हंस हंस अपना फ़र्ज़,
अदा करती हैं खाली कुर्सियां |
कितनों कितनों को मिलाकर ,
जुदा करती हैं खाली कुर्सियां |
कभी ख़ुशी के आसूं लिए मिलाती हैं ,
कभी भावुक हो ,
विदा करती हैं खाली कुर्सियां |
भरी हो तो इतरा जाती ,
खाली हो तो ,
खुशाम्दीन करती हैं खाली कुर्सियां |
सच कितना सुख दुःख ,
बाँट जाती हैं खाली कुर्सियां |
यूँ सहते अपना वक़्त ,
काट जाती हैं खाली कुर्सियां |
जब तक चलती , ज़रा न खलती ,
आँगन में खाली कुर्सियां |
जहाँ टूटी , वहां चुभती ,
आँखों में खाली कुर्सियां |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 23 दिसंबर 2009
सोमवार, 7 दिसंबर 2009
क्योंकि वह गरीब आदमी है ...
हाँ , उसका दबना लाज़मी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
उसका बचपन ही बुढापा है ,
उसकी न कोई जवानी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
बेबस, लाचार ज़िन्दगी ,
छलनी तार तार ज़िन्दगी |
जीना तो मुश्किल है ,
मरने में आसानी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
कितने कितने खवाब सजाता ,
कितनी उम्मीद लगाता |
पर उसकी गुहार कब सुनी जानी है ?
सूनी सी आँखें उसकी , खाली ही रह जानी है |
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी ,
उसकी कहानी वही पुरानी है |
चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
उसका बचपन ही बुढापा है ,
उसकी न कोई जवानी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
बेबस, लाचार ज़िन्दगी ,
छलनी तार तार ज़िन्दगी |
जीना तो मुश्किल है ,
मरने में आसानी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
कितने कितने खवाब सजाता ,
कितनी उम्मीद लगाता |
पर उसकी गुहार कब सुनी जानी है ?
सूनी सी आँखें उसकी , खाली ही रह जानी है |
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
दुनिया बहुत आगे बढ़ गयी ,
उसकी कहानी वही पुरानी है |
चाह कर भी कुछ नहीं कर सकता ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है ,
क्योंकि वह गरीब आदमी है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 17 नवंबर 2009
पुराना कपड़ा
खूंटी से टंगा , वह पुराना कपड़ा ,
फिर यादें ताज़ा कर गया |
पल पल ढलती उम्र को ,
यूँ मानो आधा कर गया |
उस बेचारे का भी एक दौर था ,
वो वक़्त भी कुछ और था |
क्या मस्ती भरे थे दिन ,
जीवन ख़ुशी का शोर था |
उजला उजला दिखता था सब कुछ ,
अपना सा लगता था सब कुछ |
जों भी देखा हो सपने में ,
बस हो जाएगा सच मुच |
पर अब इस कपड़े की तरह ,
वो दिन भी पुराने पड़ गए |
जैसे टंगा है यह खूंटी पर ,
वैसे ही कोने में जड़ गए |
यूँ दिखा कर के खुदको ,
मन अनमना सा कर गया |
ले जा रहा था फिर उस वक़्त में ,
पर मैं मना सा कर गया |
वो तो ले जाएगा , मैं चला भी जाऊँगा |
बाद की याद से डरता हूँ |
ओ दोस्त तू चला जा ,
मैं न आ पाऊंगा |
मैं न आ पाऊंगा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
फिर यादें ताज़ा कर गया |
पल पल ढलती उम्र को ,
यूँ मानो आधा कर गया |
उस बेचारे का भी एक दौर था ,
वो वक़्त भी कुछ और था |
क्या मस्ती भरे थे दिन ,
जीवन ख़ुशी का शोर था |
उजला उजला दिखता था सब कुछ ,
अपना सा लगता था सब कुछ |
जों भी देखा हो सपने में ,
बस हो जाएगा सच मुच |
पर अब इस कपड़े की तरह ,
वो दिन भी पुराने पड़ गए |
जैसे टंगा है यह खूंटी पर ,
वैसे ही कोने में जड़ गए |
यूँ दिखा कर के खुदको ,
मन अनमना सा कर गया |
ले जा रहा था फिर उस वक़्त में ,
पर मैं मना सा कर गया |
वो तो ले जाएगा , मैं चला भी जाऊँगा |
बाद की याद से डरता हूँ |
ओ दोस्त तू चला जा ,
मैं न आ पाऊंगा |
मैं न आ पाऊंगा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 4 नवंबर 2009
रुको न पथिक
सीने में लौ जलाकर, चले चलो |
एक धुन रमा कर, चले चलो| ,
मंजिल पाने के लिए है ,
रुको न पथिक , बढे चलो , बढे चलो |
क़दमों के निशाँ , छोड़ चलो |
दर्द से मुंह मोड़ चलो |
इस भाग्य के टुकडों को ,
फिर आपस में जोड़ चलो |
कौन मिला , कौन गया ,
सबसे नाता तोड़ चलो |
दौड़ है यह एक ज़िन्दगी ,
हर किसी से लगाके होड़ चलो |
आंधी आये या तूफ़ान ,
मस्तक उठाये लड़े चलो |
देखो थक कर बैठ न जाना ,
रुको न पथिक , बढे चलो , बढे चलो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द" |
एक धुन रमा कर, चले चलो| ,
मंजिल पाने के लिए है ,
रुको न पथिक , बढे चलो , बढे चलो |
क़दमों के निशाँ , छोड़ चलो |
दर्द से मुंह मोड़ चलो |
इस भाग्य के टुकडों को ,
फिर आपस में जोड़ चलो |
कौन मिला , कौन गया ,
सबसे नाता तोड़ चलो |
दौड़ है यह एक ज़िन्दगी ,
हर किसी से लगाके होड़ चलो |
आंधी आये या तूफ़ान ,
मस्तक उठाये लड़े चलो |
देखो थक कर बैठ न जाना ,
रुको न पथिक , बढे चलो , बढे चलो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द" |
गुरुवार, 22 अक्टूबर 2009
शुक्रवार, 9 अक्टूबर 2009
कलम उठायी धीरे धीरे ,
शब्द चुने हीरे हीरे |
सुर के जोड़े कुछ सिरे ,
ग़ज़ल बनी धीरे धीरे |
मोती सी कुछ बूदें लीं,
बिजली सी फुलझरियां लीं |
दिए सी टिमटिमाती ,
मद्धम लय की लड़ियाँ लीं |
फूलों से कुछ खुशबू ली ,
हवाओं से कुछ नमी ली |
चाँद से ज़मीं पे आती ,
ठंडी धुली रौशनी ली |
भावों का लेकर धागा ,
ये सब उसमें पिरो दूँ धीरे धीरे ,
सुर छलके यहाँ वहां ,
ग़ज़ल बनी धीरे धीरे |
अक्षत डबराल
शब्द चुने हीरे हीरे |
सुर के जोड़े कुछ सिरे ,
ग़ज़ल बनी धीरे धीरे |
मोती सी कुछ बूदें लीं,
बिजली सी फुलझरियां लीं |
दिए सी टिमटिमाती ,
मद्धम लय की लड़ियाँ लीं |
फूलों से कुछ खुशबू ली ,
हवाओं से कुछ नमी ली |
चाँद से ज़मीं पे आती ,
ठंडी धुली रौशनी ली |
भावों का लेकर धागा ,
ये सब उसमें पिरो दूँ धीरे धीरे ,
सुर छलके यहाँ वहां ,
ग़ज़ल बनी धीरे धीरे |
अक्षत डबराल
मंगलवार, 6 अक्टूबर 2009
I believe in self, that i'll over come,
what may come.
I believe in action, that i'll perform,
to sail every storm.
I believe in strength, that i'll gather,
as i go on farther.
I believe in spirit , that toils and toils,
and never rests.
I believe in character, that stays intact,
and never bends.
I believe in courage, that i'll stand,
till it all ends.
Akshat Dabral
what may come.
I believe in action, that i'll perform,
to sail every storm.
I believe in strength, that i'll gather,
as i go on farther.
I believe in spirit , that toils and toils,
and never rests.
I believe in character, that stays intact,
and never bends.
I believe in courage, that i'll stand,
till it all ends.
Akshat Dabral
बुधवार, 23 सितंबर 2009
आज आओ , हम तुम मिलें ,
मिलकर एक साज़ लिखें |
चुन चुन प्रेम के शब्द जड़ें ,
कोई भूली बिसरी बात लिखें |
ढलते सूरज से तुम ,
थोडी सी लाली चुरालो |
सपने सजे जों आँखों में ,
हौले से उसमें मिलादो |
मैं शाम को रोके रखता हूँ ,
तुम मद्धम गजलें कहती रहो |
अब न रुको , न थमो तुम ,
बस बहो , बहती रहो |
लहरों की जों तरंग है , फागुन की जों उमंग है ,
सब समेट लेंगे अपने में |
भावों की ये आंधी है ,
आएगी कलम में , सपने में |
ईद जैसा इंतज़ार है ,
हुज़ूर आयें, दिखें |
ले रंग बिरंगी स्याहियां ,
मिलकर एक साज़ लिखें |
अक्षत डबराल
मिलकर एक साज़ लिखें |
चुन चुन प्रेम के शब्द जड़ें ,
कोई भूली बिसरी बात लिखें |
ढलते सूरज से तुम ,
थोडी सी लाली चुरालो |
सपने सजे जों आँखों में ,
हौले से उसमें मिलादो |
मैं शाम को रोके रखता हूँ ,
तुम मद्धम गजलें कहती रहो |
अब न रुको , न थमो तुम ,
बस बहो , बहती रहो |
लहरों की जों तरंग है , फागुन की जों उमंग है ,
सब समेट लेंगे अपने में |
भावों की ये आंधी है ,
आएगी कलम में , सपने में |
ईद जैसा इंतज़ार है ,
हुज़ूर आयें, दिखें |
ले रंग बिरंगी स्याहियां ,
मिलकर एक साज़ लिखें |
अक्षत डबराल
गुरुवार, 3 सितंबर 2009
आज शाम ढल गयी ,
कल फिर सवेरा होगा |
सूनी खंडहर आँखों में ,
ख़्वाबों का बसेरा होगा |
हंसते रोते ,जगते सोते ,
बस जिसको तू मांग रहा |
आज नहीं , न सही ,
कभी वो मुकाम तेरा होगा |
दो दिन न रुकेंगे ,
उदासी के बादल |
जल्द ही तेरे घर ,
खुशियों का डेरा होगा |
ऐसा ही न रहेगा समां,
कभी तो वक़्त तेरा होगा |
आज शाम ढल गयी ,
कल फिर सवेरा होगा |
अक्षत डबराल
कल फिर सवेरा होगा |
सूनी खंडहर आँखों में ,
ख़्वाबों का बसेरा होगा |
हंसते रोते ,जगते सोते ,
बस जिसको तू मांग रहा |
आज नहीं , न सही ,
कभी वो मुकाम तेरा होगा |
दो दिन न रुकेंगे ,
उदासी के बादल |
जल्द ही तेरे घर ,
खुशियों का डेरा होगा |
ऐसा ही न रहेगा समां,
कभी तो वक़्त तेरा होगा |
आज शाम ढल गयी ,
कल फिर सवेरा होगा |
अक्षत डबराल
सोमवार, 31 अगस्त 2009
गुज़र चुका हो दौर जिसका ,
ठहरा हुआ वो वक़्त हूँ मैं |
दुनिया के नाम लिखा ,
एक गुमनाम ख़त हूँ मैं |
धुंधले पड़ रहे हैं शब्द ,
मतलब खो रहे हैं शब्द |
कोई क्यूँ मुझे उठा पढ़े ,
एक अनजान दस्तखत हूँ मैं |
एक ज़माना गुज़रा इन आँखों के आगे ,
पर कौन मेरी अब उम्र गिने |
सैकडों घेरे लिए खड़ा,
एक बूढा दरख्त हूँ मैं |
रखे रखे पीला पड़ा ,
पुराने अखबार कि कतरन सा |
पर कौन मेरी तारीख पढ़े ,
धूल, धुँए से लथ पथ हूँ मैं |
एक ज़माने से जों ,
बिस्तर पर है बिछी |
खफा हो कर जों मुझसे ,
मेरी तरफ पीठ कर बैठा |
माना नहीं ऐसा अड़ा ,
खाली नसीब का करवट हूँ मैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
ठहरा हुआ वो वक़्त हूँ मैं |
दुनिया के नाम लिखा ,
एक गुमनाम ख़त हूँ मैं |
धुंधले पड़ रहे हैं शब्द ,
मतलब खो रहे हैं शब्द |
कोई क्यूँ मुझे उठा पढ़े ,
एक अनजान दस्तखत हूँ मैं |
एक ज़माना गुज़रा इन आँखों के आगे ,
पर कौन मेरी अब उम्र गिने |
सैकडों घेरे लिए खड़ा,
एक बूढा दरख्त हूँ मैं |
रखे रखे पीला पड़ा ,
पुराने अखबार कि कतरन सा |
पर कौन मेरी तारीख पढ़े ,
धूल, धुँए से लथ पथ हूँ मैं |
एक ज़माने से जों ,
बिस्तर पर है बिछी |
उस पुरानी चादर की,
एक गहरी सलवट हूँ मैं |
एक गहरी सलवट हूँ मैं |
खफा हो कर जों मुझसे ,
मेरी तरफ पीठ कर बैठा |
माना नहीं ऐसा अड़ा ,
खाली नसीब का करवट हूँ मैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 26 अगस्त 2009
दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा
अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ न पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा
कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा
ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया
मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा
अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ न पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा
कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा
ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया
मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 25 अगस्त 2009
दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा
अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ न पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा
कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा
ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया
मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वो लफ्ज़ समझ नही पा रहा
ज़बान जानता हूँ वो मैं ,
पर मतलब जान नही पा रहा
अक्सर ज़िन्दगी करती है ऐसा ,
कोरे कागज़ पर लिख देती दो लफ्ज़
आड़ी तिरछी लकीरों जैसा
ढूंढ न पाता जवाब इंसां
थमा जाती एक सवाल ऐसा
कशमकश में मालूम न पड़ा ,
वजूद का चिराग बुझता जा रहा
वक्त बन रेत हाथों से ,
सर सर फिसलता जा रहा
ऐसा नहीं की इसे बूझने की ,
कोशिश नहीं कर पाया
पर जहाँ से चला था ख़ुद को ,
वापस वहीँ खड़ा पाया
मैं हारा ,
यह सवाल वाकई खूब रहा
कहने को तो , बस दो लफ्ज़ लिखे हैं कागज़ पर ,
बस वो लफ्ज़ नही समझ पा रहा
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 19 अगस्त 2009
हम तुम, एक तितली का जोड़ा |
तुम हम , हम तुम,
एक तितली का जोड़ा |
कभी थोड़ी तकरार ,
कभी प्यार थोड़ा थोड़ा |
छोटी सी ज़िन्दगी ,
छोटा ही जहाँ हमारा |
रस पीना , मस्त जीना ,
बस यही काम हमारा |
हमारे संग को ,
जो कभी नज़र लग जाए |
हम तुम जो कभी ,
अलग हो जाएँ |
यादों की गजलें ,
जो साथ साथ लिखी थीं |
उनको न कर देना कोरा |
कोई पाक किताब बनाकर उनको ,
सुनहरी जिल्त देना ओढा |
कोई पढ़ेगा , याद करेगा |
कभी था , एक तितली का जोड़ा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
एक तितली का जोड़ा |
कभी थोड़ी तकरार ,
कभी प्यार थोड़ा थोड़ा |
छोटी सी ज़िन्दगी ,
छोटा ही जहाँ हमारा |
रस पीना , मस्त जीना ,
बस यही काम हमारा |
हमारे संग को ,
जो कभी नज़र लग जाए |
हम तुम जो कभी ,
अलग हो जाएँ |
यादों की गजलें ,
जो साथ साथ लिखी थीं |
उनको न कर देना कोरा |
कोई पाक किताब बनाकर उनको ,
सुनहरी जिल्त देना ओढा |
कोई पढ़ेगा , याद करेगा |
कभी था , एक तितली का जोड़ा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 13 अगस्त 2009
मैं तो ठहरा ही हूँ
मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नही आए
तुम्हें कितने ख़त लिखे , मिटाए
मैं शायद समझा न पाया ,
और तुम समझ न पाये
आज की नहीं , यह बात पुरानी है
आंखों से कितनी बार कही ,
पर तुम सुन ही नहीं पाये
बहुत बार जताया ख़ुद को
मैं तो आस पास ही था ,
पर तुम ही देख नहीं पाये
मेरा तुम्हारा साथ हो ,
काश कभी वो दिन आए
पर आज तक ,
मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नहीं आए
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
तुम्हें कितने ख़त लिखे , मिटाए
मैं शायद समझा न पाया ,
और तुम समझ न पाये
आज की नहीं , यह बात पुरानी है
आंखों से कितनी बार कही ,
पर तुम सुन ही नहीं पाये
बहुत बार जताया ख़ुद को
मैं तो आस पास ही था ,
पर तुम ही देख नहीं पाये
मेरा तुम्हारा साथ हो ,
काश कभी वो दिन आए
पर आज तक ,
मैं तो ठहरा ही हूँ , तुम ही कभी नहीं आए
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 6 अगस्त 2009
स्वीकार है , स्वीकार है |
ये जो मिली है तुझे आज ,
ये न कोई हार है |
तेरे बल का माप है ,
फिर युद्घ कि ललकार है |
शूर है तू , वीर है तू ,
कर सिंहनाद ,
स्वीकार है , स्वीकार है |
एक बार गिरने से तू ,
