या चाहिए ?
बस लय , ताल , लफ्ज़ , तुकबंदी |
और लिखने को क्या चाहिए ?
कुछ ख्याल , सवाल , जवाब सतरंगी |

और लिखने को क्या चाहिए ?
बस खुले आँख, कान , विचार |
और लिखने को क्या चाहिए ?
कुल बस खाली कागज़ चार |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 22 अप्रैल 2011

आज नींद ...

आज नींद न आई
मुझे अपने वक़्त से |
ख्वाब भी न मिले मुझे ,
आज अपने तखत से |

कुछ देर बात करी ,
बाहर खड़े दरख़्त से |
लेकिन वो भी मेरी ,
आँखों कि तरह सख्त थे |

थोड़े लम्हे भी थे पड़े ,
जों यादों में ज़ब्त थे |
कुछ बोझिल हुए उम्र से ,
कुछ जोशीले मदमस्त थे |

सब यादों को खरोंच कर ,
आँखों से सुन , सोच कर |
ले चलता हूँ इनको सुलाने ,
पस्त हुए हैं अब ये थककर |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 19 अप्रैल 2011

आँखों कि माचिस |

मेरी आँखें , माचिस कि डिबियाँ ,
तेरे ख्वाब , हैं इसकी तीलियाँ |
हर किस्म , हर ढंग में हैं ,
कुछ सादी सी , कुछ फुलझड़ियाँ |

उजाला होता आँखों में जब,
तू सजाती मुस्कान कि लड़ियाँ |
मैं ढूंढता फिर सिरे इनके ,
जोड़ता इनकी आपस में कड़ियाँ |

हर रोज़ तुझे पाने का ,
यही है मेरे पास एक जरिया |
मेरी आँखों कि माचिस ,
और तेरे ख़्वाबों कि तीलियाँ |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 18 अप्रैल 2011

जीवन

जीवन क्या है, एक बेल नहीं ?
चढ़ाई , उतरन है हर दिन ,
कुछ आसान , कुछ खेल नहीं ?
कांटे , फूलों के गुच्छे हैं ,
इनका इससे अच्छा कहीं मेल नहीं ?
हमेशा ही उड़ता पंछी कहाँ ,
क्या ये भी कभी एक जेल नहीं ?
पटरियां बिछी हैं हर जगह ,
भागती , सरकती ,
क्या ये भी एक रेल नहीं ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 14 अप्रैल 2011

मेरा मन ... आजकल


कबसे अपना कंठ दबाये ,
मैं अपना गुस्सा छुपाये ,
बैठा हूँ दुबक कर , डर कर |

सतन कि जब अति हो गयी ,
बेकाबू जब मति हो गयी ,
अब उठ चला हूँ ,
साहस कर , समभल कर |

मुझे किसी एक से बैर नहीं ,
न जग से मेरी लड़ाई है |
मेरे ही मन का है अंतर्द्वंद्व ,
जिसने ये आग लगाई है |

भीतर ही भीतर जलता हूँ ,
अनजान डगर पर चलता हूँ |
मन हुआ है विद्रोही आजकल ,
देख कर अनदेखा करता हूँ |

पर जल्दी कुछ करना होगा ,
इसपर काबू करना होगा |
सीधे हो जाए तो अच्छा है ,
वरना कोई जादू करना होगा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 11 अप्रैल 2011

ऊनें ...

ख्यालों कि सतरंगी ऊनें हैं ,
उनसे कुछ कुछ चुन लेता हूँ |
आँखों कि सलायियों में पिरोकर ,
ख़्वाबों कि स्वेटर बुन लेता हूँ |

वह उन बहुत नर्म है ,
पाक अरमानो सी गर्म है |
इसमें कई सौ रेशे हैं ,
वफ़ा है, जुनूँ है , शर्म है |

इन सबको जोड़कर , यह स्वेटर ओढ़कर ,
जब मन सोने चलता है |
चाँद कब ढलता , दिन कब चढ़ता ,
कहाँ पता चलता है ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 10 अप्रैल 2011

आप ...

आज नैनों में लौ ज़रा कम है ,
आप कुछ उजाला कर देंगे ?
बहुत लम्बा सफ़र है मेरा ,
साथी बन हौसला भर देंगे ?

तन्हाई की सीली दीवारें हैं खड़ी ,
आप इस मकान को घोंसला कर देंगे ?
कबसे हंसी न सुनी है यहाँ ,
आप यहाँ ख़ुशी का हल्ला भर देंगे ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 5 अप्रैल 2011

आसां नहीं ...