हारा नहीं हो जाता |
हारा वो है जिससे गिरकर,
दुबारा उठा नहीं जाता |
मत हार हिम्मत ,
ये तो पहली बार है |
चींटी भी तब चढ़ पाती ,
जब गिरी सौ बार है |
पहचान इसे , ये युद्घ की ललकार है |
शूर है तू , वीर है तू ,
कर सिंहनाद ,
स्वीकार है , स्वीकार है |
अक्षत डबराल
निःशब्द
ये न कोई हार है |
तेरे बल का माप है ,
फिर युद्घ कि ललकार है |
शूर है तू , वीर है तू ,
कर सिंहनाद ,
स्वीकार है , स्वीकार है |
एक बार गिरने से तू ,
हारा नहीं हो जाता |
हारा वो है जिससे गिरकर,
दुबारा उठा नहीं जाता |
मत हार हिम्मत ,
ये तो पहली बार है |
चींटी भी तब चढ़ पाती ,
जब गिरी सौ बार है |
पहचान इसे , ये युद्घ की ललकार है |
शूर है तू , वीर है तू ,
कर सिंहनाद ,
स्वीकार है , स्वीकार है |
अक्षत डबराल
निःशब्द
गुरुवार, 30 जुलाई 2009
शनिवार, 25 जुलाई 2009
ये ऋतु न व्यर्थ बेकार की
ये ऋतु न साज सिंगार की ,
ये ऋतु न तीज त्यौहार की |
ये ऋतु न इश्क प्यार की ,
ये ऋतु न व्यर्थ बेकार की |
जागो , उठो , रणभूमि पुकारती ,
ये ऋतु है प्रहार की |
रिपुओं के दमन की ,
पाप के संहार की |
पिया न हो लहू जिसने ,
हो शस्त्र - भाल किस काम की |
मर न मिटी हो अपने जूनून पे ,
वो जवानी बस नाम की |
उठा मस्तक , चला चल तू ,
बात कर कुछ शान की |
अभी घिस ले , पिस ले ,
कल न ये ऋतु होगी , न जवानी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
ये ऋतु न तीज त्यौहार की |
ये ऋतु न इश्क प्यार की ,
ये ऋतु न व्यर्थ बेकार की |
जागो , उठो , रणभूमि पुकारती ,
ये ऋतु है प्रहार की |
रिपुओं के दमन की ,
पाप के संहार की |
पिया न हो लहू जिसने ,
हो शस्त्र - भाल किस काम की |
मर न मिटी हो अपने जूनून पे ,
वो जवानी बस नाम की |
उठा मस्तक , चला चल तू ,
बात कर कुछ शान की |
अभी घिस ले , पिस ले ,
कल न ये ऋतु होगी , न जवानी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 17 जुलाई 2009
पिछली बारिश
एक अरसा हो गया , पानी पड़ा था इस ज़मीन पे |
बादल घिर घिर के आया था |
बिजली लपकी थी यहाँ से वहाँ |
हवा ने जी भर के उधम मचाया था |
गीली मिट्टी की खुशबू अन्दर तक सहला गई थी |
खिल उठी थी वो कलियाँ जो पहले कुम्हला गई थीं |
ठंडी ओस सी लगती बूदें , जब पड़ती थी आंखों में |
जान फूंक दी हो जैसे , मन के सूखे धानों में |
भीग भीग कर उस बारिश में , थकन सारी छुड़ा ली |
बच्चा बनकर कितनी कश्ती तैरायीं , डुबा दीं |
वो पिछली बारिश का दिन , आज भी याद आता है |
मेरी प्यास को और बढ़ा जाता है |
आ मेघा, आज बरस जा पूरे ज़ोर से |
आज तुझे बिना बरसे , एक अरसा हो जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बादल घिर घिर के आया था |
बिजली लपकी थी यहाँ से वहाँ |
हवा ने जी भर के उधम मचाया था |
गीली मिट्टी की खुशबू अन्दर तक सहला गई थी |
खिल उठी थी वो कलियाँ जो पहले कुम्हला गई थीं |
ठंडी ओस सी लगती बूदें , जब पड़ती थी आंखों में |
जान फूंक दी हो जैसे , मन के सूखे धानों में |
भीग भीग कर उस बारिश में , थकन सारी छुड़ा ली |
बच्चा बनकर कितनी कश्ती तैरायीं , डुबा दीं |
वो पिछली बारिश का दिन , आज भी याद आता है |
मेरी प्यास को और बढ़ा जाता है |
आ मेघा, आज बरस जा पूरे ज़ोर से |
आज तुझे बिना बरसे , एक अरसा हो जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 15 जुलाई 2009
मंगलवार, 14 जुलाई 2009
ज़िन्दगी
सचमुच कितना गूढ़ सवाल है ज़िन्दगी |
कहीं शान्ति तो कहीं बवाल है ज़िन्दगी |
सड़क किनारे झुग्गी में, बेबस, लाचार है ज़िन्दगी |
कहीं शानो शौकत भरी,चाँद लगे चार है ज़िन्दगी |
कहीं बेचैनी, चिंता भरी, नींद की गोली है ज़िन्दगी |
कहीं फुटपाथ पे मस्त, निश्चिंत, भोली है ज़िन्दगी |
जवान खून का जोश लिए, कहीं रफ्तार है ज़िन्दगी |
कहीं ढलती शाम सी, झुर्रियों का हार है ज़िन्दगी |
दीन दुनिया से परे ,कहीं सन्यास है ज़िन्दगी |
कहीं मादक, रसिक, कोई उपन्यास है ज़िन्दगी |
कोने में ढका, सहेजा हुआ,पुराना समान है ज़िन्दगी |
कहीं रोज़ आकाश की, इक नई उड़ान है ज़िन्दगी |
कहीं हर घर में जाना हुआ , मशहूर नाम है ज़िन्दगी |
मगर कहीं बेनामी के अंधेरों में, गुमनाम है ज़िन्दगी |
कहीं शान्ति तो कहीं बवाल है ज़िन्दगी |
सड़क किनारे झुग्गी में, बेबस, लाचार है ज़िन्दगी |
कहीं शानो शौकत भरी,चाँद लगे चार है ज़िन्दगी |
कहीं बेचैनी, चिंता भरी, नींद की गोली है ज़िन्दगी |
कहीं फुटपाथ पे मस्त, निश्चिंत, भोली है ज़िन्दगी |
जवान खून का जोश लिए, कहीं रफ्तार है ज़िन्दगी |
कहीं ढलती शाम सी, झुर्रियों का हार है ज़िन्दगी |
दीन दुनिया से परे ,कहीं सन्यास है ज़िन्दगी |
कहीं मादक, रसिक, कोई उपन्यास है ज़िन्दगी |
कोने में ढका, सहेजा हुआ,पुराना समान है ज़िन्दगी |
कहीं रोज़ आकाश की, इक नई उड़ान है ज़िन्दगी |
कहीं हर घर में जाना हुआ , मशहूर नाम है ज़िन्दगी |
मगर कहीं बेनामी के अंधेरों में, गुमनाम है ज़िन्दगी |
बुधवार, 1 जुलाई 2009
ओ बेखबर |
ओ बेखबर , ओ बेखबर ,
दे अदा की एक नज़र |
तेरे लिए कितनी कशिश है ,
कभी तो ले ख़बर |
मन प्यासा प्यासा कबसे ,
रेगिस्ताँ सा तरस रहा |
और तू चाँद - बादल सा ,
न दिख रहा , न बरस रहा |
आ जा कभी इस ओर ,
न तारे बिछा दूँ तो कहना |
आ मिल जा मुझसे ,
न बहारें मोड़ दूँ तो कहना |
सच जहाँ मेरा ,
उस दिन सज जाएगा |
तू बेखबर , मेरी वफ़ा ,
जिस दिन समझ जाएगा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
दे अदा की एक नज़र |
तेरे लिए कितनी कशिश है ,
कभी तो ले ख़बर |
मन प्यासा प्यासा कबसे ,
रेगिस्ताँ सा तरस रहा |
और तू चाँद - बादल सा ,
न दिख रहा , न बरस रहा |
आ जा कभी इस ओर ,
न तारे बिछा दूँ तो कहना |
आ मिल जा मुझसे ,
न बहारें मोड़ दूँ तो कहना |
सच जहाँ मेरा ,
उस दिन सज जाएगा |
तू बेखबर , मेरी वफ़ा ,
जिस दिन समझ जाएगा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 29 जून 2009
आज नकद , कल उधार |
आज हर तरफ़ है यह बहार ,
आज नकद , कल उधार |
दोस्ती यारी सब बिकाऊ है ,
नीलाम हुए इश्क और प्यार |
दो मीठे बोल न मिलते ,
सब कुछ , आज नकद , कल उधार |
आपसी विश्वास का गला घुँट गया है ,
मरणासन्न हुए भाईचारा और सौहार्द |
पर ये पुरानी बातें हैं यार ,
नया फैशन , आज नकद , कल उधार |
इस निठुर दुनिया को इसमें ,
आता बहुत लुत्फ है |
आजकल इसका नारा ,
आज नकद , कल उधार ,
परसों मुफ्त है !
इसलिए भाइयों मेरी बातों पे मत जाना |
परसों सब मुफ्त मिलेगा ,
परसों आना |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज नकद , कल उधार |
दोस्ती यारी सब बिकाऊ है ,
नीलाम हुए इश्क और प्यार |
दो मीठे बोल न मिलते ,
सब कुछ , आज नकद , कल उधार |
आपसी विश्वास का गला घुँट गया है ,
मरणासन्न हुए भाईचारा और सौहार्द |
पर ये पुरानी बातें हैं यार ,
नया फैशन , आज नकद , कल उधार |
इस निठुर दुनिया को इसमें ,
आता बहुत लुत्फ है |
आजकल इसका नारा ,
आज नकद , कल उधार ,
परसों मुफ्त है !
इसलिए भाइयों मेरी बातों पे मत जाना |
परसों सब मुफ्त मिलेगा ,
परसों आना |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 26 जून 2009
सुन दोस्त |
सुन दोस्त , ग़ज़ल ये वफ़ा की ,
मैं तेरे नाम करता हूँ |
सामने तो कुछ कह न सका ,
ऐसे ही बयाँ करता हूँ |
जब पास था तू ,
न होश था कि,
तू इतना अज़ीज़ है |
और इतना दूर मुझसे ,
तू अब हो गया है |
हर चाह ,हर इंतज़ार का ,
तू सबब हो गया है |
जो मिले तू तो मुझसे ,
सब कहना चाहता हूँ |
अब न जुदा हों ,
ऐसे मिलना चाहता हूँ |
देख देख तुझको जीभर ,
लफ्जों के जाम भरता रहूँ |
तू सामने बैठा रहे ,
मैं आंखों से पीता रहूँ |
अक्षत डबराल
मैं तेरे नाम करता हूँ |
सामने तो कुछ कह न सका ,
ऐसे ही बयाँ करता हूँ |
जब पास था तू ,
न होश था कि,
तू इतना अज़ीज़ है |
और इतना दूर मुझसे ,
तू अब हो गया है |
हर चाह ,हर इंतज़ार का ,
तू सबब हो गया है |
जो मिले तू तो मुझसे ,
सब कहना चाहता हूँ |
अब न जुदा हों ,
ऐसे मिलना चाहता हूँ |
देख देख तुझको जीभर ,
लफ्जों के जाम भरता रहूँ |
तू सामने बैठा रहे ,
मैं आंखों से पीता रहूँ |
अक्षत डबराल
गुरुवार, 25 जून 2009
एक लक्ष्य मिला है |
जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |
रख रखकर देखा ख़ुद को इसमें ,
वह मनोहर दृश्य मिला है |
अब घिसने की , लड़ मरने की ,
वजह मिल गई है |
जाना है मुझे जहाँ ,
वह जगह मिल गई है |
है विशाल यह लक्ष्य पर ,
इससे ही मुझे शक्ति मिलती है |
कुछ कर गुजरने की अलख ,
मुझमें हरदम जलती है |
सच , इससे ही मेरा जीवन ,
पुष्प बन खिला है |
बहुत बदल गया हूँ मैं ,
जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
एक लक्ष्य मिला है |
रख रखकर देखा ख़ुद को इसमें ,
वह मनोहर दृश्य मिला है |
अब घिसने की , लड़ मरने की ,
वजह मिल गई है |
जाना है मुझे जहाँ ,
वह जगह मिल गई है |
है विशाल यह लक्ष्य पर ,
इससे ही मुझे शक्ति मिलती है |
कुछ कर गुजरने की अलख ,
मुझमें हरदम जलती है |
सच , इससे ही मेरा जीवन ,
पुष्प बन खिला है |
बहुत बदल गया हूँ मैं ,
जबसे मुझे जीवन में ,
एक लक्ष्य मिला है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 22 जून 2009
बस सोने आया करता हूँ |
कुछ लिखता हूँ , लिखकर ,
भूल जाता हूँ |
खींच शब्दों के दरिये को ,
उसमें डूब जाता हूँ |
जब तक कलम चलती ,
लिखता , जगता हूँ |
रुकते ही इसके ,
फ़िर सो पड़ता हूँ |
इस दुनिया से इतर ,
एक दुनिया है मेरी |
मैं सुख बस,
उसमें ही पाया करता हूँ |
अक्सर उसमें ही रहता हूँ |
इस दुनिया में तो ,
बस सोने आया करता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
भूल जाता हूँ |
खींच शब्दों के दरिये को ,
उसमें डूब जाता हूँ |
जब तक कलम चलती ,
लिखता , जगता हूँ |
रुकते ही इसके ,
फ़िर सो पड़ता हूँ |
इस दुनिया से इतर ,
एक दुनिया है मेरी |
मैं सुख बस,
उसमें ही पाया करता हूँ |
अक्सर उसमें ही रहता हूँ |
इस दुनिया में तो ,
बस सोने आया करता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
दूर भागना चाहता हूँ
मैं आज इस जग से ,
दूर भागना चाहता हूँ |
ख़ुद में उठते सवालों को ,
फूंक डालना चाहता हूँ |
अकेला था , अकेला ही अच्छा हूँ |
मुझे न कोई यार चाहिए |
सूनापन ही फबता मुझको ,
मुझे न कोई प्यार चाहिए |
कबसे हूँ यूँ तनहा , अकेला |
तुमसे नही कह सकता |
इस संसार के आडम्बर पर ,
और नही सह सकता |
इसलिए , ताले में बंद हो चाबी ,
फेंक डालना चाहता हूँ |
मैं आज इस जग से ,
दूर भागना चाहता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
दूर भागना चाहता हूँ |
ख़ुद में उठते सवालों को ,
फूंक डालना चाहता हूँ |
अकेला था , अकेला ही अच्छा हूँ |
मुझे न कोई यार चाहिए |
सूनापन ही फबता मुझको ,
मुझे न कोई प्यार चाहिए |
कबसे हूँ यूँ तनहा , अकेला |
तुमसे नही कह सकता |
इस संसार के आडम्बर पर ,
और नही सह सकता |
इसलिए , ताले में बंद हो चाबी ,
फेंक डालना चाहता हूँ |
मैं आज इस जग से ,
दूर भागना चाहता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 19 जून 2009
जीवन किताब |
मेरा जीवन कुछ नही ,
ख़ुद लिखी एक किताब है |
सफलताएं बहुत कम हैं शायद ,
गलतियां बेहिसाब हैं |
धीरे धीरे इस किताब में ,
कितने किरदार जुड़ते जाते हैं ?
दिन आते , दिन जाते ,
पन्ने बढ़ते जाते हैं !
कभी जो इसे उठाकर ,
मैं पन्ने पलटता हूँ |
यादों के दरिये में ,
मैं डूबता उतरता हूँ |
खतम हो यह किताब ,
अभी वहां नही पहुँचा हूँ |
हाँ , पर इसके कई अध्याय ,
मैं ज़रूर लिख चुका हूँ |
पढ़कर इसको लगता ,
फ़िर से सब जी रहा हूँ |
अमृत सा जीवन रस ,
मस्त हो पी रहा हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
ख़ुद लिखी एक किताब है |
सफलताएं बहुत कम हैं शायद ,
गलतियां बेहिसाब हैं |
धीरे धीरे इस किताब में ,
कितने किरदार जुड़ते जाते हैं ?
दिन आते , दिन जाते ,
पन्ने बढ़ते जाते हैं !
कभी जो इसे उठाकर ,
मैं पन्ने पलटता हूँ |
यादों के दरिये में ,
मैं डूबता उतरता हूँ |
खतम हो यह किताब ,
अभी वहां नही पहुँचा हूँ |
हाँ , पर इसके कई अध्याय ,
मैं ज़रूर लिख चुका हूँ |
पढ़कर इसको लगता ,
फ़िर से सब जी रहा हूँ |
अमृत सा जीवन रस ,
मस्त हो पी रहा हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 17 जून 2009
सपने !
जो कभी देखे थे मैंने ,
वे सपने अब भी नए हैं |
बढ़ते बढ़ते अब मेरा ,
एक हिस्सा बन गए हैं |
जो होता , करता , लिखता हूँ ,
सब पर इनका प्रभाव है |
सपने देखना , सच करने की कोशिश करना ,
अब मेरा स्वभाव है |
इनके बिना जीवन में ,
मज़ा भी तो कुछ नहीं |
मानूँ तो बहुत कुछ है इनमें ,
न मानूँ तो कुछ नहीं |
इन सपनों के खातिर जीना ,
सच, कितना अच्छा होता है |
पाँव जमीं पर पड़ते नहीं ,
जब कोई सपना सच्चा होता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वे सपने अब भी नए हैं |
बढ़ते बढ़ते अब मेरा ,
एक हिस्सा बन गए हैं |
जो होता , करता , लिखता हूँ ,
सब पर इनका प्रभाव है |
सपने देखना , सच करने की कोशिश करना ,
अब मेरा स्वभाव है |
इनके बिना जीवन में ,
मज़ा भी तो कुछ नहीं |
मानूँ तो बहुत कुछ है इनमें ,
न मानूँ तो कुछ नहीं |
इन सपनों के खातिर जीना ,
सच, कितना अच्छा होता है |
पाँव जमीं पर पड़ते नहीं ,
जब कोई सपना सच्चा होता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 16 जून 2009
हीरा बनना है !
दिन रात चलता चलता ,
अब रुक सा गया हूँ
शायद इन रास्तों के आगे ,
झुक सा गया हूँ
धीरे धीरे मेरा ,
वेग छूटता जा रहा
और थककर मेरा ,
शरीर टूटता जा रहा
अभी तो सफर मेरा ,
हुआ नही आधा भी
पर मुझसे अब आगे ,
और चला जाता नही
फ़िर भी उठता हूँ , चलता हूँ
यूँ हारकर बैठना ,
महानता का काम नहीं
मुझे तो हीरा बनना है ,
कोई कोयला आम नहीं
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
अब रुक सा गया हूँ
शायद इन रास्तों के आगे ,
झुक सा गया हूँ
धीरे धीरे मेरा ,
वेग छूटता जा रहा
और थककर मेरा ,
शरीर टूटता जा रहा
अभी तो सफर मेरा ,
हुआ नही आधा भी
पर मुझसे अब आगे ,
और चला जाता नही
फ़िर भी उठता हूँ , चलता हूँ
यूँ हारकर बैठना ,
महानता का काम नहीं
मुझे तो हीरा बनना है ,
कोई कोयला आम नहीं
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 7 जून 2009
वो कौन है ?
वो कौन है ,जो बिना कहे ,
आपकी सब बात जानती है ?
वो कौन है , जो सबसे अच्छा ,
बस आपको मानती है ?
वो कौन है , जिसने हमेशा आपको ,
अपने आँचल में ढका रखा है ?
वो कौन है , जिसने आपके लिए ,
कुछ न कुछ बचा रखा है ?
वो कौन है , जिसने रात रात भर ,
जाग आपकी सेवा की है ?
वो कौन है , जिसकी खुशी ,
आपकी खुशी ही है ?
वो कौन है , जिसकी ममता का ,
कोई ओर छोर नहीं ?
वो कौन है , जिसके प्रेम में ,
संगीत है शोर नहीं ?
कभी अपना बचपन ,
जो आप याद करेंगे
वो कौन है , इसका उत्तर ,
सहज प्राप्त करेंगे
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आपकी सब बात जानती है ?
वो कौन है , जो सबसे अच्छा ,
बस आपको मानती है ?
वो कौन है , जिसने हमेशा आपको ,
अपने आँचल में ढका रखा है ?
वो कौन है , जिसने आपके लिए ,
कुछ न कुछ बचा रखा है ?
वो कौन है , जिसने रात रात भर ,
जाग आपकी सेवा की है ?
वो कौन है , जिसकी खुशी ,
आपकी खुशी ही है ?
वो कौन है , जिसकी ममता का ,
कोई ओर छोर नहीं ?
वो कौन है , जिसके प्रेम में ,
संगीत है शोर नहीं ?
कभी अपना बचपन ,
जो आप याद करेंगे
वो कौन है , इसका उत्तर ,
सहज प्राप्त करेंगे
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 6 जून 2009
मैं चुप हूँ
कभी अपने आस पास देखकर ,
मूल्यों का होता ह्रास देखकर ,
और इतना विरोधाभास देखकर ,
मैं चुप हूँ |
क्या कहूँ , क्या लिखूं ,
हर परम्परा , हर रस्म छूटती जा रही |
सभ्यता है जो बची कुची ,
सब टूटती जा रही |
अपनापन छोड़ किनारे ,
हम क्या बनते जा रहे हैं ?
गन्दगी जमा हो रही समाज में ,
और हम सनते जा रहे हैं |
होना चाहिए अभिमान जिस पर ,
उसका हमें अफ़सोस है |
कितने धनी रहे हैं हम ,
इसका हमें होश है ?
इन सब बातों का,
हिस्सा मैं भी तो हूँ |
तभी किसका दोष है इसमें ?
इसपर मैं चुप हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मूल्यों का होता ह्रास देखकर ,
और इतना विरोधाभास देखकर ,
मैं चुप हूँ |
क्या कहूँ , क्या लिखूं ,
हर परम्परा , हर रस्म छूटती जा रही |
सभ्यता है जो बची कुची ,
सब टूटती जा रही |
अपनापन छोड़ किनारे ,
हम क्या बनते जा रहे हैं ?
गन्दगी जमा हो रही समाज में ,
और हम सनते जा रहे हैं |
होना चाहिए अभिमान जिस पर ,
उसका हमें अफ़सोस है |
कितने धनी रहे हैं हम ,
इसका हमें होश है ?
इन सब बातों का,
हिस्सा मैं भी तो हूँ |
तभी किसका दोष है इसमें ?
इसपर मैं चुप हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 30 मई 2009
ख्वाहिश है
उस बेदाग़ नूर को ,
आखों से छूने की ख्वाहिश है |
प्यार की जो रिम झिम बारिश है ,
उसमे भीग जाने की ख्वाहिश है |
बहुत चालाक है |
पर उसका दूर दूर रहना ,
एक नाकाम साज़िश है |
गर मिल जाए एक रोज़ ,
तो तन्हाई , गज़लें ,
सब खुदा हाफिज़ हैं |
राह चलते चलते ,
रुक कर , मुड कर देखना सब वाजिब है |
बस उस नूर को ,
आखों से छूने की ख्वाहिश है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आखों से छूने की ख्वाहिश है |
प्यार की जो रिम झिम बारिश है ,
उसमे भीग जाने की ख्वाहिश है |
बहुत चालाक है |
पर उसका दूर दूर रहना ,
एक नाकाम साज़िश है |
गर मिल जाए एक रोज़ ,
तो तन्हाई , गज़लें ,
सब खुदा हाफिज़ हैं |
राह चलते चलते ,
रुक कर , मुड कर देखना सब वाजिब है |
बस उस नूर को ,
आखों से छूने की ख्वाहिश है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 28 मई 2009
मैं हूँ |
कोई कहे कभी ,
होशियार , तैयार कौन है ?
हटा कर भीड़ को किनारे ,
बोल मैं हूँ |
सोच ले ऐसा ही रहूँगा ,
चाहे जिस हाल में रहूँ |
पूरा करूँगा उसको ,
एक बार जो ठान लूँ |
तेरी जीत न होगी ,
कह , यह कैसे मान लूँ ?
रुको , ज़रा पहले इन ,
रास्तों को पहचान लूँ |
कह , आए जो भी आगे ,
पूरे जोर से टकरा लूँ |
सुन पुकार स्वीकार कर ,
बोल मैं हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
होशियार , तैयार कौन है ?
हटा कर भीड़ को किनारे ,
बोल मैं हूँ |
सोच ले ऐसा ही रहूँगा ,
चाहे जिस हाल में रहूँ |
पूरा करूँगा उसको ,
एक बार जो ठान लूँ |
तेरी जीत न होगी ,
कह , यह कैसे मान लूँ ?
रुको , ज़रा पहले इन ,
रास्तों को पहचान लूँ |
कह , आए जो भी आगे ,
पूरे जोर से टकरा लूँ |
सुन पुकार स्वीकार कर ,
बोल मैं हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 27 मई 2009
शब्द खोजता हूँ |
अब न लिखूंगा यह बात मैं ,
हर रोज़ सोचता हूँ |
पर मन नही मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |
हर कृति के साथ ,
अन्दर का कवि सो जाता है |
जग जाता है पर ख़ुद ही ,
ऐसा कुछ हो जाता है |
जो कुछ होता जीवन में ,
वे दृश्य बन जुड़ जाते हैं |
फ़िर कविता बन मुझसे ,
उमड़ उमड़ आते हैं |
कलम उठाने से खुदको ,
मैं बहुत रोकता हूँ |
पर मन नहीं मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
हर रोज़ सोचता हूँ |
पर मन नही मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |
हर कृति के साथ ,
अन्दर का कवि सो जाता है |
जग जाता है पर ख़ुद ही ,
ऐसा कुछ हो जाता है |
जो कुछ होता जीवन में ,
वे दृश्य बन जुड़ जाते हैं |
फ़िर कविता बन मुझसे ,
उमड़ उमड़ आते हैं |
कलम उठाने से खुदको ,
मैं बहुत रोकता हूँ |
पर मन नहीं मानता और मैं ,
लिखने को शब्द खोजता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
तलाश है
जो शायद दूर है कहीं ,
या मेरे आस पास है |
महका दे मेरी ज़िन्दगी ,
उस अदद ग़ज़ल की तलाश है |
बदल बदल कर लफ्जों को ,
उसको बयाँ करता हूँ |
हरेक शक्ल में उसकी ,
परछाई ढूँढा करता हूँ |
उसकी अदा, अंदाजों को ,
जी भर देखना चाहता हूँ |
उस नगमे, संगीत को ,
सहेजकर रखना चाहता हूँ |
मिलेगी कभी न कभी ,
इसका मुझे एहसास है |
ढूंढो तो खुदा भी मिलते हैं ,
मुझे तो बस, एक ग़ज़ल की तलाश है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
या मेरे आस पास है |
महका दे मेरी ज़िन्दगी ,
उस अदद ग़ज़ल की तलाश है |
बदल बदल कर लफ्जों को ,
उसको बयाँ करता हूँ |
हरेक शक्ल में उसकी ,
परछाई ढूँढा करता हूँ |
उसकी अदा, अंदाजों को ,
जी भर देखना चाहता हूँ |
उस नगमे, संगीत को ,
सहेजकर रखना चाहता हूँ |
मिलेगी कभी न कभी ,
इसका मुझे एहसास है |
ढूंढो तो खुदा भी मिलते हैं ,
मुझे तो बस, एक ग़ज़ल की तलाश है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 26 मई 2009
कह चुका
अब न कहूँगा फ़िर से ,
जो मैं कह चुका |
कितना बर्दाश्त करूँ ,
मैं बहुत सह चुका |
बेकार के ख्यालों में ,
क्यूँ में डूबता रहा ?
हाँ हाँ , सच है यह ,
क्यूँ मैं कहता रहा ?
कितना पागलपन लिए ,
मैं फिरता रहा |
माफ़ करना , उस पागलपन के ,
छन्द लिखता रहा |
अब कुछ न हो सकेगा मुझसे ,
बहुत पानी बह चुका |
अब न कहूँगा फ़िर से ,
जो मैं कह चुका |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
जो मैं कह चुका |
कितना बर्दाश्त करूँ ,
मैं बहुत सह चुका |
बेकार के ख्यालों में ,
क्यूँ में डूबता रहा ?
हाँ हाँ , सच है यह ,
क्यूँ मैं कहता रहा ?
कितना पागलपन लिए ,
मैं फिरता रहा |
माफ़ करना , उस पागलपन के ,
छन्द लिखता रहा |
अब कुछ न हो सकेगा मुझसे ,
बहुत पानी बह चुका |
अब न कहूँगा फ़िर से ,
जो मैं कह चुका |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 24 मई 2009
यह बसंत कैसे आई है ?
क्या आज दिन कुछ ख़ास है ?
हवा में गज़ब की ताजगी ,
और घुलती जा रही मिठास है |
आसमान ज्यादा नीला है शायद ,
और धूप में गुनगुनापन है |
सडको के गड्ढों में इत्र फुलेल भरा है ,
किसलिए यह इंतजाम करा है ?
पेडों पर अचानक बहार आ गई ,
बह रही पुरवाई है |
देखो दूर कहीं से ,
मधुर ध्वनी आई है |
फूल खिल उठे हैं सैकडों ,
भंवरें की मौज आई है |
अभी तो कुछ और मौसम था ,
यह बसंत कैसे आई है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
हवा में गज़ब की ताजगी ,
और घुलती जा रही मिठास है |
आसमान ज्यादा नीला है शायद ,
और धूप में गुनगुनापन है |
सडको के गड्ढों में इत्र फुलेल भरा है ,
किसलिए यह इंतजाम करा है ?
पेडों पर अचानक बहार आ गई ,
बह रही पुरवाई है |
देखो दूर कहीं से ,
मधुर ध्वनी आई है |
फूल खिल उठे हैं सैकडों ,
भंवरें की मौज आई है |
अभी तो कुछ और मौसम था ,
यह बसंत कैसे आई है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुरकंडा देवी का प्रसाद |
यह मेरे आज २४ - ०५ -२००९ के माता सुरकंडा की यात्रा के अनुभवों पर आधारित है |
आज सुबह ही से , जाने कितने संयोग हुए ?
हैरान हूँ मैं , इस दिन में ,
जाने क्या क्या पाया ?
एक ही दिन में , कितनो से मिल आया !
एक एक करके आपने ,
कितने आश्चर्य आज दिए ?
विस्मित होकर मैंने वह ,
बढ़ा कर अपने हाथ लिए |
वो हमेशा आप थीं माँ ,
जो इतना सब हो सका |
मैंने बस उतना किया ,
जितना मुझसे हो सका |
अब समझ गया हूँ सब कुछ ,
और बस यही प्रार्थना करता हूँ |
मुझ पर दृष्टि बनाए रखना ,
मैं फ़िर आने का प्रयत्न करता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज सुबह ही से , जाने कितने संयोग हुए ?
हैरान हूँ मैं , इस दिन में ,
जाने क्या क्या पाया ?
एक ही दिन में , कितनो से मिल आया !
एक एक करके आपने ,
कितने आश्चर्य आज दिए ?
विस्मित होकर मैंने वह ,
बढ़ा कर अपने हाथ लिए |
वो हमेशा आप थीं माँ ,
जो इतना सब हो सका |
मैंने बस उतना किया ,
जितना मुझसे हो सका |
अब समझ गया हूँ सब कुछ ,
और बस यही प्रार्थना करता हूँ |
मुझ पर दृष्टि बनाए रखना ,
मैं फ़िर आने का प्रयत्न करता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
लहरें !
शांत कभी , कभी तूफ़ान सी ,
कितने रूप लिए हैं लहरें ?
कभी रेंगती , कभी उफनती ,
ना ना स्वरुप लिए हैं लहरें |
इनके तेज़ से न घबराना ,
यह बस इनका प्यार है |
भंवर बनते जो कहीं ,
वह प्यार का इकरार है |
इनके बीच जो कोई जाता ,
आदर भाव से बुलाती हैं |
भर भर कर आलिंगन में ,
मस्ती में झुलाती हैं |
रोके ना रूकती यह ,
तो बस बह जाती हैं|
रुकना नही , चलना है जीवन ,
हमको यह समझाती हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कितने रूप लिए हैं लहरें ?
कभी रेंगती , कभी उफनती ,
ना ना स्वरुप लिए हैं लहरें |
इनके तेज़ से न घबराना ,
यह बस इनका प्यार है |
भंवर बनते जो कहीं ,
वह प्यार का इकरार है |
इनके बीच जो कोई जाता ,
आदर भाव से बुलाती हैं |
भर भर कर आलिंगन में ,
मस्ती में झुलाती हैं |
रोके ना रूकती यह ,
तो बस बह जाती हैं|
रुकना नही , चलना है जीवन ,
हमको यह समझाती हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 21 मई 2009
कम पड़ गया |
तान सीना , हाथ तलवार ले ,
युद्घ मैं लड़ गया |
पर कहीं शायद मेरा ,
प्रयास कम पड़ गया |
अंत समय तक मैंने ख़ुद को ,
थकने न तनिक दिया |
उस क्रूर शत्रु ने ,
वार अधिक और अधिक किया |
बचा न यहाँ कोई साथी ,
अकेला ही बढ़ गया |
कितना चलता आगे , कुछ देर बाद ,
पत्थर बन कर जड़ गया |
मुझे गर्व है की मैं ,
पूरे दम से लड़ गया |
पर दर्द बस इतना है की ,
प्रयास कम पड़ गया |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
युद्घ मैं लड़ गया |
पर कहीं शायद मेरा ,
प्रयास कम पड़ गया |
अंत समय तक मैंने ख़ुद को ,
थकने न तनिक दिया |
उस क्रूर शत्रु ने ,
वार अधिक और अधिक किया |
बचा न यहाँ कोई साथी ,
अकेला ही बढ़ गया |
कितना चलता आगे , कुछ देर बाद ,
पत्थर बन कर जड़ गया |
मुझे गर्व है की मैं ,
पूरे दम से लड़ गया |
पर दर्द बस इतना है की ,
प्रयास कम पड़ गया |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मिटा दे
कितनी बातें भूलने लायक ,
आज उन्हें सब मिटा दे |
खोद ले यादों की कब्र ,
आज उसमें उन्हें लिटा दे |
काँटा बनकर तेरे दिल में ,
जो कबसे चुभती रही |
विष बनकर तेरे जीवन में ,
जो कबसे घुलती रही |
बोझ बनाकर जिसको तू ,
इतनी दूर ढो चुका |
सताया बहुत है तुझको,
पर अब बहुत हो चुका |
कर एक शुरुवात नई ,
बेडियों को , कह अलविदा दे |
चुन उन यादों को जीवन से ,
आज उन्हें सब मिटा दे |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज उन्हें सब मिटा दे |
खोद ले यादों की कब्र ,
आज उसमें उन्हें लिटा दे |
काँटा बनकर तेरे दिल में ,
जो कबसे चुभती रही |
विष बनकर तेरे जीवन में ,
जो कबसे घुलती रही |
बोझ बनाकर जिसको तू ,
इतनी दूर ढो चुका |
सताया बहुत है तुझको,
पर अब बहुत हो चुका |
कर एक शुरुवात नई ,
बेडियों को , कह अलविदा दे |
चुन उन यादों को जीवन से ,
आज उन्हें सब मिटा दे |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 20 मई 2009
बोल तू |
अपनी चुप्पी के रहस्य को ,
आज दे खोल तू |
कुछ भी हो सही ,
पर आज मुझसे बोल तू |
मेरे धैर्य को , औरों की अधीरता से ,
आज ले तोल तू |
मेरी प्यास का , औरों की लिप्सा से ,
आज लगा ले मोल तू |
कबसे खड़ा हूँ तेरे लिए ,
देख आँखें खोल तू |
हद हो गई , इंतज़ार की ,
आज मुझसे बोल तू |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज दे खोल तू |
कुछ भी हो सही ,
पर आज मुझसे बोल तू |
मेरे धैर्य को , औरों की अधीरता से ,
आज ले तोल तू |
मेरी प्यास का , औरों की लिप्सा से ,
आज लगा ले मोल तू |
कबसे खड़ा हूँ तेरे लिए ,
देख आँखें खोल तू |
हद हो गई , इंतज़ार की ,
आज मुझसे बोल तू |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
पल जो बीत गया |
वह पल , वह पल जो बीत गया |
गाने , भुलाने को , दे कितने गीत गया |
कभी दुश्मन मेरा , कभी बन मीत गया |
अभी तो खडा था यहाँ , और तुंरत ही रीत गया |
अपने आप में यह कितने रंग समेटे है |
कभी दिखता जीवंत , कभी शोक लपेटे है |
अपने जाने के साथ ही , कितनी यादें दे जाता है ?
कुछ खट्टी , कुछ मीठी बातें दे जाता है |
बहुत बुलाया वापस इसको , पर इस जिद में ,
यह मुझसे जीत गया |
वह पल , वह पल जो बीत गया |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गाने , भुलाने को , दे कितने गीत गया |
कभी दुश्मन मेरा , कभी बन मीत गया |
अभी तो खडा था यहाँ , और तुंरत ही रीत गया |
अपने आप में यह कितने रंग समेटे है |
कभी दिखता जीवंत , कभी शोक लपेटे है |
अपने जाने के साथ ही , कितनी यादें दे जाता है ?
कुछ खट्टी , कुछ मीठी बातें दे जाता है |
बहुत बुलाया वापस इसको , पर इस जिद में ,
यह मुझसे जीत गया |
वह पल , वह पल जो बीत गया |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 18 मई 2009
मुसाफिर हो नाम चला |
सुबह चला , शाम चला ,
कितने मील अविराम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |
आग बरसाते रेगिस्तान में ,
कब कहो आराम मिला ?
पर इस सफर से ही मुझको ,
एक नया आयाम मिला |
सहज मिल जाए जो ख़ुद को ,
उस चीज़ में क्या मज़ा हुआ ?
कोशिश कर , पाया जिसको ,
वही इनाम है सजा हुआ |
इसी धुन को रटते रहना ,
अब मेरा हो काम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कितने मील अविराम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |
आग बरसाते रेगिस्तान में ,
कब कहो आराम मिला ?