सुबह का जागा , दिन भर भागा |
शाम को लौटे ,
आधा सोया , आधा जागा |

दुनिया कि सतन , दिन भर कि थकन |
इन आँखों में , इन बाहों में |
कुछ ख्वाहिशें , कुछ सपने |
कुछ आँहों में ,कुछ राहों में |

आसां नहीं , आसां नहीं ,
सुनता हूँ दबी आवाज़ों में |
पर अनसुना कर चल देता हूँ ,
अपने ही अंदाज़ों में |
आखिर किसी को मंजिल मिली ,
कभी अपने ही दरवाजों में ?

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 4 अप्रैल 2011

क्या ...

क्या चाहूँ , तेरे काँधे का एक कोना ...
क्या मांगू , तेरे साथ का वो सोना ...
क्या कहूँ , तेरी तस्वीर का वो बोलना ...
क्या देखूं , तेरा सपनो के पट खोलना ...
क्या सुनूँ , तेरा मेरे कान में कुछ कह जाना ...
क्या सोचूं , तेरा जुल्फें खोल मेरे ख्वाबों में आना ...
क्या ढूँढू , तेरी झुकी पलकों तले वो खजाना ...
क्या छूँऊँ , तेरा मेरा हाथों को सहला जाना ...
क्या रोकूँ , तेरा आँख खुलते ही चला जाना ...

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 2 अप्रैल 2011

काश ...

काश ख्वाहिशों की कोई डाक होती ,
हम लिखकर ख़त डाल दिया करते |
काश सपनों की कोई आवाज़ होती ,
हम सुनकर भी जन्नत पा लिया करते |

काश ज़िन्दगी इतनी तेज़ न होती ,
हम कहीं थोड़ा रुक लिया करते |
काश फितरत इतनी सख्त न होती ,
हम कहीं थोड़ा झुक लिया करते |

काश कहीं थोड़ा जुड़ाव होता ,
हम वहीँ सच में बस लिया करते |
काश कहीं अपनी महफ़िल होती,
हम वहीँ सच में हंस लिया करते |

काश कहीं होता एक जहाँ ,
जों सही में अपना होता |
काश खुशियाँ ही होती बस अपनी ,
बाकी सब सपना होता |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

मेरा बिस्तर

मेरा बिस्तर ढूंढ रहा है अपना हमसफ़र ,
बहुत दिखता है ये बेसबर |
सलवटें पड़ गयीं इसपर ,
जब ये मुस्कुराया मुझे देखकर |

सुबह होते ही इससे मेरा ,
साथ छूट जाता है |
दिनभर पाबस्त खड़ा अकेला ये ,
तन्हाई से झूझ जाता है |

पर शायद अकेले ये ,
सपने लिखता रहता है |
और अपने दोस्त तकिये के ,
कानों में कहता रहता है |

बिछी हुई चादर से इसका ,
अब पुराना याराना है |
दो जिस्म एक जान हुए हैं ,
जब तक साथ है , निभाना है |

मेरा तो सपनो का जरिया है ,
आराम भरा एक दरिया है |
सिर्फ इसने ही नहीं किया इंतज़ार मेरा ,
मैंने भी दिनभर इसका किया है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 31 मार्च 2011

सा |

मन उलझा है ,
कोने में लगे जालों सा |
समय न कटता है ,
दिन भी लगे सालों सा |
सब नीरस सा है ,
सूखे पेड़ कि छालों सा |
उत्साह साथ छोड़ गया ,
गिरते पकते हुए बालों सा |
आत्म विश्वास बिखरा हुआ है ,
लड़ाई में टूटी ढालों सा |
आज भले ही लगता हूँ ,
मैं बुरे हालों सा |
पर कल फिर उठूँगा ,
एक चुनौती , कई सवालों सा |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 29 मार्च 2011

ऐसा हो ...

ओ , अपना मिलना हो तो ऐसा हो ,
दो बादलों के जैसा हो |
पिघल के हो जाएँ एक ,
सब कुछ एक जैसा हो |

... मिलना हो तो ऐसा हो |

ओ , अपना साथ हो तो ऐसा हो ,
चाँद चांदनी जैसा हो |
एक गर न हो यहाँ ,
दूजा फिर कैसा हो ?

... मिलना हो तो ऐसा हो |

ओ , अपना जीना हो तो ऐसा हो ,
एक मिसाल देने जैसा हो |
जी जाएँ कई कई ज़िन्दगी ,
एक एक पल कहानी जैसा हो |

... मिलना हो तो ऐसा हो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 26 मार्च 2011

घर ...