पर इस सफर से ही मुझको ,
एक नया आयाम मिला |
सहज मिल जाए जो ख़ुद को ,
उस चीज़ में क्या मज़ा हुआ ?
कोशिश कर , पाया जिसको ,
वही इनाम है सजा हुआ |
इसी धुन को रटते रहना ,
अब मेरा हो काम चला |
चलने चलने से मेरा ,
मुसाफिर हो नाम चला |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 17 मई 2009
ऋण मैंने उतार दिया |
परीक्षा देकर आज एक ,
ऋण मैंने उतार दिया |
कटु था उसका स्वभाव ,
पर मैंने पूरा सत्कार किया |
इतनी कड़ी स्पर्धा जिसने ,
तोड़ मुझे तार तार किया |
इतने लोगों के आगे ,
खड़ा मुझे लाचार किया |
जला जला करके खुदको ,
इस दिन के लिए तैयार किया |
ठीक ठाक गुज़र गया यह ,
प्रभु का प्रकट , आभार किया |
बड़ी परीक्षा थी यह ,
मन भीतर तक कंपा दिया |
समेट खुदको, दिया इसको ,
अब बस, ऋण मैंने उतार दिया |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
ऋण मैंने उतार दिया |
कटु था उसका स्वभाव ,
पर मैंने पूरा सत्कार किया |
इतनी कड़ी स्पर्धा जिसने ,
तोड़ मुझे तार तार किया |
इतने लोगों के आगे ,
खड़ा मुझे लाचार किया |
जला जला करके खुदको ,
इस दिन के लिए तैयार किया |
ठीक ठाक गुज़र गया यह ,
प्रभु का प्रकट , आभार किया |
बड़ी परीक्षा थी यह ,
मन भीतर तक कंपा दिया |
समेट खुदको, दिया इसको ,
अब बस, ऋण मैंने उतार दिया |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 16 मई 2009
कल की चिंता |
जितनी भी तैयारी हो इंसां की ,
कल की चिंता बनी रहती है |
धीमी सी आंच उसके ,
सीने में जली रहती है |
आकांक्षाएं इस आग में ,
घी का काम करती हैं |
ऐसा डर है कल का ,
आशा भी आने से डरती है |
हमेशा से ही इंसा को ,
कल ने परेशान किया है |
व्याकुलता बढ़ा बढ़ा कर ,
छगन भग्न सब ध्यान किया है |
खूब कहा है किसीने ,
चिता समान है यह चिंता|
लाख भागो इससे ,
पर होनी ही है , होती ही है |
ऐसी चीज़ है कल की चिंता |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कल की चिंता बनी रहती है |
धीमी सी आंच उसके ,
सीने में जली रहती है |
आकांक्षाएं इस आग में ,
घी का काम करती हैं |
ऐसा डर है कल का ,
आशा भी आने से डरती है |
हमेशा से ही इंसा को ,
कल ने परेशान किया है |
व्याकुलता बढ़ा बढ़ा कर ,
छगन भग्न सब ध्यान किया है |
खूब कहा है किसीने ,
चिता समान है यह चिंता|
लाख भागो इससे ,
पर होनी ही है , होती ही है |
ऐसी चीज़ है कल की चिंता |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
स्वीकार कर |
खींच अपनी भुजाओं की शक्ति ,
आज एक हुंकार भर |
चुनौती आई है युद्घ की ,
भर सीना , स्वीकार कर |
वीर कौशल की कहानियाँ ,
सुन ली होंगी बहुत |
एक कथा और विजय की ,
लिख दे अब ख़ुद |
यह विशेष समय है ,
यूँ न बेकार कर |
परीक्षा की घड़ी है ,
ध्यान लगा , स्वीकार कर |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज एक हुंकार भर |
चुनौती आई है युद्घ की ,
भर सीना , स्वीकार कर |
वीर कौशल की कहानियाँ ,
सुन ली होंगी बहुत |
एक कथा और विजय की ,
लिख दे अब ख़ुद |
यह विशेष समय है ,
यूँ न बेकार कर |
परीक्षा की घड़ी है ,
ध्यान लगा , स्वीकार कर |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 14 मई 2009
बह चला |
इन हसीन नज़ारों से ,
करीब दोस्तों और यारों से ,
अलविदा कह चला |
आ गई है वह लहर ,
अब लो मैं बह चला |
मित्रों , तुम्हारा साथ सुंदर था |
वक्त कैसे कट गया ?
पता ही नही चला |
अपनी भूल चूक माफ़ कर चला ,
अब लो मैं बह चला |
जिसके लिए , मैं कबसे तैयार था |
हरदम , हरपल करता इंतज़ार था ,
आ गया वह ज्वार भाटा |
उसमें हाथ पाँव थोड़े चला ,
अब लो मैं बह चला |
मेरी याद जो कभी आये ,
बिछडी यादों के दीप बनाके ,
सीने में लेना जला |
मिल न सकूँगा ,याद करूँगा ,
अब तो मैं बह चला |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
करीब दोस्तों और यारों से ,
अलविदा कह चला |
आ गई है वह लहर ,
अब लो मैं बह चला |
मित्रों , तुम्हारा साथ सुंदर था |
वक्त कैसे कट गया ?
पता ही नही चला |
अपनी भूल चूक माफ़ कर चला ,
अब लो मैं बह चला |
जिसके लिए , मैं कबसे तैयार था |
हरदम , हरपल करता इंतज़ार था ,
आ गया वह ज्वार भाटा |
उसमें हाथ पाँव थोड़े चला ,
अब लो मैं बह चला |
मेरी याद जो कभी आये ,
बिछडी यादों के दीप बनाके ,
सीने में लेना जला |
मिल न सकूँगा ,याद करूँगा ,
अब तो मैं बह चला |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मेरे साथ है |
मुझे यही लगता रहा ,
अकेला चलना दिन रात है |
पर जब भी ऊपर देखा ,
पाया , इश्वर तू मेरे साथ है |
अब तक जितनी बिगड़ी ,
बनी मेरी बात है |
पूरी और पूरी तरह ,
इसमें तेरा हाथ है |
जितना कुछ पाया जीवन में ,
सब तेरी सौगात है |
कुछ खोने पर कोस देता हूँ तुझे ,
कितनी आपस की बात है !
तुच्छ हूँ बहुत मैं ,
मेरी क्या औकात है ?
जो भी हूँ ,इसलिए हूँ ,
क्यूंकि तू मेरे साथ है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
अकेला चलना दिन रात है |
पर जब भी ऊपर देखा ,
पाया , इश्वर तू मेरे साथ है |
अब तक जितनी बिगड़ी ,
बनी मेरी बात है |
पूरी और पूरी तरह ,
इसमें तेरा हाथ है |
जितना कुछ पाया जीवन में ,
सब तेरी सौगात है |
कुछ खोने पर कोस देता हूँ तुझे ,
कितनी आपस की बात है !
तुच्छ हूँ बहुत मैं ,
मेरी क्या औकात है ?
जो भी हूँ ,इसलिए हूँ ,
क्यूंकि तू मेरे साथ है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 13 मई 2009
पी गटागट जाता हूँ |
दिन भर मगज मार कर ,
आख़िर जब थक जाता हूँ |
हाथ ले शब्दों के काढे को ,
पी गटागट जाता हूँ |
पीकर उसको , मुझको ,
मद्धम सा नशा होता है |
विवरण से परे है उसमें ,
सच , ऐसा मज़ा होता है |
दुनिया अलग दिखायी देती है ,
अनसुनी बातें सुनाई देतीं हैं |
मन आवारा हो , भागा फिरता ,
इच्छाएं अंगडाई लेती हैं |
लिख कर दो एक पंक्ति ,
यह नशा तुममे बाँट जाता हूँ |
ज्यूँ ही कम होता है यह ,
फ़िर पी गटागट जाता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आख़िर जब थक जाता हूँ |
हाथ ले शब्दों के काढे को ,
पी गटागट जाता हूँ |
पीकर उसको , मुझको ,
मद्धम सा नशा होता है |
विवरण से परे है उसमें ,
सच , ऐसा मज़ा होता है |
दुनिया अलग दिखायी देती है ,
अनसुनी बातें सुनाई देतीं हैं |
मन आवारा हो , भागा फिरता ,
इच्छाएं अंगडाई लेती हैं |
लिख कर दो एक पंक्ति ,
यह नशा तुममे बाँट जाता हूँ |
ज्यूँ ही कम होता है यह ,
फ़िर पी गटागट जाता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 12 मई 2009
कहाँ से लाऊं ?
इतने तूफ़ान भरे हैं दिल में \\
बयान करने के लिए ,
शब्द कहाँ से लाऊं ?
दर्द बढ़ता जा रहा हद से \\
उसे बाटने के लिए ,
हमदर्द कहाँ से लाऊं ?
ताप बढती जा रही धूप की \\
ठंडक पहुंचाए जो मन को वह ,
ऋतु शरद कहाँ से लाऊं ?
मेरे ऊपर बना रहे हमेशा ,
स्नेही , दयालु , शुभेछु वह ,
वरद हस्त कहाँ से लाऊं ?
अकेले ही चलता आया अभी तक \\
अब इस सूने बीहड़ में एक ,
और मुसाफिर कहाँ से लाऊं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बयान करने के लिए ,
शब्द कहाँ से लाऊं ?
दर्द बढ़ता जा रहा हद से \\
उसे बाटने के लिए ,
हमदर्द कहाँ से लाऊं ?
ताप बढती जा रही धूप की \\
ठंडक पहुंचाए जो मन को वह ,
ऋतु शरद कहाँ से लाऊं ?
मेरे ऊपर बना रहे हमेशा ,
स्नेही , दयालु , शुभेछु वह ,
वरद हस्त कहाँ से लाऊं ?
अकेले ही चलता आया अभी तक \\
अब इस सूने बीहड़ में एक ,
और मुसाफिर कहाँ से लाऊं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
नज़र आई है |
देख लिया बहुत , यूँही दूर दूर से ,
वह मंजिल पाने की , अब कसक उठ आई है \\
चलते चलते लगता , वह नज़र आई है ,
पथराई आंखों में एक चमक नज़र आई है \\
मुरझाये से चेहरे पर , थोडी सी दमक आई है ,
मुझसे तेज़ चलने लगी , अब मेरी परछाई है \\
क्या लोग थे वे , जो पहुंचे वहां तक ,
मेरी तो अभी से ही , साँस फूल आई है \\
इस पर ही सब्र करता हूँ की ,
राह चाहे जैसी भी है , ग़लत नही ,
आख़िर इसमे मंजिल नज़र आई है \\
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वह मंजिल पाने की , अब कसक उठ आई है \\
चलते चलते लगता , वह नज़र आई है ,
पथराई आंखों में एक चमक नज़र आई है \\
मुरझाये से चेहरे पर , थोडी सी दमक आई है ,
मुझसे तेज़ चलने लगी , अब मेरी परछाई है \\
क्या लोग थे वे , जो पहुंचे वहां तक ,
मेरी तो अभी से ही , साँस फूल आई है \\
इस पर ही सब्र करता हूँ की ,
राह चाहे जैसी भी है , ग़लत नही ,
आख़िर इसमे मंजिल नज़र आई है \\
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 9 मई 2009
कौन हूँ मैं ?
कभी अकेले में , जो पूछा ख़ुद से |
इस सवाल पर मौन हूँ मैं |
आख़िर , कौन हूँ मैं ?
बाहर जो दिखता जग को ,
क्या वैसा ही भीतर हूँ मैं ?
इतनी बड़ी है यह दुनिया ,
और कितना गौण हूँ मैं ?
इस विशाल समुद्र में ,
क्या एक लहर हूँ मैं ?
गिरी हो प्रलय की गाज जिस पर ,
क्या उजड़ा वह शहर हूँ मैं ?
हवा से उड़ता रहा ,
क्या एक पतंग हूँ मैं ?
या जो जड़ा रहा ,
वह एक स्तम्भ हूँ मैं ?
अपनी ही नज़र में , कभी नायक ,
कभी खलनायक हूँ मैं |
कौन हूँ मैं आख़िर ,
क्या इसका उत्तर देने लायक हूँ मैं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
इस सवाल पर मौन हूँ मैं |
आख़िर , कौन हूँ मैं ?
बाहर जो दिखता जग को ,
क्या वैसा ही भीतर हूँ मैं ?
इतनी बड़ी है यह दुनिया ,
और कितना गौण हूँ मैं ?
इस विशाल समुद्र में ,
क्या एक लहर हूँ मैं ?
गिरी हो प्रलय की गाज जिस पर ,
क्या उजड़ा वह शहर हूँ मैं ?
हवा से उड़ता रहा ,
क्या एक पतंग हूँ मैं ?
या जो जड़ा रहा ,
वह एक स्तम्भ हूँ मैं ?
अपनी ही नज़र में , कभी नायक ,
कभी खलनायक हूँ मैं |
कौन हूँ मैं आख़िर ,
क्या इसका उत्तर देने लायक हूँ मैं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वह समय आ गया है !
ज़ोर शोर से , जाने कब से, तैयारी करता रहा ?
छोटे छोटे ही सही , कदम उठा बढ़ता रहा
अब उस तैयारी का इम्तहान आ गया है
साबित कर के दिखा खुदको
वह समय आ गया है !
कितनी बार गिरा है तू , इसका कोई हिसाब नही
पर जिस हिम्मत से उठा है , उसका कोई जवाब नही
अपनी तस्वीर को तू कबसे , रोज़ मिटा - बना रहा है
लहू और पसीने से , हमेशा सना रहा है
उस लहू की गर्मी अब दिखेगी जग को ,
हाँ, वह समय आ गया है
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
छोटे छोटे ही सही , कदम उठा बढ़ता रहा
अब उस तैयारी का इम्तहान आ गया है
साबित कर के दिखा खुदको
वह समय आ गया है !
कितनी बार गिरा है तू , इसका कोई हिसाब नही
पर जिस हिम्मत से उठा है , उसका कोई जवाब नही
अपनी तस्वीर को तू कबसे , रोज़ मिटा - बना रहा है
लहू और पसीने से , हमेशा सना रहा है
उस लहू की गर्मी अब दिखेगी जग को ,
हाँ, वह समय आ गया है
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 8 मई 2009
इच्छाएं कितनी ?
क्या पता इन सबकी ,
प्यास कभी मिटनी है ?
इनकी कोई गिनती नही ,
मानव इच्छाएं कितनी हैं ?
बचपन से ही मानव ,
इच्छा पर इच्छा पाले जाता |
छोटे से बर्तन में ,
और और डाले जाता |
अपनी इच्छाएं लेकर ,
रात रात जागता रहता |
मृग तृष्णाये बनाकर उनको ,
उनके पीछे भागता रहता |
उतनी फिर से पैदा हो जाती ,
पूरी करता जितनी है |
मर जाता मानव , यह रह जातीं ,
मानव इच्छाएं कितनी हैं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
प्यास कभी मिटनी है ?
इनकी कोई गिनती नही ,
मानव इच्छाएं कितनी हैं ?
बचपन से ही मानव ,
इच्छा पर इच्छा पाले जाता |
छोटे से बर्तन में ,
और और डाले जाता |
अपनी इच्छाएं लेकर ,
रात रात जागता रहता |
मृग तृष्णाये बनाकर उनको ,
उनके पीछे भागता रहता |
उतनी फिर से पैदा हो जाती ,
पूरी करता जितनी है |
मर जाता मानव , यह रह जातीं ,
मानव इच्छाएं कितनी हैं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 7 मई 2009
कितनी बार कहूँ ?
बस बहुत हुआ , अब और कितने दंश सहूँ ?
मांग चुका सौ बार फलक को |
अब और कितनी बार कहूँ ?
चला था छूने आसमान को ,
चलना शुरू नही कर पाया हूँ |
चाहता था सोना बनना , पर सांचे में ,
ढलना शुरू नही कर पाया हूँ |
अपने इस स्वप्न पर ,
और कितने निबंध लिखूँ ?
माना स्वर्णिम है वहां तक जाना , पर उस जगह पर ,
और कितने छंद लिखूँ ?
कमी मेरी कोशिश में ही है ,
दोष कब तक भाग्य पर मदुं ?
नतीजा वैसा ही होगा ,
जैसे इस लडाई को लडूं |
कुछ करना ही होगा मुझे ,
कब तक यूँ कमज़ोर रहूँ ?
खुद से वादा करना होगा ,
तुमसे कितनी बार कहूँ ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मांग चुका सौ बार फलक को |
अब और कितनी बार कहूँ ?
चला था छूने आसमान को ,
चलना शुरू नही कर पाया हूँ |
चाहता था सोना बनना , पर सांचे में ,
ढलना शुरू नही कर पाया हूँ |
अपने इस स्वप्न पर ,
और कितने निबंध लिखूँ ?
माना स्वर्णिम है वहां तक जाना , पर उस जगह पर ,
और कितने छंद लिखूँ ?
कमी मेरी कोशिश में ही है ,
दोष कब तक भाग्य पर मदुं ?
नतीजा वैसा ही होगा ,
जैसे इस लडाई को लडूं |
कुछ करना ही होगा मुझे ,
कब तक यूँ कमज़ोर रहूँ ?
खुद से वादा करना होगा ,
तुमसे कितनी बार कहूँ ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 6 मई 2009
कख छ वु |
सुबेर साम ढूँढनु छ ,
कोणा कोणा देख्णु छ |
जु म्यार जिकुड़ी मा बस ग्यायी ,
कख छ व् छोरी , कख छ वु ?
सौ मुखडी देखिक ,
कुई नि पसंद ऐई |
जु देखि येकि मुखडी ,
जिकुड़ी धक् हुए ग्यायी |
अब सुदि बैठि ,
वैकु नां रटणु छ |
रात बिटिक सुबेर तलक ,
सुंदर सुपना आणु छ |
बिजां चतुर छोरी छ ,
दूर बीटी मुस्कांदी |
पास आन्दु जु मि कदी ,
टप जानी कख लुक जांदी |
यारों कुई छुई ,
हुई नि वैकि गैल |
चल गयुं जनुअरी ,
चल गयुं अप्रैल |
अब प्राण मेरा ,
तड़पणु बिना वैकु |
मिल जाई वु मितैं ,
कख छ व् छोरी , कख छ वु ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कोणा कोणा देख्णु छ |
जु म्यार जिकुड़ी मा बस ग्यायी ,
कख छ व् छोरी , कख छ वु ?
सौ मुखडी देखिक ,
कुई नि पसंद ऐई |
जु देखि येकि मुखडी ,
जिकुड़ी धक् हुए ग्यायी |
अब सुदि बैठि ,
वैकु नां रटणु छ |
रात बिटिक सुबेर तलक ,
सुंदर सुपना आणु छ |
बिजां चतुर छोरी छ ,
दूर बीटी मुस्कांदी |
पास आन्दु जु मि कदी ,
टप जानी कख लुक जांदी |
यारों कुई छुई ,
हुई नि वैकि गैल |
चल गयुं जनुअरी ,
चल गयुं अप्रैल |
अब प्राण मेरा ,
तड़पणु बिना वैकु |
मिल जाई वु मितैं ,
कख छ व् छोरी , कख छ वु ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 5 मई 2009
पीछे मुड़कर देख तू
चला कहाँ से ?
कहाँ खड़ा है ?
दे विचार एक तू |
पीछे मुड़कर देख तू |
तेरे साथ कितने चले ,
लेकिन सब भागे नही |
तू भागा बहुत तेज़ ,
पर है सबसे आगे नही |
इतना आगे तू आया ,
क्या यह इतना आसान है ?
पीछे होकर तुझसे किसीने ,
क्या किया एहसान है ?
हमेशा तू हारा नही ,
कभी हुई तेरी जीत भी है |
उन्ही जीतों के लम्हों से ,
आज जुड़कर देख तू |
उतार फेंक यह उदासी ,
हैरान हो मत झेंप तू |
यह तेरा ही बीता कल है ,
ज़रा पीछे मुड़कर देख तू |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कहाँ खड़ा है ?
दे विचार एक तू |
पीछे मुड़कर देख तू |
तेरे साथ कितने चले ,
लेकिन सब भागे नही |
तू भागा बहुत तेज़ ,
पर है सबसे आगे नही |
इतना आगे तू आया ,
क्या यह इतना आसान है ?
पीछे होकर तुझसे किसीने ,
क्या किया एहसान है ?
हमेशा तू हारा नही ,
कभी हुई तेरी जीत भी है |
उन्ही जीतों के लम्हों से ,
आज जुड़कर देख तू |
उतार फेंक यह उदासी ,
हैरान हो मत झेंप तू |
यह तेरा ही बीता कल है ,
ज़रा पीछे मुड़कर देख तू |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज दिन कुछ और है
आज मन व्याकुल बड़ा हो रहा |
भविष्य सोच कर परेशान बड़ा हो रहा |
सोचता है , अभी तक सिर्फ़ इतना ही ज़ोर लगा पाया हूँ |
की अपनी नाव नदी के छोर लगा पाया हूँ |
दूर मंजिल हो तो , राह नही आसान कभी |
लहरें होंगी बड़ी बड़ी , बिजली और तूफ़ान भी |
कल तक इन बातों से , भय नही लग रहा था |
आज लगता जो असम्भव , कल सम्भव लग रहा था |
पार करने की सोचता हूँ सागर को ,
अभी छोटे भंवर ही सह पाया हूँ |
कितना कमज़ोर महसूस कर रहा हूँ ,
कहाँ किसीसे कह पाया हूँ |
धीरे धीरे मेरा मनोबल रहा तोड़ है |
और दिनों जैसा नही , आज दिन कुछ और है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
भविष्य सोच कर परेशान बड़ा हो रहा |
सोचता है , अभी तक सिर्फ़ इतना ही ज़ोर लगा पाया हूँ |
की अपनी नाव नदी के छोर लगा पाया हूँ |
दूर मंजिल हो तो , राह नही आसान कभी |
लहरें होंगी बड़ी बड़ी , बिजली और तूफ़ान भी |
कल तक इन बातों से , भय नही लग रहा था |
आज लगता जो असम्भव , कल सम्भव लग रहा था |
पार करने की सोचता हूँ सागर को ,
अभी छोटे भंवर ही सह पाया हूँ |
कितना कमज़ोर महसूस कर रहा हूँ ,
कहाँ किसीसे कह पाया हूँ |
धीरे धीरे मेरा मनोबल रहा तोड़ है |
और दिनों जैसा नही , आज दिन कुछ और है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 3 मई 2009
फुक्ग्युं यख दिल्ली मा
हला भैजी कन छ ?
बदली छाई होली वख टीरी मा |
यखी त बस आग छ , फुन्कग्युं यख दिल्ली मा |
तनखा बिजां कम हुएगी , रेणा छन तंगी मा |
कोड मा खाज हुएगी , ऐ छोरा , एन मंदी मा |
कोई अपणु नि छ यख , सब मतलब का दगडी छन |
खूब खाई मिन धोखा , पर भैजी अब क्या कन ?
यख सुबेर सात बजेक बीटी , घनी घाम लग जांदी |
यख वख बाटा मा , सुंगर जाम लग जांदी |
जखी देखा , वखी सरा- सरी मच्युन छ |
पैसा का वास्ता , मारा मारी मच्युन छ |
यु माहौल मीतें , रास नि आणु छ |
फंड फुकी येतें , मी घौर आणु छ |
घौर एके , दाल भात खेके , रौला तस्सली मा |
कंदुडी पकड़दों , फुक्ग्युं यख दिल्ली मा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बदली छाई होली वख टीरी मा |
यखी त बस आग छ , फुन्कग्युं यख दिल्ली मा |
तनखा बिजां कम हुएगी , रेणा छन तंगी मा |
कोड मा खाज हुएगी , ऐ छोरा , एन मंदी मा |
कोई अपणु नि छ यख , सब मतलब का दगडी छन |
खूब खाई मिन धोखा , पर भैजी अब क्या कन ?
यख सुबेर सात बजेक बीटी , घनी घाम लग जांदी |
यख वख बाटा मा , सुंगर जाम लग जांदी |
जखी देखा , वखी सरा- सरी मच्युन छ |
पैसा का वास्ता , मारा मारी मच्युन छ |
यु माहौल मीतें , रास नि आणु छ |
फंड फुकी येतें , मी घौर आणु छ |
घौर एके , दाल भात खेके , रौला तस्सली मा |
कंदुडी पकड़दों , फुक्ग्युं यख दिल्ली मा |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
प्रेम , तुम थम जाओ
अभी बहुत व्यस्त हूँ , मेरे रस्ते में मत आओ |
सुनो प्रेम , तुम थम जाओ |
तुम में बह जाना , भला तो है , तुम्हारा न होना , खला तो है |
पर अभी सही समय नही , बहुत कुछ जीवन में करने को , बचा तो है |
कर लूँ पूरी अभिलाषा अपनी ,फिर तुम्हारी सुनूंगा |
तुम्हारे बाग़ से एक फूल , भी तभी चुनुँगा |
एक स्थिति के बाद ही , यह सब अच्छा लगता है |
वरना लगता , है तो पकवान , पर रह गया कच्चा है |
इसीलिए चाहता हूँ , मेरे विचारों में जरा कम आओ |
सुनो प्रेम , तुम थम जाओ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुनो प्रेम , तुम थम जाओ |
तुम में बह जाना , भला तो है , तुम्हारा न होना , खला तो है |
पर अभी सही समय नही , बहुत कुछ जीवन में करने को , बचा तो है |
कर लूँ पूरी अभिलाषा अपनी ,फिर तुम्हारी सुनूंगा |
तुम्हारे बाग़ से एक फूल , भी तभी चुनुँगा |
एक स्थिति के बाद ही , यह सब अच्छा लगता है |
वरना लगता , है तो पकवान , पर रह गया कच्चा है |
इसीलिए चाहता हूँ , मेरे विचारों में जरा कम आओ |
सुनो प्रेम , तुम थम जाओ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 1 मई 2009
किस काम की
सुबह से ही , प्रतीक्षा होती , एक सिन्दूरी शाम की |
फीकी सी ही बीत जाए , वह शाम किस काम की |
नशा होता जिसमें गहरा , वाह - वाह होती उस जाम की|
जो चढा सुरूर उतारे , वह सुरा किस काम की |
जहाँ देवता न बसते , कौन सुध लेता उस धाम की |
जिससे दर्द कम न होता , वो दवा किस काम की |
जिसे कोई न पहचाने , क्या बात हो उस नाम की |
जिससे कुछ खरीद न पाये , वो मुद्रा किस काम की |
रंग न हो जिसमें भरा , वो स्मृति किस काम की |
मन पुलकित न हो जिसे पढ़कर , ऐसी कृति किस काम की |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
फीकी सी ही बीत जाए , वह शाम किस काम की |
नशा होता जिसमें गहरा , वाह - वाह होती उस जाम की|
जो चढा सुरूर उतारे , वह सुरा किस काम की |
जहाँ देवता न बसते , कौन सुध लेता उस धाम की |
जिससे दर्द कम न होता , वो दवा किस काम की |
जिसे कोई न पहचाने , क्या बात हो उस नाम की |
जिससे कुछ खरीद न पाये , वो मुद्रा किस काम की |
रंग न हो जिसमें भरा , वो स्मृति किस काम की |
मन पुलकित न हो जिसे पढ़कर , ऐसी कृति किस काम की |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 29 अप्रैल 2009
तू पहाडी छ
पहाड़ बीटी चल्युं थौ ब्याली ,
आज आग्येन बिजां अगाडी छ |
खूब करा बाबू उन्नति ,
पर यू न भूला , तू पहाडी छ |
हल्का हल्का सब दीदा ,
गौं खाली होणा छन |
छोड़ी छोड़ी के सब अपणु पुंगडा ,
परदेसी होणा छन |
बुढ - बुढिया रह जांदा वखी ,
कुढ़ता रहंदा बरखा , जाडों मा|
अपना छोरों की आस लगै के ,
सुदी तकता रहंदा डाँडो मा |
याद ज्यू आ जांदी कदी ,
तुवेसनि बड़ा रुलाणु छ |
बहुत कमाई रुपया - पीसा ,
चला अब घोर , त्यार कुटुंब बुलाणु छ |
कदी लगदु , यख रहना छन ,
त्यार मत मारी छ |
यू त्यार देश नि दीदा ,
तू तो पहाडी छ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज आग्येन बिजां अगाडी छ |
खूब करा बाबू उन्नति ,
पर यू न भूला , तू पहाडी छ |
हल्का हल्का सब दीदा ,
गौं खाली होणा छन |
छोड़ी छोड़ी के सब अपणु पुंगडा ,
परदेसी होणा छन |
बुढ - बुढिया रह जांदा वखी ,
कुढ़ता रहंदा बरखा , जाडों मा|
अपना छोरों की आस लगै के ,
सुदी तकता रहंदा डाँडो मा |
याद ज्यू आ जांदी कदी ,
तुवेसनि बड़ा रुलाणु छ |
बहुत कमाई रुपया - पीसा ,
चला अब घोर , त्यार कुटुंब बुलाणु छ |
कदी लगदु , यख रहना छन ,
त्यार मत मारी छ |
यू त्यार देश नि दीदा ,
तू तो पहाडी छ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वो दिन
वो दिन , वो दिन भी क्या दिन थे !
पल - पल मस्ती भरे , चिंता के बिन थे |
समय कितना आराम से कटता था |
मन खुशी भरे गीत रटता था |
बहते रहते थे , जैसे कोई अल्हड़ नदी है |
अब लगता इन सबको हुए , बीत गई एक सदी है |
तब लगता था , बस सबसे ऊपर हम हैं |
अपने आगे सब गिनती में कम हैं |
तब हम ख्वाब लिखना , मिटाना जानते थे |
दोस्ती करना , निभाना जानते थे |
छोटी - छोटी बातों की खुशी मनाते थे |
थोड़े से पैसों से पूरा महीना चलाते थे |
याद आते हैं बहुत , पर अब हमसे छिन गए |
न आयेंगे , जितना बुलाओ , अब बीत वो दिन गए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
पल - पल मस्ती भरे , चिंता के बिन थे |
समय कितना आराम से कटता था |
मन खुशी भरे गीत रटता था |
बहते रहते थे , जैसे कोई अल्हड़ नदी है |
अब लगता इन सबको हुए , बीत गई एक सदी है |
तब लगता था , बस सबसे ऊपर हम हैं |
अपने आगे सब गिनती में कम हैं |
तब हम ख्वाब लिखना , मिटाना जानते थे |
दोस्ती करना , निभाना जानते थे |
छोटी - छोटी बातों की खुशी मनाते थे |
थोड़े से पैसों से पूरा महीना चलाते थे |
याद आते हैं बहुत , पर अब हमसे छिन गए |
न आयेंगे , जितना बुलाओ , अब बीत वो दिन गए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 28 अप्रैल 2009
एक कोएला
एक कोएला , पड़ा रहता , था खदान में |
क्या करेगा , क्या बनेगा ?
कुछ न था ध्यान में |
वर्षों से पड़ा रहा , काम कोई न उसने किया |
आस पास की कालिख को , अपने ऊपर जमने दिया |
एक दिन अचानक , उस खदान में , एक हीरा पाया गया |
इस कोएले को परे हटा , उस हीरे को उठाया गया |
इतने कुछ से कोएले को , लगी गहरी चोट है |
खोटा है वह , जाना उसने , और जाना कहाँ खोट है |
आज बना है जो हीरा , कल तक इसके जैसा ही था |
मन में था कुछ बनने का , बाहर बिल्कुल ऐसा ही था |
अब जुटा है , पूरे दम से , बनाने को पहचान में |
ताकि दुनिया कहे , बन ही गया हीरा आख़िर |
कभी कोएला था इस खदान में |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
क्या करेगा , क्या बनेगा ?
कुछ न था ध्यान में |
वर्षों से पड़ा रहा , काम कोई न उसने किया |
आस पास की कालिख को , अपने ऊपर जमने दिया |
एक दिन अचानक , उस खदान में , एक हीरा पाया गया |
इस कोएले को परे हटा , उस हीरे को उठाया गया |
इतने कुछ से कोएले को , लगी गहरी चोट है |
खोटा है वह , जाना उसने , और जाना कहाँ खोट है |
आज बना है जो हीरा , कल तक इसके जैसा ही था |
मन में था कुछ बनने का , बाहर बिल्कुल ऐसा ही था |
अब जुटा है , पूरे दम से , बनाने को पहचान में |
ताकि दुनिया कहे , बन ही गया हीरा आख़िर |
कभी कोएला था इस खदान में |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
चक्रव्यूह नही रचा है |
जलता रह लौ बनकर तू ,
अभी तुझमें मोम बचा है |
मुश्किलें हैं यह छोटी - मोटी ,
कोई चक्रव्यूह नही रचा है |
ऊपर उठ इच्छाओं से ,
इनमें क्या कुछ कभी धरा है ?
विजय निश्चित है तेरी अब ,
जब तुझमें अदम्य साहस भरा है |
कितने - कितने तूफ़ान आए ,
तू अकेले सब सह गया |
अब क्यूँ घबराता है जब ,
लक्ष्य थोड़ा दूर रह गया |
खत्म ही होने को है युद्घ ,
तू अकेला ही बचा है |
जीत कर सब भेंट दे उनको ,
जिन्होंने तेरा रस्ता तका है |
विजयी हो , फिर नाम का तेरे ,
देख डंका बजा है |
मुश्किलें हैं यह छोटी - मोटी ,
कोई चक्रव्यूह नही रचा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
अभी तुझमें मोम बचा है |
मुश्किलें हैं यह छोटी - मोटी ,
कोई चक्रव्यूह नही रचा है |
ऊपर उठ इच्छाओं से ,
इनमें क्या कुछ कभी धरा है ?
विजय निश्चित है तेरी अब ,
जब तुझमें अदम्य साहस भरा है |
कितने - कितने तूफ़ान आए ,
तू अकेले सब सह गया |
अब क्यूँ घबराता है जब ,
लक्ष्य थोड़ा दूर रह गया |
खत्म ही होने को है युद्घ ,
तू अकेला ही बचा है |
जीत कर सब भेंट दे उनको ,
जिन्होंने तेरा रस्ता तका है |
विजयी हो , फिर नाम का तेरे ,
देख डंका बजा है |
मुश्किलें हैं यह छोटी - मोटी ,
कोई चक्रव्यूह नही रचा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 27 अप्रैल 2009
सपने बेकार नही
सपने बेकार नही , बहुत काम की चीज़ हैं |
बनने जा रहे जीवन वृक्ष के , ये मूल बीज हैं |
ये केवल लक्ष्य न देते , देते हैं राह भी |
जीवन को मकसद मिलता , और हाँ उत्साह भी |
लड़ने को , आगे बढ़ने को , इनसे प्राप्त एक युद्ध होता |
उस युद्ध का नायक , स्वप्न देखने वाला ख़ुद होता |
आदि काल से ये मानव का , मनोबल बढ़ते आ रहे |
गाँव से नगर , नगर से सभ्यता बनाते आ रहे |
जो सपने न देखे कोई , यह मनुष्य व्यवहार नही |
पूरे चाहे हो या न हों , सपने बेकार नही |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बनने जा रहे जीवन वृक्ष के , ये मूल बीज हैं |
ये केवल लक्ष्य न देते , देते हैं राह भी |
जीवन को मकसद मिलता , और हाँ उत्साह भी |
लड़ने को , आगे बढ़ने को , इनसे प्राप्त एक युद्ध होता |
उस युद्ध का नायक , स्वप्न देखने वाला ख़ुद होता |
आदि काल से ये मानव का , मनोबल बढ़ते आ रहे |
गाँव से नगर , नगर से सभ्यता बनाते आ रहे |
जो सपने न देखे कोई , यह मनुष्य व्यवहार नही |
पूरे चाहे हो या न हों , सपने बेकार नही |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मानव एक मच्छर है |
बचपन में यह दूध पीता ,
लहू पीता बड़े होकर है |
काट काट कर छलनी करता ,
यह मानव एक मच्छर है |
चतुर बहुत है , वार हमेशा ,
घात लगा कर करता है |
खुश हो , गाना गाता मंद मंद ,
आघात लगा कर हँसता है |
गन्दगी में ही रह रह कर ,
ये फल फूल रहा है |
लोक लाज , समाज को ,
सदा के लिए भूल रहा है |
इसका काटा तुंरत न दिखता ,
दिखता आगे चलकर है |
कभी अकेला , कभी झुंड में ,
यह मानव एक मच्छर है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
लहू पीता बड़े होकर है |
काट काट कर छलनी करता ,
यह मानव एक मच्छर है |
चतुर बहुत है , वार हमेशा ,
घात लगा कर करता है |
खुश हो , गाना गाता मंद मंद ,
आघात लगा कर हँसता है |
गन्दगी में ही रह रह कर ,
ये फल फूल रहा है |
लोक लाज , समाज को ,
सदा के लिए भूल रहा है |
इसका काटा तुंरत न दिखता ,
दिखता आगे चलकर है |
कभी अकेला , कभी झुंड में ,
यह मानव एक मच्छर है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
साए से मुलाकात
आज बहुत दिन बाद , अपने साए से मुलाकात हुई |
साथ बैठ , कुछ इधर - उधर की बात हुई |
फुर्सत नही है तुम्हे आजकल , वो बात बात में पूछ बैठा |
मैं कुछ और शब्द उठा कर , यह मुद्दा बदल बैठा |
थोडी देर में , वो अपने रास्ते चला गया |
मुझे एक सवाल , बूझने के वास्ते दे गया |
सच में , कितना ख़ुद में सिमटता जा रहा हूँ |
स्लेट पे लिखी लकीर सा मिटता जा रहा हूँ |
पहचान बनाने के लिए , कितना घिस - पिघल रहा हूँ |
अपने ही साये से , मुद्दतों में मिल रहा हूँ |
यह कोशिश मेरी , गर कामयाब हो जाए |
हासिल वह मुकाम हो जाए |
कि दुनिया कहे ,बन्दे से नही , न सही ,
उसके साए से ही मुलाक़ात हो जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
साथ बैठ , कुछ इधर - उधर की बात हुई |
फुर्सत नही है तुम्हे आजकल , वो बात बात में पूछ बैठा |
मैं कुछ और शब्द उठा कर , यह मुद्दा बदल बैठा |
थोडी देर में , वो अपने रास्ते चला गया |
मुझे एक सवाल , बूझने के वास्ते दे गया |
सच में , कितना ख़ुद में सिमटता जा रहा हूँ |
स्लेट पे लिखी लकीर सा मिटता जा रहा हूँ |
पहचान बनाने के लिए , कितना घिस - पिघल रहा हूँ |
अपने ही साये से , मुद्दतों में मिल रहा हूँ |
यह कोशिश मेरी , गर कामयाब हो जाए |
हासिल वह मुकाम हो जाए |
कि दुनिया कहे ,बन्दे से नही , न सही ,
उसके साए से ही मुलाक़ात हो जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
तुझमें कुछ बात है |
दिन - दिन आकर चले गए ,
चलीं गई कई रात हैं |
जैसा था तू , वैसा ही है ,
तुझमें कुछ बात है |
चलने से तेरे , समय रेत पर ,
बन गए पद छाप हैं |
हवाएं चलीं बहुत लेकिन ,
आज भी वह साफ़ हैं |
तू चलता ही रह ,
राह चाहे जैसी रहे |
कुछ कर गुजरने की लौ ,
बस तुझमें जलती रहे |
अब जो तेरे साथ ,
आज भाग्य नही |
कोई बात नही ,
ये वक्त वक्त की बात है |
ऐसा पहले भी ,
हुआ बहुत बार है |
तू कर सकता है , तू कर लेगा ,
तुझमें कुछ बात है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
चलीं गई कई रात हैं |
जैसा था तू , वैसा ही है ,
तुझमें कुछ बात है |
चलने से तेरे , समय रेत पर ,
बन गए पद छाप हैं |
हवाएं चलीं बहुत लेकिन ,
आज भी वह साफ़ हैं |
तू चलता ही रह ,
राह चाहे जैसी रहे |
कुछ कर गुजरने की लौ ,
बस तुझमें जलती रहे |
अब जो तेरे साथ ,
आज भाग्य नही |
कोई बात नही ,
ये वक्त वक्त की बात है |
ऐसा पहले भी ,
हुआ बहुत बार है |
तू कर सकता है , तू कर लेगा ,
तुझमें कुछ बात है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
ऐसा भी क्या है
बहुत कोशिश कर , दो चार शब्द जोड़ पाया |
ख़ुद को समेट कर , उससे वह बोल पाया |
कितनी बार कहा उससे , उसने कब सुनना चाहा ?