अक्सर याद आ जाता है घर ,
वो अपना पुराना बिस्तर |
वो सटीक तकिये की ऊँचाई ,
वो चौक का बनिया , वो हलवाई |

वो दूर से, रिश्तेदारों का आना ,
पानी की टंकी के पास, अपना पता बताना |
वो अपने कमरे के दरवाज़े की आवाज़ ,
वो जानपहचान कुछ आम , कुछ ख़ास |

वो अपनी घर की गली ,
थोड़ी कच्ची ,थोड़ी पथरीली |
वो अपने बगीचे की घास ,
आम की बौरों से आती भीनी मिठास |

और भी हैं बहुत एहसास ,
जो रह रह कर याद आते हैं |
पर जब भी माँ की याद आती है ,
तो नैन भीग जाते हैं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 25 मार्च 2011

मुस्कान , बिकती नहीं |

बहुत कमाया पैसा ,
बहुत चाहा ऐसा ,
पर इसकी दुकान दिखती नहीं |
मुस्कान , बिकती नहीं |

कुदरती होती है बचपन में ,
ज्यादा दिन टिकती नहीं |
इंसान लाख चाहता है खरीदना ,
मुस्कान , बिकती नहीं |

जिसकी चेहरे पर हो नफीस खिली ,
छिपाए ये छिपती नहीं |
फ़ौरन दिखती गर हो नकली ,
मुस्कान , बिकती नहीं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 22 मार्च 2011

इन नैनो की बात करो ...

दो नैना हैं खुली किताब से ,
इन नैनो से बात करो ,
इन नैनो की बात करो |

झुकते , उठते ,कहते सुनते ,
यादों की सौगात भरो ,
इन नैनो की बात करो |

कितने भोले , कितने पाक हैं ये ,
नैनो से ही एहसास करो ,
इन नैनो की बात करो |

हर एक अदा एक नज़म है इनकी ,
इनपर भी शायरी गुलज़ार करो ,
इन नैनो की बात करो |

थके हुए हैं पलके उठाये ,
इनपर भी थोड़ा गौर करो ,
इन नैनो की बात करो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मैं ... मेरे प्रयास

मैं चला हूँ लक्ष्य पाने को ,
सूर्य आप मुझपर दृष्टि रखना |
जों मुझे न मिले पथ आगे,
विवेक आप मार्ग सृष्टि करना |
अति हो जाए जों विपदा की आग ,
ध्येय आप वृष्टि करना |
असमंजस हो यदि मुझे ,
धर्म आप कोई युक्ति करना |
परीक्षा हो पराक्रम की ,
मनोबल आप शक्ति भरना |
अँधेरा हो अज्ञान का ,
ज्ञान आप तम हरना |
प्रयास हो जाए मेरे सार्थक ,
इश्वर आप कृपा करना |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मंगलवार, 15 मार्च 2011

रोज़...

इन सूरज को ढकती इमारतों को देखता हूँ ,
रोज़ इनका कद बढ़ जाता है |
इन बदहवास सी भागती सड़कों को देखता हूँ ,
रोज़ इन पर कुछ लड़ जाता है |

इन घरों को जगते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कुछ न कुछ कम पड़ जाता है |
इन मंदिर मस्जिदों को थकते हुए देखता हूँ ,
रोज़ जहां फरियादें सर मढ़ जाता है |

इन दीवारों को घूरते हुए देखता हूँ ,
रोज़ कहीं ध्यान गढ़ जाता है |
इन बुत से चेहरों को देखता हूँ ,
रोज़ कोई इनपे मुस्कान जड़ जाता है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

सोमवार, 14 मार्च 2011

देखो, फिर आया बसंत है |

ठण्ड की हुई छुट्टी ,
सुबह शाम दिखती बची कुची |
ये मौसम सब को पसंद है ,
देखो , फिर आया बसंत है |

स्वेटर , मौजे बंद ट्रंक में ,
अगले साल निकलेंगे ठण्ड में |
अब कुछ दिन तो आनंद है ,
देखो, फिर आया बसंत है |

होली की भी धूम होगी ,
होना हल्ला गुल्ला , हुड़दंग है |
हर तरफ छाने रंग हैं ,
देखो, फिर आया बसंत है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

रविवार, 13 मार्च 2011

कोई इधर आता नहीं |

मेरी आँखें , अब कमज़ोर हो चली हैं |
साफ़ नज़र आता नहीं |
मेरी जुबां , अब लड़खड़ाती है |
साफ़ बोला जाता नहीं |

मेरे आंसू , गालों पर छपे हैं |
कोई पोंछ जाता नहीं |
मेरी गली , अब सूनी हो चली है |
कोई इधर आता नहीं |

इस दर पर भी कभी रौनक थी |
कोई अब चेहचहाता नहीं |
कभी मनती थी यहाँ ईद - दिवाली |
कोई अब सजाता नहीं |

मुझे याद है वो पुरानी धुन |
कोई अब बजाता नहीं |
ये सूनापन, ये एकाकी |
कोई अब मिटाता नहीं |

मेरी गली , अब सूनी हो चली है |
कोई इधर आता नहीं |
कोई इधर आता नहीं |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 12 मार्च 2011

मन के ब्याहे हैं ..