बहुत होंगे चाहने वाले , जिन्हें उसने अपनाना चाहा |
मेरे फिजूल ख्वाब तो देखो |
नही लिखी जो भाग्य में , उसी चीज़ को पाना चाहा |
सच ही पाया मैंने , क्यों मिले वो आख़िर मुझको ?
मुझमें ऐसा भी क्या है ?
मिलकर भी वह मिलती नही |
यह इनकार नही , तो फ़िर और क्या है ?
अब जान गया हूँ , कि मैं उसके लायक नही |
पर समझ न पाया , जो मुझमें नही , औरों में ऐसा भी क्या है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
ख़ुद को समेट कर , उससे वह बोल पाया |
कितनी बार कहा उससे , उसने कब सुनना चाहा ?
बहुत होंगे चाहने वाले , जिन्हें उसने अपनाना चाहा |
मेरे फिजूल ख्वाब तो देखो |
नही लिखी जो भाग्य में , उसी चीज़ को पाना चाहा |
सच ही पाया मैंने , क्यों मिले वो आख़िर मुझको ?
मुझमें ऐसा भी क्या है ?
मिलकर भी वह मिलती नही |
यह इनकार नही , तो फ़िर और क्या है ?
अब जान गया हूँ , कि मैं उसके लायक नही |
पर समझ न पाया , जो मुझमें नही , औरों में ऐसा भी क्या है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 22 अप्रैल 2009
क्यों न साँस लूँ ?
आज थोडी देर , बैठ क्यों न साँस लूँ |
स्वयं से ही सही , बाँध थोडी आस लूँ |
राह ये जो , क्रूर है , मुझे थकाती जा रही |
यहाँ वहाँ तन पर मेरे , घाव लगाती जा रही |
जब चला था , न पता था , जाना इतना दूर है |
रस्ता बचा है बहुत अभी , मन थककर चूर है |
बार - बार उठ रहे दर्द को , हर बार दबाया है |
तिल - तिल टूट रहे मन को , कई बार ढाढस बंधाया है |
पल - पल लगता , धीरे - धीरे , दूरी बढती जा रही |
छोटी सी ये नाव मेरी , तूफ़ान से लड़ती जा रही |
अकेले ही अब , आगे कितने कोस चलूँ ?
थक गया हूँ , थोडी देर , बैठ क्यों न साँस लूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
स्वयं से ही सही , बाँध थोडी आस लूँ |
राह ये जो , क्रूर है , मुझे थकाती जा रही |
यहाँ वहाँ तन पर मेरे , घाव लगाती जा रही |
जब चला था , न पता था , जाना इतना दूर है |
रस्ता बचा है बहुत अभी , मन थककर चूर है |
बार - बार उठ रहे दर्द को , हर बार दबाया है |
तिल - तिल टूट रहे मन को , कई बार ढाढस बंधाया है |
पल - पल लगता , धीरे - धीरे , दूरी बढती जा रही |
छोटी सी ये नाव मेरी , तूफ़ान से लड़ती जा रही |
अकेले ही अब , आगे कितने कोस चलूँ ?
थक गया हूँ , थोडी देर , बैठ क्यों न साँस लूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 21 अप्रैल 2009
जीवन कितना कम है |
जी ले - जी ले जी भर के , अभी साँसों में दम है |
थोड़ा पड़ता है हमेशा , जीवन कितना कम है !
पानी का यह बुलबुला , कुछ समय में फूट जाता है |
आँख झपकती है और , संसार से नाता टूट जाता है |
बस एक स्वप्न प्रतीत होता है |
जो अभी है , पल भर में अतीत होता है |
ज़रा से सफर में , कभी खुशी , कभी गम है |
हर पड़ाव की अपनी अलग सरगम है |
अंत होता यह , जब साथ लेने आया यम् है |
सत्य है, जितना भी मिला , जीवन कितना कम है !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
थोड़ा पड़ता है हमेशा , जीवन कितना कम है !
पानी का यह बुलबुला , कुछ समय में फूट जाता है |
आँख झपकती है और , संसार से नाता टूट जाता है |
बस एक स्वप्न प्रतीत होता है |
जो अभी है , पल भर में अतीत होता है |
ज़रा से सफर में , कभी खुशी , कभी गम है |
हर पड़ाव की अपनी अलग सरगम है |
अंत होता यह , जब साथ लेने आया यम् है |
सत्य है, जितना भी मिला , जीवन कितना कम है !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सोमवार, 20 अप्रैल 2009
हर कोई भाग रहा है
चैन नही एक भी पल , सोये में भी जाग रहा है |
आज वक्त से होड़ लगाए , हर कोई भाग रहा है |
आगे बढ़ाने को ख़ुद को , दूसरे का रास्ता काट रहा है |
अपने में ही सिमटा जा रहा , दूसरों से न वास्ता रहा है |
महत्वाकांक्षाएं इसकी जो भी हैं , वो हद से बढ़ी हैं |
सारी भावनाएं इसकी , इसी की भेंट चढ़ी हैं |
परिवार तो दूर ठहरा , ख़ुद के लिए भी अवकाश नही |
इस आपा - धापी में क्या खो रहा , इसका इसको एहसास नही |
प्राप्ति पर भी साँस न लेता , हाथ बढ़ा और मांग रहा है |
हलके भी चल सकता है , पर हर कोई भाग रहा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज वक्त से होड़ लगाए , हर कोई भाग रहा है |
आगे बढ़ाने को ख़ुद को , दूसरे का रास्ता काट रहा है |
अपने में ही सिमटा जा रहा , दूसरों से न वास्ता रहा है |
महत्वाकांक्षाएं इसकी जो भी हैं , वो हद से बढ़ी हैं |
सारी भावनाएं इसकी , इसी की भेंट चढ़ी हैं |
परिवार तो दूर ठहरा , ख़ुद के लिए भी अवकाश नही |
इस आपा - धापी में क्या खो रहा , इसका इसको एहसास नही |
प्राप्ति पर भी साँस न लेता , हाथ बढ़ा और मांग रहा है |
हलके भी चल सकता है , पर हर कोई भाग रहा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 19 अप्रैल 2009
वो वहीँ खड़ा है
सालों से इस धरती पर , पर्वत बन कर जड़ा है |
युग - युग आ कर चले गए |
यह हिमालय जहाँ था , बस वो वहीँ खड़ा है |
नदियाँ , खनिज , बूटी सब देता , ह्रदय इसका विशाल बड़ा है |
सर्द हवाएं जो चुनौती देतीं , उनसे अकेला ही लड़ा है |
वर्षा हो हमारे घर में , इसलिए निर्भीक हो अड़ा है |
स्नेह , त्याग , बलिदान का , एक उदाहरण बड़ा है |
अभी तक बस लेते आए , कभी वापस कुछ करा है ?
नग्न होता जा रहा , संकट इस पर आ पड़ा है |
शांत दिखता जो बाहर , क्या पता अन्दर धधक रहा है ?
व्यथा कहता किस से अपनी , किसको इसका ध्यान पड़ा है ?
प्रलय आ सकती है धरा पर , गर यह बिफर पड़ा है |
हम बदल गए , यह न बदला |
यह हिमालय जहाँ था , बस वो वहीँ खड़ा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
युग - युग आ कर चले गए |
यह हिमालय जहाँ था , बस वो वहीँ खड़ा है |
नदियाँ , खनिज , बूटी सब देता , ह्रदय इसका विशाल बड़ा है |
सर्द हवाएं जो चुनौती देतीं , उनसे अकेला ही लड़ा है |
वर्षा हो हमारे घर में , इसलिए निर्भीक हो अड़ा है |
स्नेह , त्याग , बलिदान का , एक उदाहरण बड़ा है |
अभी तक बस लेते आए , कभी वापस कुछ करा है ?
नग्न होता जा रहा , संकट इस पर आ पड़ा है |
शांत दिखता जो बाहर , क्या पता अन्दर धधक रहा है ?
व्यथा कहता किस से अपनी , किसको इसका ध्यान पड़ा है ?
प्रलय आ सकती है धरा पर , गर यह बिफर पड़ा है |
हम बदल गए , यह न बदला |
यह हिमालय जहाँ था , बस वो वहीँ खड़ा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 18 अप्रैल 2009
बस थोड़ा और |
बार बार कोशिश करता , लगता आखिरी बार है |
असफल होता पर लगता , लक्ष्य दूर बस ,थोड़ा और है |
आलोचक हुए हैं इतने ,कभी न किया गौर है |
हिम्मत न देते वो , कहते दूर बहुत वो ठौर है |
ख़ुद पर है यकीन , बाजुओं में ज़ोर है |
राह भले ही मुश्किल ,बादल छाये घनघोर हैं |
पर इन सबका कुछ मोल नही |
मुझे पता है , जाना किस ओर है |
कभी कदम डगमगा जाते हैं |
साहस देता ,शुभकामनाओं का शोर है |
ख़ुद को साबित करने की , भावना अब पुरजोर है |
पहुँच जाऊँगा आख़िर , लक्ष्य दूर बस , थोड़ा और है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
असफल होता पर लगता , लक्ष्य दूर बस ,थोड़ा और है |
आलोचक हुए हैं इतने ,कभी न किया गौर है |
हिम्मत न देते वो , कहते दूर बहुत वो ठौर है |
ख़ुद पर है यकीन , बाजुओं में ज़ोर है |
राह भले ही मुश्किल ,बादल छाये घनघोर हैं |
पर इन सबका कुछ मोल नही |
मुझे पता है , जाना किस ओर है |
कभी कदम डगमगा जाते हैं |
साहस देता ,शुभकामनाओं का शोर है |
ख़ुद को साबित करने की , भावना अब पुरजोर है |
पहुँच जाऊँगा आख़िर , लक्ष्य दूर बस , थोड़ा और है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 17 अप्रैल 2009
इतना शोर क्यों है
दूसरो की आवाजों में , आज इतना ज़ोर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?
अन्दर का सन्नाटा , और भी गहरा रहा |
बढ़ता यह शोर , मुझे कर बहरा रहा |
छाँव ढूंढता घूम रहा , सूर्य आग बरसा रहा |
साया बचा है एक साथी , कुछ पूछा जा रहा |
पर क्या उत्तर दूँ , थोडी ही बची जान है |
अब क्या करूँ समेट उसे , जब पास न जुबान है |
राह चुनी जो मैंने , उसमें इतने मोड़ क्यों हैं ?
दौड़ चुनी जो मैंने , उसमें इतनी होड़ क्यों है ?
उदासी छाई है मुझमें , आया यह दौर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?
अन्दर का सन्नाटा , और भी गहरा रहा |
बढ़ता यह शोर , मुझे कर बहरा रहा |
छाँव ढूंढता घूम रहा , सूर्य आग बरसा रहा |
साया बचा है एक साथी , कुछ पूछा जा रहा |
पर क्या उत्तर दूँ , थोडी ही बची जान है |
अब क्या करूँ समेट उसे , जब पास न जुबान है |
राह चुनी जो मैंने , उसमें इतने मोड़ क्यों हैं ?
दौड़ चुनी जो मैंने , उसमें इतनी होड़ क्यों है ?
उदासी छाई है मुझमें , आया यह दौर क्यों है ?
मन मेरा खामोश पड़ा , बाहर इतना शोर क्यों है ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
गुरुवार, 16 अप्रैल 2009
पहाड़ मुझे बुलाते हैं |
अक्सर मेरे बगल में आकर ,
धीरे से फुसफुसाते हैं |
नैन बिछाए बैठे रहते ,
वे पहाड़ मुझे बुलाते हैं |
जाता हूँ जो कभी तो ,
स्वागत में झुक - झुक जाते हैं |
वृक्ष झूमते खुशी - खुशी ,
झरने रुक - रुक जाते हैं |
ठंडे झोंके पवन के ,
अपनी - अपनी कहते हैं |
सुंदर दृश्य यहाँ - वहाँ ,
खुलकर बिखरे रहते हैं |
सुबह होती ज्यों ही ,
पक्षी जगा जाते हैं |
सूर्य देवता इनके शीश ,
स्वर्णिम मुकुट सजा जाते हैं |
मन वहाँ जाकर ,
होता कितना प्रसन्न है |
हर पत्ते पर ओस नही ,
मानो अपनापन है |
सदा मेरे सपनो में आकर ,
हौले से रुलाते हैं |
मन करता है , छोड़ सब भाग जाऊ वहाँ ,
जहाँ ये पहाड़ मुझे बुलाते हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
धीरे से फुसफुसाते हैं |
नैन बिछाए बैठे रहते ,
वे पहाड़ मुझे बुलाते हैं |
जाता हूँ जो कभी तो ,
स्वागत में झुक - झुक जाते हैं |
वृक्ष झूमते खुशी - खुशी ,
झरने रुक - रुक जाते हैं |
ठंडे झोंके पवन के ,
अपनी - अपनी कहते हैं |
सुंदर दृश्य यहाँ - वहाँ ,
खुलकर बिखरे रहते हैं |
सुबह होती ज्यों ही ,
पक्षी जगा जाते हैं |
सूर्य देवता इनके शीश ,
स्वर्णिम मुकुट सजा जाते हैं |
मन वहाँ जाकर ,
होता कितना प्रसन्न है |
हर पत्ते पर ओस नही ,
मानो अपनापन है |
सदा मेरे सपनो में आकर ,
हौले से रुलाते हैं |
मन करता है , छोड़ सब भाग जाऊ वहाँ ,
जहाँ ये पहाड़ मुझे बुलाते हैं |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 15 अप्रैल 2009
विश्व एक मंच है
एक महान लेखक ने लिखा ,
यह विश्व एक मंच है |
नाट्य यहाँ हर जीवन ,
आदि से अंत है |
हरेक मनुष्य अपना ,
निभा रहा किरदार है |
इस बड़े नाटक का ,
छोटा सा हिस्सेदार है |
लिखे विधाता ने जो शब्द ,
बस उन्ही को पढ़ रहा |
अपने अस्तित्व के लिए ,
इस मंच पर लड़ रहा |
कभी बैठा रोता रहता ,
कभी खुश हो हंस दे|
कई आते , कई जाते ,
यह विश्व एक मंच है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
यह विश्व एक मंच है |
नाट्य यहाँ हर जीवन ,
आदि से अंत है |
हरेक मनुष्य अपना ,
निभा रहा किरदार है |
इस बड़े नाटक का ,
छोटा सा हिस्सेदार है |
लिखे विधाता ने जो शब्द ,
बस उन्ही को पढ़ रहा |
अपने अस्तित्व के लिए ,
इस मंच पर लड़ रहा |
कभी बैठा रोता रहता ,
कभी खुश हो हंस दे|
कई आते , कई जाते ,
यह विश्व एक मंच है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
तू उड़ सकता है
बहुत आगे नही आया तू , अभी वापस मुड सकता है |
क्यों चलता है पैदल , जब तू उड़ सकता है |
पीछे क्यूँ है खड़ा तू , जब तू लड़ सकता है |
कदम छोटे - छोटे क्यूँ रखता , जब तू दौड़ सकता है |
साहस कर , तूफानों को , तू मोड़ सकता है |
सर्वश्रेष्ठ है जो उनसे , लगा होड़ सकता है |
बल है तुझमे , रुकावटों को तोड़ सकता है |
अपनी टूटी तकदीर , फ़िर जोड़ सकता है |
पहचान ख़ुद को , तू हर पहाड़ चढ़ सकता है |
क्यों चलता है पैदल , जब तू उड़ सकता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
क्यों चलता है पैदल , जब तू उड़ सकता है |
पीछे क्यूँ है खड़ा तू , जब तू लड़ सकता है |
कदम छोटे - छोटे क्यूँ रखता , जब तू दौड़ सकता है |
साहस कर , तूफानों को , तू मोड़ सकता है |
सर्वश्रेष्ठ है जो उनसे , लगा होड़ सकता है |
बल है तुझमे , रुकावटों को तोड़ सकता है |
अपनी टूटी तकदीर , फ़िर जोड़ सकता है |
पहचान ख़ुद को , तू हर पहाड़ चढ़ सकता है |
क्यों चलता है पैदल , जब तू उड़ सकता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 14 अप्रैल 2009
ये जीवन है
जन्म से जो शुरू हुई ये , सबसे बड़ी पहेली है |
सुलझाने को इसको हर ज़ंग खेली है |
कभी अर्श पर रख दे , कभी फर्श पर पटक दे |
कभी वसंत , और कभी शरद है |
कभी यूँ फिसल जाता , जैसे रेत है |
कभी ऐसे चुभता ,जैसे बेंत है |
हर हिस्सा चल - चित्र जान पड़ता |
कभी दुश्मन , कभी मित्र जान पड़ता |
कितने रंग है , किसने गिने है ?
जीने पड़ते हैं , जो भी मिले हैं |
कभी शहर की भीड़ , कभी सूना वन है |
इश्वर की सप्रेम भेंट ये , ये जीवन है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
सुलझाने को इसको हर ज़ंग खेली है |
कभी अर्श पर रख दे , कभी फर्श पर पटक दे |
कभी वसंत , और कभी शरद है |
कभी यूँ फिसल जाता , जैसे रेत है |
कभी ऐसे चुभता ,जैसे बेंत है |
हर हिस्सा चल - चित्र जान पड़ता |
कभी दुश्मन , कभी मित्र जान पड़ता |
कितने रंग है , किसने गिने है ?
जीने पड़ते हैं , जो भी मिले हैं |
कभी शहर की भीड़ , कभी सूना वन है |
इश्वर की सप्रेम भेंट ये , ये जीवन है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 12 अप्रैल 2009
क्या ये वही भारत है ?
बड़े बुजुर्गों ने जो बनाना चाहा,जिसके लिए मरते रहे |
देख रहे हम आज जिसे ,क्या ये वही भारत है ?
समस्या ही समस्या है ,सुविधायें नदारद हैं |
नेताओं को भ्रष्टता में ,हासिल महारत हैं |
गरीबी बढती जा रही ,नौकरी पाना एक महाभारत हैं |
गाँव और खेती का दृश्य , बहुत हृदय विदारक हैं |
हमारे घर आके , कोई हमे मार जाता हैं |
और पीछे से , सबूत माँगा जाता हैं |
आधी जनता का हम पेट नही भर पा रहे |
पर ऑस्कर में खुशी से , जय हो गा रहे |
हमारा भविष्य जाने किसके बूते हैं |
मंत्रियों पर उछल रहे जूते हैं |
जो राष्ट्र हम बनाने के लिए प्रयासरत रहे |
सोच कर देखो , क्या ये वही भारत हैं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
देख रहे हम आज जिसे ,क्या ये वही भारत है ?
समस्या ही समस्या है ,सुविधायें नदारद हैं |
नेताओं को भ्रष्टता में ,हासिल महारत हैं |
गरीबी बढती जा रही ,नौकरी पाना एक महाभारत हैं |
गाँव और खेती का दृश्य , बहुत हृदय विदारक हैं |
हमारे घर आके , कोई हमे मार जाता हैं |
और पीछे से , सबूत माँगा जाता हैं |
आधी जनता का हम पेट नही भर पा रहे |
पर ऑस्कर में खुशी से , जय हो गा रहे |
हमारा भविष्य जाने किसके बूते हैं |
मंत्रियों पर उछल रहे जूते हैं |
जो राष्ट्र हम बनाने के लिए प्रयासरत रहे |
सोच कर देखो , क्या ये वही भारत हैं ?
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शनिवार, 11 अप्रैल 2009
वह रौशनी
कभी अचानक मैंने , देखी थी वह रौशनी |
कौन दिन था , कौन समय , यह मुझको ध्यान नही |
खुशी से भरी रहती थी, जीवन से हरी रहती थी|
कभी कभी मेरे , आस पास खड़ी रहती थी |
आज भले ही वह रौशनी मुझसे दूर है |
फ़िर भी उसका अहसास मुझे भरपूर है |
उसे पहचान न सका , मेरी भूल है |
पर अब पछताना फिजूल है |
कंही मिल जाए फिर से , तो देख लूँ जी भर के |
थोडी सी चुरा लूँगा , आँखों में बंद कर के |
मन खुशी से खिल जाए , एक बार जो दिख जाए |
अब जाने न दूँगा उसे , वह रौशनी जो मुझे मिल जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कौन दिन था , कौन समय , यह मुझको ध्यान नही |
खुशी से भरी रहती थी, जीवन से हरी रहती थी|
कभी कभी मेरे , आस पास खड़ी रहती थी |
आज भले ही वह रौशनी मुझसे दूर है |
फ़िर भी उसका अहसास मुझे भरपूर है |
उसे पहचान न सका , मेरी भूल है |
पर अब पछताना फिजूल है |
कंही मिल जाए फिर से , तो देख लूँ जी भर के |
थोडी सी चुरा लूँगा , आँखों में बंद कर के |
मन खुशी से खिल जाए , एक बार जो दिख जाए |
अब जाने न दूँगा उसे , वह रौशनी जो मुझे मिल जाए |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
तू क्या चाहता है ?
कभी ख़ुद से सवाल पूछा ,कि तू क्या चाहता है ?
पास जो तेरे वो कुछ नही , दूर जो , उसके पीछे भागता है |
कभी ये , कभी वो ,जाने क्या करना चाहता है ?
चोट लगती है कभी , तो बैठ कराहता है |
मन तो है ही चंचल ,वह उड़ना ही चाहता है |
लेकिन उसके पंख कतरने ,क्या तू नही जानता है ?
एक बार ढंग से सोच तो ले ,कि तू क्या चाहता है ?
फिर आने दे आगे तेरे ,जो भी आना चाहता है |
तीर चलाते सभी यहाँ , पर निशाना वही लगाता है |
जो मछली नही ,केवल उसकी आँख देखना चाहता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
पास जो तेरे वो कुछ नही , दूर जो , उसके पीछे भागता है |
कभी ये , कभी वो ,जाने क्या करना चाहता है ?
चोट लगती है कभी , तो बैठ कराहता है |
मन तो है ही चंचल ,वह उड़ना ही चाहता है |
लेकिन उसके पंख कतरने ,क्या तू नही जानता है ?
एक बार ढंग से सोच तो ले ,कि तू क्या चाहता है ?
फिर आने दे आगे तेरे ,जो भी आना चाहता है |
तीर चलाते सभी यहाँ , पर निशाना वही लगाता है |
जो मछली नही ,केवल उसकी आँख देखना चाहता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 10 अप्रैल 2009
तू युवा है |
हाथ पर हाथ धरे क्यूँ बैठा ,
ऐसा भी क्या हुआ है ?
जंग है यह एक ज़िन्दगी ,
न कि कोई जुआ है |
इंसान ने जो भी चाहा ,
क्या हमेशा वही हुआ है ?
भाग्य नही , कार्य प्रबल माना जिसने ,
उसीने आसमान छुआ है |
आँखे खोल , आगे तुझसे ,
सारा ज़माना हुआ है |
कर सकता है तू वह ,
जो तूने ठाना हुआ है |
अभी से क्यूँ थक गया तू ?
अभी खेल शुरू हुआ है |
तू ऊर्जा का ज्वालामुखी ,
जिसमे लावा भरा हुआ है |
टूट पड़ पूरे दम से उसपर ,
जिससे सामना हुआ है |
उतार ला तारे ज़मीन पर ,
अभी तू युवा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
ऐसा भी क्या हुआ है ?
जंग है यह एक ज़िन्दगी ,
न कि कोई जुआ है |
इंसान ने जो भी चाहा ,
क्या हमेशा वही हुआ है ?
भाग्य नही , कार्य प्रबल माना जिसने ,
उसीने आसमान छुआ है |
आँखे खोल , आगे तुझसे ,
सारा ज़माना हुआ है |
कर सकता है तू वह ,
जो तूने ठाना हुआ है |
अभी से क्यूँ थक गया तू ?
अभी खेल शुरू हुआ है |
तू ऊर्जा का ज्वालामुखी ,
जिसमे लावा भरा हुआ है |
टूट पड़ पूरे दम से उसपर ,
जिससे सामना हुआ है |
उतार ला तारे ज़मीन पर ,
अभी तू युवा है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 8 अप्रैल 2009
मुस्कुराया करो
जब भी मिलो , मुस्कुराया करो |
जैसे भी रहो , खिलखिलाया करो |
जो भी हो दर्द , सह जाया करो |
ज्यादा हो , तो किसी से कह जाया करो |
जीवन एक नदी है , इसमे बहते जाया करो |
ऊँच नीच होगी राह में , इनसे उबर जाया करो |
अपनापन जहाँ महसूस हो , स्वर्ग वहीं पाया करो |
बहुत सुंदर है यह संसार , खुश रहकर , और सुंदर बनाया करो |
इसलिए , जब भी मिलो , मुस्कुराया करो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
जैसे भी रहो , खिलखिलाया करो |
जो भी हो दर्द , सह जाया करो |
ज्यादा हो , तो किसी से कह जाया करो |
जीवन एक नदी है , इसमे बहते जाया करो |
ऊँच नीच होगी राह में , इनसे उबर जाया करो |
अपनापन जहाँ महसूस हो , स्वर्ग वहीं पाया करो |
बहुत सुंदर है यह संसार , खुश रहकर , और सुंदर बनाया करो |
इसलिए , जब भी मिलो , मुस्कुराया करो |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मंगलवार, 7 अप्रैल 2009
मानव कितना लोभी है !
हर दिन हर पल इसे , आस यही बस होती है ,
और मिले - और मिले , मानव कितना लोभी है !
धन दौलत के लिए इसने , पूरी ताकत झोंकी है |
ईर्ष्या और जलन का , यह बन रहा रोगी है |
हमेशा इसको थोड़ा लगता , इसकी झोली में जो भी है |
संतोष नहीं रहा जीवन में , बस लालसा होती है |
अंत समय तक लगता इसको , हाय किस्मत सोती है |
सब पाकर भी संतुष्ट नहीं , मानव कितना लोभी है !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
और मिले - और मिले , मानव कितना लोभी है !
धन दौलत के लिए इसने , पूरी ताकत झोंकी है |
ईर्ष्या और जलन का , यह बन रहा रोगी है |
हमेशा इसको थोड़ा लगता , इसकी झोली में जो भी है |
संतोष नहीं रहा जीवन में , बस लालसा होती है |
अंत समय तक लगता इसको , हाय किस्मत सोती है |
सब पाकर भी संतुष्ट नहीं , मानव कितना लोभी है !
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मैं कोई कवि नही
मैं कोई कवि नही , बस यूँही कुछ लिख लेता हूँ |
अपने सूनेपन को , शब्दों से भर लेता हूँ |
प्यास मुझे कुछ करने की सो ,
ऐसे गला तर कर लेता हूँ |
बंजर से पड़े अपने मन को ,
फिर से हरा कर लेता हूँ |
खुशबू उठती धरती से ,
जब दो शब्द लिख लेता हूँ |
परमानन्द पा लेता हूँ जब ,
कहीं अपनी पंक्तियाँ सुन लेता हूँ |
मैं कोई कवि नही , बस यूँही कुछ लिख लेता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
अपने सूनेपन को , शब्दों से भर लेता हूँ |
प्यास मुझे कुछ करने की सो ,
ऐसे गला तर कर लेता हूँ |
बंजर से पड़े अपने मन को ,
फिर से हरा कर लेता हूँ |
खुशबू उठती धरती से ,
जब दो शब्द लिख लेता हूँ |
परमानन्द पा लेता हूँ जब ,
कहीं अपनी पंक्तियाँ सुन लेता हूँ |
मैं कोई कवि नही , बस यूँही कुछ लिख लेता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
वह मानव
सूरज उगता है , चलता है, अस्त हो जाता है |
मानव जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |
जो बचपन से ही परिश्रम में व्यस्त हो जाता है |
अडचनों, व्यवधानों का अभ्यस्त हो जाता है |
संसार के वैभवों से अनासक्त हो जाता है |
मार्ग उसका स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है |
प्रशंसक उसका समाज समस्त हो जाता है |
वह मानव जो जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
मानव जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |
जो बचपन से ही परिश्रम में व्यस्त हो जाता है |
अडचनों, व्यवधानों का अभ्यस्त हो जाता है |
संसार के वैभवों से अनासक्त हो जाता है |
मार्ग उसका स्वयं ही प्रशस्त हो जाता है |
प्रशंसक उसका समाज समस्त हो जाता है |
वह मानव जो जगता है , घिसकर शाम तक , पस्त हो जाता है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
रविवार, 5 अप्रैल 2009
A place called DehraDun
Often people ask me ,
where are you from ?
I smile and answer ,
A place called DehraDun.
God does'nt bless many with this boon.
To be a part of the heavenly Dun.
Splendid near view of lush hills.
The cool breeze gives you tantalizing chills.
Weather so pleasant and changes so soon.
Morning it's summer, evening monsoon.
People here are polite and enlightened.
The education level is scholarly and heightened.
The place has given many great souls.
Who have achieved ' to be proud of ' goals.
The youth is the heart of the city.
With vivid colors and striking diversity.
The Beatles cherished it , dedicated a song for it.
You cannot help , but just long for it.
I wish i was there,
When the spring flowers bloom.
The place i belong ,
A place called DehraDun.
- Akshat Dabral
Nishabd.
where are you from ?
I smile and answer ,
A place called DehraDun.
God does'nt bless many with this boon.
To be a part of the heavenly Dun.
Splendid near view of lush hills.
The cool breeze gives you tantalizing chills.
Weather so pleasant and changes so soon.
Morning it's summer, evening monsoon.
People here are polite and enlightened.
The education level is scholarly and heightened.
The place has given many great souls.
Who have achieved ' to be proud of ' goals.
The youth is the heart of the city.
With vivid colors and striking diversity.
The Beatles cherished it , dedicated a song for it.
You cannot help , but just long for it.
I wish i was there,
When the spring flowers bloom.
The place i belong ,
A place called DehraDun.
- Akshat Dabral
Nishabd.
एक कविता बना लेता हूँ |
कुछ समय मिले तो,
कागज़ , कलम उठा लेता हूँ |
मन में कुछ लिखने का ,
सहास जुटा लेता हूँ |
अक्षर अक्षर जोड़ ,
शब्द बना लेता हूँ |
इन शब्दों को मोड़ - तोड़ के ,
अर्थ बना लेता हूँ |
अर्थ सही लगने से,
भाव बन जाता है |
और समेट लेता हूँ ,
जो मेरे मन आता है |
इन सब को लेकर ,
एक लय में सजा लेता हूँ |
बस नाम इस कृति को देकर ,
एक कविता बना लेता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
कागज़ , कलम उठा लेता हूँ |
मन में कुछ लिखने का ,
सहास जुटा लेता हूँ |
अक्षर अक्षर जोड़ ,
शब्द बना लेता हूँ |
इन शब्दों को मोड़ - तोड़ के ,
अर्थ बना लेता हूँ |
अर्थ सही लगने से,
भाव बन जाता है |
और समेट लेता हूँ ,
जो मेरे मन आता है |
इन सब को लेकर ,
एक लय में सजा लेता हूँ |
बस नाम इस कृति को देकर ,
एक कविता बना लेता हूँ |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
शुक्रवार, 3 अप्रैल 2009
क्या तू बना वही है ?
तस्वीर बनाई जो तूने अपनी ,
वह तुझमे सजी रही है |
जो बनना चाहता था तू जग मैं ,
आज क्या तू बना वही है ?
राह चल रहा जो इस पल में ,
क्या वह राह सही है ?
इच्छा जिसकी , जो मन में कई बार कही है ,
क्या तू बना वही है ?
संसार के चक्करों में पड़ ,
जो तो भूल गया |
बिना आदर , मेहनत , लगन के ,
मुरझा वह फूल गया |
अब तस्वीर पर तेरी ,
समय की परतें चढी है |
आकांक्षा तेरी , धूल में दबी कहीं है ,
जो हमेशा चाहा तूने ,
क्या तू बना वही है ?
वह तुझमे सजी रही है |
जो बनना चाहता था तू जग मैं ,
आज क्या तू बना वही है ?
राह चल रहा जो इस पल में ,
क्या वह राह सही है ?
इच्छा जिसकी , जो मन में कई बार कही है ,
क्या तू बना वही है ?
संसार के चक्करों में पड़ ,
जो तो भूल गया |
बिना आदर , मेहनत , लगन के ,
मुरझा वह फूल गया |
अब तस्वीर पर तेरी ,
समय की परतें चढी है |
आकांक्षा तेरी , धूल में दबी कहीं है ,
जो हमेशा चाहा तूने ,
क्या तू बना वही है ?
गुरुवार, 2 अप्रैल 2009
लक्ष्य कितना दूर है ?
प्रातः उठते स्वयं से ,
प्रश्न मैं यही करता |
क्या तैयारी पूर्ण है ?
लक्ष्य कितना दूर है ?
सघन स्पर्धा है बड़ी ,
परीक्षा अतिशय कड़ी |
सफल हो , क्या तू वह शूर है ?
लक्ष्य कितना दूर है ?
अपने प्रश्नों का उत्तर ,
सहज ही मैं पा जाता |
जुटा साहस , बढ़ा कदम चल ,
राह भले ही क्रूर है |
साँस लेना उतना चलकर ,
लक्ष्य जितना दूर है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
प्रश्न मैं यही करता |
क्या तैयारी पूर्ण है ?
लक्ष्य कितना दूर है ?
सघन स्पर्धा है बड़ी ,
परीक्षा अतिशय कड़ी |
सफल हो , क्या तू वह शूर है ?
लक्ष्य कितना दूर है ?