मन के ब्याहे हैं ,
दूर चले आये हैं |
मंत्र फेरों के बिना ,
एक दूजे के साए हैं |
मन के ब्याहे हैं ...

न मेहँदी कि रस्म ,
न अगूंठी , न कसम |
न बाराती आये हैं ,
मन के ब्याहे हैं |
चुपचाप आये हैं ,
प्यार ही मिला दहेज़ ,
अपने साथ लाये हैं ,
मन के ब्याहे हैं ...

सात ज़न्मों का न पता ,
इनकी भी न है खता |
अभी ज़िन्दगी कहाँ जी पाए हैं ,
मन के ब्याहे हैं |
आँखों में ख्वाब लिए ,
वफ़ा का सुरूर पिए ,
बेखुद हो छाये हैं |
मन के ब्याहे हैं ...

चाँद तारों से परे ,
मीठी उम्मीद से भरी ,
अपनी हर बात लाये हैं |
मन के ब्याहे हैं |
चलना ही है आगे ,
नापनी ही है इनको |
इनकी जों भी राहें हैं ,
मन के ब्याहे हैं ...

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

मौन

दो पलों के बीच की दूरी भरता कौन ?
मौन |
बिन कहे भी बात करता कौन ?
मौन |
हर कोने में छुपा बैठा है कौन ?
मौन |
सब चले जाते हैं रह जाता है कौन ?
मौन |
बहुत होती है यारी दोस्ती आखिर भाता है कौन ?
मौन |
अकेले में रोते हैं तो साथ सिसकता है कौन ?
मौन |
आवाजें मिल जाती हैं आजकल कम दिखता है कौन ?
मौन |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

आवाज़ न दो

कभी भुला न पाऊं जो,
तुम आज वो अंदाज़ न दो |
इस रात की तन्हाई में ,
तुम आज मुझे आवाज़ न दो |

ज़ेहन में बजते रहें देर तक ,
तुम आज वो साज़ न दो |
भूले बिसरे मेरे गीतों को ,
तुम आज अपनी आवाज़ न दो |

कितनी हैं हमे बेकरारी ।
तुम आज इसका हिसाब न दो |
दिल में हैं जो आरज़ू,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो|

मेरे फ़िज़ूल की ख़्वाबों में ,
तुम आज अपना एहसास न दो |
सोने ही दो उन ख़्वाबों को ,
तुम आज उन्हें आवाज़ न दो |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शुक्रवार, 11 मार्च 2011

मेरी किस्मत

मेरी किस्मत में आराम नहीं |
क्यूंकि मैं यह खुद लिखता हूँ ,
मैं लकीरों का गुलाम नहीं |

मेरी किस्मत में वसीयत नहीं |
क्यूंकि जों बना हूँ , खुद बना हूँ ,
मांगने की अपनी तबियत नहीं |

मेरी किस्मत में रईसी नहीं |
क्यूंकि जैसी देखी है मैंने ,
ऐसी होने से, तो नहीं ही सही |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

गुरुवार, 10 मार्च 2011

दिन का हिसाब ...

रात को तनहा , जब लेटता हूँ
गुज़रे दिन के टुकड़े , आँखों में समेटता हूँ

तोलता हूँ , मैंने क्या खोया , क्या पाया ?
मैं क्या भूला , क्या साथ ले आया ?

लम्हे, कुछ देखने, कुछ फेंकने लायक
कुछ अनमने से , कुछ सहेजने लायक

इनको तोलते, हिसाब लगते जाने कब ,
मन की बहती भर जाती है

और डूबते सूरज की तरह धीरे धीरे ,
मेरी आँख लग जाती है

अक्षत डबराल
"निःशब्द"

शनिवार, 1 जनवरी 2011

साल दर साल ...

साल दर साल उम्र की दीवारें लांघता हूँ ,
पर हर दीवार के पार की घास ,
जाने क्यूँ सूखती हुई मिलती है |

साल दर साल कुछ लकीरें ,
माथे पर खिंचती जा रही हैं ,
जाने क्यूँ गहराती हुई मिलती हैं |

साल दर साल मेरी नज़र ,
किसी शीशे पे पड़ती सांस सी ,
जाने क्यूँ धुंधलाती हुई मिलती है |

साल दर साल मेरी परछाई ,
जैसे चिढ़ी है मुझसे किसी बात पर,
जाने क्यूँ झुंझलाती हुई मिलती है |

अक्षत डबराल
"निःशब्द"