अपने प्रश्नों का उत्तर ,
सहज ही मैं पा जाता |
जुटा साहस , बढ़ा कदम चल ,
राह भले ही क्रूर है |
साँस लेना उतना चलकर ,
लक्ष्य जितना दूर है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज मन कुछ उदास है
मित्रों आज न लिखूंगा ,
आज मन कुछ उदास है |
लगती हर तरफ़ नीरसता फैली ,
बोझिल सा एहसास है |
सब यहाँ खुश हैं ,
जाने क्या पर्व ख़ास है |
मुझमे ही यह सूनी भावना ,
जागी अनायास है |
कलम का वजन मन भर है ,
मेरा शब्द कोष तितर बितर है |
न भाव , न अर्थ , न संधि ,
न बन रहा समास है |
मित्रों आज न लिखूंगा ,
आज मन कुछ उदास है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आज मन कुछ उदास है |
लगती हर तरफ़ नीरसता फैली ,
बोझिल सा एहसास है |
सब यहाँ खुश हैं ,
जाने क्या पर्व ख़ास है |
मुझमे ही यह सूनी भावना ,
जागी अनायास है |
कलम का वजन मन भर है ,
मेरा शब्द कोष तितर बितर है |
न भाव , न अर्थ , न संधि ,
न बन रहा समास है |
मित्रों आज न लिखूंगा ,
आज मन कुछ उदास है |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
बुधवार, 1 अप्रैल 2009
वह मृगनयनी
मेरे हृदय में मित्रों ,
आ बसी एक मृगनयनी |
झलक दिखा एक, लुप्त हो जाती ,
अति चंचल वह मोहिनी |
अकस्मात् स्वप्न में उसे पा ,
विस्मित मैं हो जाता |
रातभर उसे ढूंढते हुए ,
जाने कहाँ कहाँ हो आता |
हाथ बदाऊ तो ,
उड़ जाती तितली बनकर|
ख़त लिखता हूँ उसे ,
पर भेजूं किस पते पर |
उसके नयनो ने मुझ पर ,
कुछ ऐसी माया डाली |
उसके ख्याल से ही ,
महक उठता मेरा ह्रदय खाली |
मन बहुत है, बनाऊ उसे अपनी संगिनी,
किंतु पहले चाहता हूँ ,
मुझे मृग बनाकर अपने पीछे ,
दौडाए वह मृगनयनी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
आ बसी एक मृगनयनी |
झलक दिखा एक, लुप्त हो जाती ,
अति चंचल वह मोहिनी |
अकस्मात् स्वप्न में उसे पा ,
विस्मित मैं हो जाता |
रातभर उसे ढूंढते हुए ,
जाने कहाँ कहाँ हो आता |
हाथ बदाऊ तो ,
उड़ जाती तितली बनकर|
ख़त लिखता हूँ उसे ,
पर भेजूं किस पते पर |
उसके नयनो ने मुझ पर ,
कुछ ऐसी माया डाली |
उसके ख्याल से ही ,
महक उठता मेरा ह्रदय खाली |
मन बहुत है, बनाऊ उसे अपनी संगिनी,
किंतु पहले चाहता हूँ ,
मुझे मृग बनाकर अपने पीछे ,
दौडाए वह मृगनयनी |
अक्षत डबराल
"निःशब्द"
प्रेम
प्रेम बिन्दु है , प्रेम सिन्धु है ,
यह ठोस है , यह तरल है |
यह कठिन है , यह सरल है ,
सवालों का प्रत्यक्ष हल है |
प्रेम हृदयों का मेल ही नही ,
चंद दिनों का खेल नही |
यह अविरत बहती सरिता है ,
स्वयं मुग्धा कोई कविता है |
प्रेम वह सुरा जिसमे मद नही ,
इसकी कोई सीमा , कोई हद नही |
हर सम्बन्ध का आधार यही ,
रूप विभिन्न , आकार कई |
आज प्रेम का हो रहा ह्रास बड़ा ,
हर रिश्ता तनाव , अविश्वास भरा |
स्वर्ग धरा पर बना पायेंगे ,
जो इसे जीवित बचा पायेंगे |
अक्षत डबराल " निःशब्द "
यह ठोस है , यह तरल है |
यह कठिन है , यह सरल है ,
सवालों का प्रत्यक्ष हल है |
प्रेम हृदयों का मेल ही नही ,
चंद दिनों का खेल नही |
यह अविरत बहती सरिता है ,
स्वयं मुग्धा कोई कविता है |
प्रेम वह सुरा जिसमे मद नही ,
इसकी कोई सीमा , कोई हद नही |
हर सम्बन्ध का आधार यही ,
रूप विभिन्न , आकार कई |
आज प्रेम का हो रहा ह्रास बड़ा ,
हर रिश्ता तनाव , अविश्वास भरा |
स्वर्ग धरा पर बना पायेंगे ,
जो इसे जीवित बचा पायेंगे |
अक्षत डबराल " निःशब्द "
समय
आदि यही , यही अंत है ,
यह पल प्रतिपल सर्वत्र , तुंरत है |
सबो पर इसका प्रभाव समान है ,
यह समय है , यह महान है |
इसका वार अकाट्य है ,
इसकी शक्ति अप्राप्य है |
स्वयं इश्वर इससे बाध्य है ,
यह समय है , यह महान है |
मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूँजी है ,
यह सफलता की कुंजी है |
रूठे तो श्राप , रीझे तो वरदान है ,
यह समय है , यह महान है |
व्यर्थ करने योग्य नही ,
यह मुद्रा मूल्यवान है |
श्रिस्टी का शास्वत सत्य है ,
यह समय है , यह महान है |
यह पल प्रतिपल सर्वत्र , तुंरत है |
सबो पर इसका प्रभाव समान है ,
यह समय है , यह महान है |
इसका वार अकाट्य है ,
इसकी शक्ति अप्राप्य है |
स्वयं इश्वर इससे बाध्य है ,
यह समय है , यह महान है |
मनुष्य के लिए सबसे बड़ी पूँजी है ,
यह सफलता की कुंजी है |
रूठे तो श्राप , रीझे तो वरदान है ,
यह समय है , यह महान है |
व्यर्थ करने योग्य नही ,
यह मुद्रा मूल्यवान है |
श्रिस्टी का शास्वत सत्य है ,
यह समय है , यह महान है |
तू समर्थ है
बालक था तू जब , तब तू निर्बल था ,
कुछ करने का इरादा किंतु तब भी प्रबल था |
आज तू व्यस्क है , कोई बहाना व्यर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |
कार्य नही कोई जो पूरा न कर सके तू ,
राह नही कोई जो चल न सके तू |
हरेक चुनौती का बस यही अर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |
तुझसे आस देख कितनो को है ,
सामने देख तू बस दौड़ जीतने को है |
इतनी आगे आकर वापस मुडना अनर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |
कुछ करने का इरादा किंतु तब भी प्रबल था |
आज तू व्यस्क है , कोई बहाना व्यर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |
कार्य नही कोई जो पूरा न कर सके तू ,
राह नही कोई जो चल न सके तू |
हरेक चुनौती का बस यही अर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |
तुझसे आस देख कितनो को है ,
सामने देख तू बस दौड़ जीतने को है |
इतनी आगे आकर वापस मुडना अनर्थ है ,
कर तो सही कोशिश , याद रख , तू समर्थ है |
मंगलवार, 31 मार्च 2009
क्या ख़ुद को बदल पाओगे
क्या ख़ुद को बदल पाओगे
जीवन एक मरू-स्थल है ,
इसमे फसल पैदा कर पाओगे ?
वैमनस्य है इतना जग में,
इसमें साथी कहीं पाओगे ?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
दूर बना कर लक्ष्य अपना ,
बीच में थक तो न जाओगे ?
देह जलाकर के अपनी ,
खाली हाथ तो नही आओगे ,
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
मृग बनाकर दौडैएगी तृष्णा ,
क्या यह समझ पाओगे ?
मछली की आँख भूल ,
लिप्सा में तो न उलझ जाओगे ?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
सूर्य बढ़ाएगा तम अपना ,
इसमें जल तो न जाओगे ?
भट्टी में तपना ही पड़ेगा ,
तभी स्वर्ण कहलाओगे |
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
- अक्षत डबराल "निःशब्द "
जीवन एक मरू-स्थल है ,
इसमे फसल पैदा कर पाओगे ?
वैमनस्य है इतना जग में,
इसमें साथी कहीं पाओगे ?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
दूर बना कर लक्ष्य अपना ,
बीच में थक तो न जाओगे ?
देह जलाकर के अपनी ,
खाली हाथ तो नही आओगे ,
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
मृग बनाकर दौडैएगी तृष्णा ,
क्या यह समझ पाओगे ?
मछली की आँख भूल ,
लिप्सा में तो न उलझ जाओगे ?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
सूर्य बढ़ाएगा तम अपना ,
इसमें जल तो न जाओगे ?
भट्टी में तपना ही पड़ेगा ,
तभी स्वर्ण कहलाओगे |
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
क्या ख़ुद को बदल पाओगे?
- अक्षत डबराल "निःशब्द "
सोमवार, 30 मार्च 2009
Dynamics
I have been greatly troubled by a question; what is the most dynamic thing in the world?
Several plausible answers cropped up and were rejected erstwhile. Lately, I struck at a satisfying answer, so close that i was bewildered at the solution. It's the "mind". The same thing that generated the question, had the answer colloquially.
The "mind" is different from the brain. Brain is what we have, mind is what we get. Brain is all about Potential energy, mind is all about Kinetic energy. Ever wondered, one fraction of a second it's here just in front of you, and the next it wanders to the scenic beauties of Switzerland. At an instant it's concentrating, next it's busy playing a song for oneself. a feat no supercomputer can achieve, that too in so less space.It's the all controlling, directing authority, sometimes authoritative, sometimes humble. It knows the best way always, the smartest calculator ever made. It's been rightly said by someone, " In creating man, God somewhat under estimated his ability."
The men of highest order and merit know how to tap this resource to the maximum. Each one of them has developed a unique process within themselves, comprising of time-management, multitasking and what not, to work out an effective thought process for goal attainment. It's always advisable to use this most dynamic natural resource to the best of one's capability.
Several plausible answers cropped up and were rejected erstwhile. Lately, I struck at a satisfying answer, so close that i was bewildered at the solution. It's the "mind". The same thing that generated the question, had the answer colloquially.
The "mind" is different from the brain. Brain is what we have, mind is what we get. Brain is all about Potential energy, mind is all about Kinetic energy. Ever wondered, one fraction of a second it's here just in front of you, and the next it wanders to the scenic beauties of Switzerland. At an instant it's concentrating, next it's busy playing a song for oneself. a feat no supercomputer can achieve, that too in so less space.It's the all controlling, directing authority, sometimes authoritative, sometimes humble. It knows the best way always, the smartest calculator ever made. It's been rightly said by someone, " In creating man, God somewhat under estimated his ability."
The men of highest order and merit know how to tap this resource to the maximum. Each one of them has developed a unique process within themselves, comprising of time-management, multitasking and what not, to work out an effective thought process for goal attainment. It's always advisable to use this most dynamic natural resource to the best of one's capability.
Why a day has 24 hours ??
Why a day has 24 hours ??
Had it one and a half more,
There would have been more powers and towers.
More time to have some showers,
More time to manage the drawers.
One could chase his ambition longer,
Further his dreams would wander.
Well, the Sun, Moon would have been the same,
Allowing an hour for a basket ball game.
Morning walkers would shed extra pounds,
With a decent increase in number of rounds.
Office work would not have been less,
As they would still observe DST i guess.
Children would have been more cheerful,
With longer times of play heartful.
Youth would have more time to kill,
Or utilize it, if they will.
Philosophers would generate more thought,
More thieves would get caught.
The Sun clocks would need more space,
The Big Ben would have to loose its pace.
Give it a thought, had the day been longer,
You would have done all that you wish and wonder.
It’s just my weird conception,
Transmit further if there is good reception.
Had it one and a half more,
There would have been more powers and towers.
More time to have some showers,
More time to manage the drawers.
One could chase his ambition longer,
Further his dreams would wander.
Well, the Sun, Moon would have been the same,
Allowing an hour for a basket ball game.
Morning walkers would shed extra pounds,
With a decent increase in number of rounds.
Office work would not have been less,
As they would still observe DST i guess.
Children would have been more cheerful,
With longer times of play heartful.
Youth would have more time to kill,
Or utilize it, if they will.
Philosophers would generate more thought,
More thieves would get caught.
The Sun clocks would need more space,
The Big Ben would have to loose its pace.
Give it a thought, had the day been longer,
You would have done all that you wish and wonder.
It’s just my weird conception,
Transmit further if there is good reception.
choices
Choices are what make us
we do not make choices
Often we are confronted with situation were we have no choice
but later we realise that the almighty had made his choice and given us none just for our benefit.
we do not make choices
Often we are confronted with situation were we have no choice
but later we realise that the almighty had made his choice and given us none just for our benefit.
Modernization: Where are we heading?
Modernization: Where are we heading?
The advent of modernization can be traced back to the Industrial Revolutions in Europe. They ushered in a new era of changing lifestyles and paradigm shift in the people’s attitude. India that is Bharat (to differentiate modern from the traditional) was late to join this global bandwagon of modernization due to prolonged servitude and colonialism of the imperial powers. Although these powers brought the initial impetus to modernize the country, but they never tried for its development. Their sole concern was profit maximization, and the country besides been getting impoverished, got industries and railways as by products. As of the present times, India is modernizing at a steady pace, but this modernization has a different connotation for different sections of the society. Its similar to the story where five blind men meet an elephant and each one of those describes them on his own perception.
Considering the vast population of India we can never boast of it as an achievement, but the flip side of this invalid coin is that we have the largest number of youth in the world. The youth is bedazzled with the fast changing world around him; he has a mosaic of own for modernization. Some perceive that adopting a western lifestyle means modernization, actually obtaining freedom form social and cultural boundations is their motto. This is the reason we see deterioration of traditional values and shirking off of customs. To some modernization is mere coming to cities from their native towns and villages and then become a part of that ever growing giant. Some are so deprived of means and measures that they believe eking out money; by what so ever means is modernization. This has resulted in wide spread imbalances and ideological conflicts. We still remember what happened in Mangalore last week. What some people thought acceptable and ethical was a strict deviation from status quo for others. That’s as simple as people have notions; they become doctrines when others start to believe in them.
As for the masses comprising mainly of our peasants, deprived of land and facilities, modernization means an improvement in yield, which they sight as distant as the Sun. The fertilizers, irrigation and other facilities are all eaten up by the “suitcase farmers” having modern techniques and equipment. A poor peasant is left with nothing but more people to feed, less land to till and the food he eats to sow. The fertilizers facilities has been severely crippled by the economic reforms of the mid 1990s although country’s produce has increased but as a nation we have lost much. We often hear of farmer suicides and what can we call this a “modern” technique of repaying the debts accrued?
Even the manufacturing industries have modernized structurally and functionally, not ideologically. This is so, as you can still see promoters of a renowned paint company belittling Napgpur Orange to Canada Orange. Is this show of superior ness of foreign goods modernization? Was this the motive of the Swadeshi movement, which forms a part of our freedom struggle? The souls of our freedom fighters would have wept at this.
The increasing trend in services industry is a symbol of modern India , but hasn’t it made our economy so severely dependent on the FIIs and the FDIs. One can agree that the investors consider India a better investment place than Russia and China , but can one deny that if one’s own economy is reeling under recession that person would invest in an other country? How will we sustain our previous steady growth of 8-9 %.
The need of the hour is to bring in modernization of agriculture, which still employs 3/5th of our population; this will not only strengthen our economy but also distribute the fruits of development to the downtrodden. There is a need to infuse the youth with right mix of modern and traditional ideas, so they understand what our country stands for. The means and modes of governance need to be modernized if we want a corruption free and people friendly governance as envisaged by the ARC to be achieved till 2020.Modernization as a tool can prove to be a use or a nuisance, it all depends how effectively and judiciously we deploy it.
Akshat Dabral
akshat.dabral@gmail.com
The advent of modernization can be traced back to the Industrial Revolutions in Europe. They ushered in a new era of changing lifestyles and paradigm shift in the people’s attitude. India that is Bharat (to differentiate modern from the traditional) was late to join this global bandwagon of modernization due to prolonged servitude and colonialism of the imperial powers. Although these powers brought the initial impetus to modernize the country, but they never tried for its development. Their sole concern was profit maximization, and the country besides been getting impoverished, got industries and railways as by products. As of the present times, India is modernizing at a steady pace, but this modernization has a different connotation for different sections of the society. Its similar to the story where five blind men meet an elephant and each one of those describes them on his own perception.
Considering the vast population of India we can never boast of it as an achievement, but the flip side of this invalid coin is that we have the largest number of youth in the world. The youth is bedazzled with the fast changing world around him; he has a mosaic of own for modernization. Some perceive that adopting a western lifestyle means modernization, actually obtaining freedom form social and cultural boundations is their motto. This is the reason we see deterioration of traditional values and shirking off of customs. To some modernization is mere coming to cities from their native towns and villages and then become a part of that ever growing giant. Some are so deprived of means and measures that they believe eking out money; by what so ever means is modernization. This has resulted in wide spread imbalances and ideological conflicts. We still remember what happened in Mangalore last week. What some people thought acceptable and ethical was a strict deviation from status quo for others. That’s as simple as people have notions; they become doctrines when others start to believe in them.
As for the masses comprising mainly of our peasants, deprived of land and facilities, modernization means an improvement in yield, which they sight as distant as the Sun. The fertilizers, irrigation and other facilities are all eaten up by the “suitcase farmers” having modern techniques and equipment. A poor peasant is left with nothing but more people to feed, less land to till and the food he eats to sow. The fertilizers facilities has been severely crippled by the economic reforms of the mid 1990s although country’s produce has increased but as a nation we have lost much. We often hear of farmer suicides and what can we call this a “modern” technique of repaying the debts accrued?
Even the manufacturing industries have modernized structurally and functionally, not ideologically. This is so, as you can still see promoters of a renowned paint company belittling Napgpur Orange to Canada Orange. Is this show of superior ness of foreign goods modernization? Was this the motive of the Swadeshi movement, which forms a part of our freedom struggle? The souls of our freedom fighters would have wept at this.
The increasing trend in services industry is a symbol of modern India , but hasn’t it made our economy so severely dependent on the FIIs and the FDIs. One can agree that the investors consider India a better investment place than Russia and China , but can one deny that if one’s own economy is reeling under recession that person would invest in an other country? How will we sustain our previous steady growth of 8-9 %.
The need of the hour is to bring in modernization of agriculture, which still employs 3/5th of our population; this will not only strengthen our economy but also distribute the fruits of development to the downtrodden. There is a need to infuse the youth with right mix of modern and traditional ideas, so they understand what our country stands for. The means and modes of governance need to be modernized if we want a corruption free and people friendly governance as envisaged by the ARC to be achieved till 2020.Modernization as a tool can prove to be a use or a nuisance, it all depends how effectively and judiciously we deploy it.
Akshat Dabral
akshat.dabral@gmail.com
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